मौका था कंजक-पूजन का.वैसे मेरा घर आम घरों की
तरह लगभग पितृसत्तात्मक ढ़ाँचे पर ही खड़ा है.पर उस की इस मजबूती को गाहे-बेगाहे
तोड़ने के प्रयास भी निरंतर चलते ही रहते है.कंजक-पूजन किए बगैर तो घर वाले मानने
से रहे.क्योंकि धार्मिक परंपराओं और रूढ़ियों को दरकने में समय लगेगा.पर टूटेगी
जरूर.इसी प्रयास में लगातार कोशिशें जारी रहती है.इस धार्मिक आख्यान में मेरे कहने
से लड़कियों को पैसे देने के बजाय अबकी बार कॉपी-पैंसिल बांटी गई.मुझे भी यह विचार
फेसबुक पर रोहिणी अग्रवाल जी की माता का स्टेटस पढ़ने पर ही आया.अमूमन मैं इस तरह
के कार्यों में अपने को गौण ही रखता था.पर इस बार मेरे इस सुझाव को हरी झंडी मिल
गई.प्रतीकात्मक ढंग से यह लड़कियों के लिए शिक्षा की प्ररेणा और स्वावलंबी बनने का
प्रक्रिया का हिस्सा बन सकती है.इस घटना से लगा कि इस तरह के तमाम लोकतांत्रिक
विचारों का वर्कशॉप घर पर लगातार चलते रहने चाहिए.ताकि घर खुले आसमान की तरह
लगे.सभी अपने हक और समानता के लिए संघर्षरत न होना पडे. वरना पुरुषवादी सोच तो हमेशा घर
में पसरी ही रहती है.बार-बार इस सोच पर हमले होते रहने चाहिए.विचार केवल
पढ़ने-लिखने के लिए नहीं होते,उनका असल मकसद अमल में लाना ही होता है.अमल में लाए
गए विचार ही अनुभव बनकर किसी विचार को ठोस रूप प्रदान करते है.वरना कहते रहिए कि
बहुत मुश्किल है पितृसत्ता से लड़ पाना.कम से कम घर को अपने अदने से जीवन में
लोकतांत्रिक विचारों और मूल्यों के लिए खुला स्पेस बनाना ही चाहिए.
अंत में लड़कियों को इज्जत के नाम पर कत्ल कर देने वाले समाज में तमाम हस्तक्षेप होते ही रहने चाहिए.वरना लड़कियों के लिए यह जीवन यूं ही नरक बनता रहेगा.जहां वे न प्यार कर सकती है और न प्यार का इजहार.बस परिवार बढ़ाने का जरिया बन कर रह जाती है.या दो घरों की इज्जत की पताका.लोहिया जी के शब्दों में कहें तो-''..लड़की की शादी करना माँ बाप की जिम्मेदारी नहीं ; अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा दे देने पर उनकी जिम्मेदारी ख़तम हो जाती है । अगर कोई लड़की इधर उधर घूमती है और किसी के साथ भाग जाती है और दुर्घटना वश उसके अवैध बच्चा , तो यह औरत और मर्द के बीच स्वाभाविक सम्बन्ध हासिल करने के सौदे का एक अंग है , और उसके चरित्र पर किसी तरह का कलंक नहीं ।'' -
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें