सोशल मीडिया और लोकतंत्र
( नवीन रमन –
शोधार्थी--कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में )
क्या हम अपने आस-पास घट रही घटनाओं, आक्रोश, विरोध, हिंसा, नफरत, विचारों,
तरंगों आदि से बदलते हुए समाज को अनदेखा कर सकते हैं.भले ही यह बदलाव नकारात्मक और
सकारात्मक दोनों तरह का ही क्यों न हो.इस बदलाव की प्रक्रिया में अनेक तत्व शामिल
है.जिनमें से एक सोशल मीडिया भी है.कई बार यह ख्याल मन में आता है कि हमारी मानसिक
सरंचना की बनावट में अतीत, वर्तमान और भविष्य इतने गढ़मढ़ रहते हैं कि परत-दर-परत
इनको समझना काफी कठिन हो जाता है.पर फिर भी हम लगातार जद्दोजहद करते हुए अपने आप
से और अपने आस-पास के माहौल से टकराते रहते है.भिड़ते रहते है.आखिर यह टकराना क्या
है ? इस टकराने के भी अनेक स्तर
है.इसमें विरोध और सहमति दोनों का मिलाजुला सहयोग रहता है.यही लोकतंत्र की खासियत
है कि इसमें ये सारी प्रक्रियाएं एक साथ चलती-घटती रहती है. इन्हीं प्रक्रियाओं
में लोकतंत्र की पड़ताल और अध्ययन संभव हो पाता है.किसी भी लोकतंत्र को मजबूत करने
में व्यक्तियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है.यह राष्ट्र का दायित्व बनता है कि वह
एक आलोचनात्मक व्यक्तित्व का निर्माण करें.ताकि आलोचनात्मक राष्ट्र का निर्माण
किया जा सकें.
जहन
में पहला सवाल यही उठता है कि क्या हम एक आलोचनात्मक राष्ट्र के निर्माण में सफल
हुए है ? यदि नहीं तो उसका
स्वरूप कैसा है ? अज्ञेय
के शब्दों में कहे तो “अंततः
हम एक आलोचनात्मक राष्ट्र का निर्माण करने में असफल रहे हैं”.हालात
देखते हुए अज्ञेय का वक्तव्य बिल्कुल सटीक लगता है.प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल के
शब्दों में कहें तो- “ हम
एक आलोचनात्मक, एक
उल्लेखवान, एक
चिंतित राष्ट्र का निर्माण करने में दूर तक असफल रहे है और वर्तमान समय में
भावनाएं कितनी कोमल हो गई है. किसकी भावनाएं न जाने किसकी, किस बात से आहत हो
जाएं,इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है.इन भावनाओं के उफान को ही आप लगातार बढ़ रही
हिंसक घटनाओं, तोड़फोड़ में देख सकते है.भावनाओं की हमारा समाज बहुत चिंता करता है. मैंने आज तक किसी को यह शिकायत करते नहीं सुना
कि फंला आदमी की फंला बात से मेरा विवेक आहत हो गया.आपने सुना हो तो कृपया मुझे
बताएं ?” 1 आलोचनात्मक
विवेक के बजाय भावना प्रधान होना लोकतंत्र के लिए हर रोज नई चुनौती और नई समस्याएं
पैदा करता रहेगा.अलोकतांत्रिक शक्तियां इन्हीं भावनाओं को खास-रणनीति और प्रचार माध्यमों के जरिए अमलीजामा पहना कर
समाज में हिंसा और नफरत के बीज बोने में सफल रही हैं.जिसकी साफ झलक आप मुजफ्फरनगर
में देख सकते है और अन्य जगहों पर भी.यह चुनौती समाज और सोशल मीडिया दोनों जगह हैं.कैसे
निपटना है यह तय करना होगा.
मन में यह सवाल भी बार-बार उठता है कि हमारी ‘कंडिशनिंग’ क्या
इस तरह हुई है कि हम हर एक चीज को सफेद और स्याह रंग में देखने के आदी हो गए
है.बचपन में विज्ञान पर लिखा जाने वाला निबंध-विज्ञान वरदान या अभिशाप.क्या हम आज
भी इसी मानसिकता से चीजों को,घटनाओं को विश्लेषित करने का प्रयास करते है.उन तमाम
प्रक्रियाओं को अनदेखा करते हुए.जिन प्रक्रियाओं को हम बदल भी रहे है और जिनके
कारण हम बदल भी रहे है.इन प्रक्रियाओं को समझना काफी जटिल और धैर्य भरा काम है,पर
आज के दौर में धैर्य की सबसे ज्यादा कमी नजर आती है.क्या यह भी एक कारण नहीं हो
सकता है,जो हमें लोकतंत्र से भीड़तंत्र में बदल दे रहा है.कहने का मतलब यह है कि
हम विवेक को विकसित करने में कहां तक सफल हुए है ? हुए भी
हैं कि नहीं.बदलती परिस्थितियों और समाज को समझने के लिए तैयार हैं कि नहीं.नहीं
है तो क्यों नहीं है ?
क्या इन बदलती परिस्थितियों
को समझने के लिए हमारे पास कोई पैमाना है ? या हम
पुराने पैमानों से इन परिस्थितियों को समझ सकते हैं. “इम्मेनुएल वार्ल्स्टाइन ने अपनी किताब --The end of the world as we
know it में कहा
है कि -जिस रूप में हम दुनिया को जानते है, उस रूप में दुनिया समाप्त हो चुकी है. अब
नई तरह की व्यवस्था विकसित होगी.सारी जो पुरानी विश्व प्रचलित व्यवस्थाएं रही
है.पँजीवाद, समाजवाद, लोकतंत्र, राष्ट्रवाद आदि. सारे सामाजिक - राजनीतिक संगठन के
ढांचे और संरचनाएं है, उन सब की सीमाएं व दरारें साफ दिखने लगी हैं.”2 अब यह हम पर है कि हम इनसे नजरे चुराते है या
इनसे जद्दोजहद करते हुए आगे बढ़ते है.निर्णय हमारे हाथ में है.
वैसे भारत में हर माध्यम को सबसे पहले उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है
और यह प्रक्रिया आज भी निरंतर उसी तरह जारी है.प्रक्रियाओं की जांच-पड़ताल करते
हुए मैं ने महसूस किया कि इसमें हर चीज की भूमिका होती है,वह चाहे नकारात्मक हो या
सकारात्मक.पर इनसे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता.हाँ इन्हें एक निश्चित दिशा जरूर दी जा
सकती है.अपने-अपने स्तर पर, अपने-अपने
तरीके से.वो तरीके सबके एक जैसे ही हो ये जरूरी नहीं.क्योंकि विश्व में सूचना व
तकनीकी क्रांति के कारण संवाद का स्वरूप बदल गया है.इन बदले हुए स्वरूपों में से
एक माध्यम सोशल मीडिया है.यह माध्यम या कोई भी माध्यम हमें बाजार की बढ़ती हुई
शक्ति के कारण उपभोक्ता में बदल रहा है,पर हम प्रयास कर रहे हैं नागरिक बनने के.सारी
जद्दोजहद यहीं आकर सिमट जाती है.इन दोनों स्थितियों के बीच में हमें अपनी भूमिका
निर्धारित करनी होगी.तभी हम लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने से रोक सकते है.जाहिर
है यह काम मात्र उपेक्षा से नहीं चल सकता.हमें इस माध्यम की शक्ति को पहचानना होगा
और सक्रिय हो कर एक निर्णायक भूमिका वहन भी करनी होगी.माध्यम में आलोचनात्मक सक्रिय
हस्तक्षेप ही विरोध की संस्कृति को जिंदा रखते हुए आलोचनात्मक राष्ट्र के निर्माण
में अहम भूमिका निभाई जा सकती है.अन्यथा नहीं.
हमें सोशल मीडिया और इलैक्ट्रानिक मीडिया के अंतर को भी समझना होगा. मीडिया
विश्लेषक विनीत कुमार के अनुसार- “ यह एक
ऐसा दौर है जहाँ मीडिया के साथ दो शब्द हमेशा जुड़े रहते हैं-एंटरटेनमेंट और
इडस्ट्री.चाहे फिक्की की रिपोर्ट हो, बीएसई (बॉम्बे स्टॉक एक्सजेंज), सेबी (भारतीय
प्रतिभूति विनिमय बोर्ड) की वेबसाइट या फिर कोई और जगह,मीडिया शुरू से अंत तक
उद्योग है.लेकिन ऐसे श्रद्धालुओं की संख्या भी अपार है जो पूरी आस्था के साथ इसे
सामाजिक सरोकार का माध्यम मानते हैं ! सरकार
और मीडिया से संबंद्ध संस्थान भले ही उसे एक व्यवस्थित उद्योग की शक्ल देने में
लगे हों लेकिन उसके ऊपर सरोकार का ऐसा मुलम्मा चढ़ा है जो सैकड़ों बार उद्योग शब्द
घिस देने पर भी नहीं उतरता.मीडिया के उद्योग होने के यथार्थ के बावजूद उसकी छवि से
जुड़ा सरोकार का यह यूटोपिया एक विरोधाभास पैदा करता है.एक ऐसा भ्रम जहाँ लोकतंत्र
का कोई चौथा खंभा नहीं है,न संविधान में ऐसा कुछ लिखा है,पर वह है.उसके होने का
मिथक इतना मजबूत है कि वह एक भरे-पूरे बाजार को उठा के खड़ा कर देता है.लेकिन
सूचना औऱ तकनीक के वर्चस्व वाली इस सदी में मीडिया को समझने के प्रस्थान बिंदु
लोकतंत्र नहीं विज्ञापन और शेयर बाजार से शुरू होते हैं.”3 अतः इलैक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया दोनों
के चरित्र के मूलभूल अंतर इन्हें अलग-अलग माध्यम के रूप में समझने और विश्लेषित
करने पर जोर देते हैं.
रवीश कुमार के अनुसार-“ टीवी का विस्तार गाँवों और झुग्गियों
में तेज़ी से हो रहा है. मुंबई दिल्ली की झुग्गियाँ हों या सड़क किनारे
बनी मड़ई आप देखेंगे कि उनकी छतों पर डिश टीवी का तवाकार एंटिना बजबजा रहा है. ठेले पर फल बेचने वाले एक जवान ने हाथ
मिलाते हुए कहा कि आप नेताओं को सही से नंगा करते हो. इतनी मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा
टीवी पर . केबल पर . यह वो तबक़ा है जिसे मल्टीप्लेक्स
सिनेमा हाल ने खदेड़ दिया है . मैं दिल्ली कई इलाक़ों में ऐसे अनेक
लोगों से मिलता हूँ जो दिल्ली में रहते हुए बीस साल से सिनेमा हाल नहीं गए हैं . इनमें से कई ऐसे हैं जो कभी सिंगल
सिनेमा में फ़्रंट स्टाल का टिकट लेकर देखते थे . इस तबके लिए टीवी सिनेमा है . मनोरंजन का माध्यम है . टीवी के दर्शक का सत्तर फ़ीसदी हिस्सा
यही है जिसे नेता नव मध्यमवर्ग कहते हैं . ग़रीबी के सागर में रेखा से ऊपर डूबता
उतराता तबक़ा . इसी तबके तक पहुँच की ज़िद में न्यूज़ चैनल भी
सिनेमा का विस्तार बन गए . रिपोर्टिंग की जगह किस्सागो बन गए. अब यह समाज धीरे धीरे राजनीतिक तौर से रूपांतरित
हो रहा है . राजनीतिक पहले भी था मगर इसकी सक्रियता मीडिया
के स्पेस में भी बढ़ रही है . यही प्रवृत्ति इसके ऊपर के तबके में
हैं . इस
तबके में पेपर भले न आता हो मगर टीवी आता है .“ 4 टीवी का विश्लेषण करते हुए आगे लिखते
हैं कि—“ इसीलिए
आप देखेंगे कि टीवी सिर्फ बोलने लगा है. दिखाना छोड़ दिया है. जनमत के नाम पर
हताशा का समोसा तला जा रहा है. बातों और तथ्यों का कोई परीक्षण नहीं है. इंटरनेट
स्पेस में पहले से मौजूद तथ्यों के आधार पर सवाल बनते हैं और पूरा संदर्भ एक सीमित
दायरे में बनता चला जाता है. हर टीवी पर एक ही टापिक और जानकारी का एक ही सोर्स
गूगल. किसी चैनल के पास अपनी रिपोर्टिंग के ज़रिये नई जानकारी नहीं है. चैनल सिर्फ
लोगों में मौजूद मिथकों, अवधारणाओं, अधकचरी जानकारियों और बेचैनियां का
छेना फाड़ कर पनीर बना रहे हैं. यह जनमत नहीं भगदड़ है. जहाँ सब चिल्ला रहे हैं और
सुनने वाले को लगता है कि उसकी बात हो रही है. " आप सही करते हो नेताओं को धो
डालते हो " ऐसी प्रतिक्रिया इसी की अभिव्यक्ति है.इसीलिए कहता हूँ कि मीडिया
समाज की सक्रियता का मतलब जागरूकता ही हो यह ज़रूरी नहीं है. उसकी जानकारी का सोर्स मीडिया है और
मीडिया की जानकारी का सोर्स भी मीडिया है. घूम घूम के वही बात. धीरे धीरे मीडिया नागरिक चंद अवधारणाओं
के गिरफ़्त में जीने लगता है. यह उसका आरामगाह यानी कंफर्टज़ोन बन
जाता है. एक किस्म की कृत्रिम जागरूकता और भागीदारी
बनती है. अवधारणाओं की विविधता समाप्त हो जाती है.”5
टीवी की सीमाओं के बाद अब बात करते है सोशल
मीडिया की.सोशल मीडिया को लेकर
पहली शंका यही उठती है कि क्या यह हमारे पूरे समाज को अपने दायरे में लेता है या
उसका प्रतिनिधित्व करता है ? हां,यह
सही है कि यह नहीं करता, यह अधूरा या एक हिस्से का सच है,पर झूठ भी नहीं है.वैसे
पूरा समाज और पूरा सच है कहां.कहीं हो तो बता दीजिए.पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि
हमें प्रयास ही नहीं करने चाहिए.इसमें जो कुछ भी है
वो आभासी है, पर सच भी है. आभासी सच. इसी आभासी सच की बुनियाद पर सपनों की एक और
दुनिया रची गई है,और रची जा रही है. सोशल
नेटवर्किंग की दुनिया जो ऑरकुट, ब्लॉगिंग,फेसबुक,ट्वीटर
और छोटे- छोटे तिनकों से तैयार हुआ है .इन तिनको ने सूचनाओं को गंभीर और व्यापक
रूप दिया.इसके साथ-साथ सतही रूप को भी बढ़ावा दिया है.रवीश कुमार के शब्दों में
कहें तो- “हम एक मीडिया समाज में रहते हैं. नागरिकता कई
प्रकार की होती है लेकिन लगातार कई माध्यमों के असर में हम 'मीडिया
नागरिक' बन रहे हैं. हम पहले से कहीं ज़्यादा मीडिया के अलग
अलग माध्यमों से अपनी अपेक्षाएँ पाल रहे हैं और ये माध्यम हमें प्रभावित कर रहे
हैं. जो काम विज्ञापन अपने असर में हमसे साबुन से लेकर जीन्स तक का सक्रिय
उपभोक्ता बनाने में करता है वही काम मीडिया हमें 'दलीय
उपभोक्ता' बनाने में कर रहा है. ट्वीटर पर कई लोग अपने हैंडल
नाम के लिए नमो फ़ैन्स या रागा फ़ैन्स या केजरी फ़ैन्स लिखते हैं. फ़ैन्स राजनीति
का नया उपभोक्ता वर्ग है जिसे सतत प्रचार के ज़रिये पैदा किया जाता है. मीडिया और
सोशल मीडिया के स्पेस में. यही वो मीडिया नागरिक है जो सोशल मीडिया के अपने स्पेस
में 'नान रेसिडेंट सिटिज़न' की तरह
मुख्यधारा की मीडिया को देखता है जैसे एक एन आर आई इंडिया को ताकता है. यह मीडिया
को भी एक राज्य और उसमें ख़ुद को नागरिक की तरह देखता है.“6
हाँ, इतना जरूर है कि सोशल मीडिया ने
अभिव्यक्ति को बाढ़ में तब्दील कर दिया है. अब हम हर समय सूचनाओं से घिरे रहते हैं
और इन सूचनाओं में शामिल भी रहते है.अतः हम सूचना समाज का अंग बन चुके है.इससे
इंकार करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता.सोशल नेटवर्किंग को शुरुआत में इंटरनेट पर
जवान हो रही नई पीढ़ी के नए शगल के रूप में ही लिया गया. इसे बहुत गंभीरता से नहीं
लिया गया और आज भी कईं स्तरों पर नहीं लिया जाता. लेकिन जब धीरे-धीरे नई तकनीक और
संप्रेषण के नए माध्यमों को लेकर जिज्ञासु बौद्धिक वर्ग ने इससे जुड़ना चालू किया
तो सोशल नेटवर्किंग ने अचानक नई करवट ली. हर कोई इस मंच पर आकर अपनी बात कहने को
उतावला हो गया. इस मंच की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यहाँ जिसे जो मर्जी है वो कह
सकता है. ये जनसंचार के परंपरागत संपादित माध्यमों से बिलकुल अलग है. काट-छाँट का
कोई डर नहीं, अपनी रचना कूड़े में
फैंके जाने का कोई ख़तरा नहीं. ... और सबसे बड़ी बात छप जाने का कभी ना ख़त्म होने
वाला इंतजार भी नहीं।
दरअसल यह एक 'वर्च्युअल क्लास रूम' की तरह
है.एक तरह की तकनीकी पाठशाला है.अब यह आप पर है कि आप इसमें शामिल होना चाहते
है,हस्तक्षेप करना चाहते है,साझेदारी रखना चाहते,संवाद करना चाहते है या उपेक्षा
करना चाहते है.यह एक नए तरह का ‘स्पेस’
है. जिससे जुड़े रहने के एहसास को जिंदा
रखने के लिए नया तरीका मिल गया है.यह नई तरह की दुनियादारी है. जिसमें भ्रम भी है
और यथार्थ भी है.इसी से जुड़ा एक सवाल यह भी उठता है कि सोशल मीडिया जनमत तैयार
करता है या भ्रममत ? दरअसल जहां तक मुझे लगता है यह दोनों
काम करता है.तथ्यों, छवियों, सूचनाओं आदि के साथ छेड़छाड़ या मनमुताबिक दिशा देकर
उनमें धार्मिक, सांस्कृतिक एंव राष्ट्रवादी विचारों को उत्पाद में बदल कर चूं-चूं
का मुरब्बा तैयार करता है, जिससे समाज में भय, शंकाएं और अविश्वास को बढ़ावा मिलता
है.इसे हम भ्रम कह सकते है.इस भ्रम को प्रचार-प्रसार के माध्यमों द्वारा खास रणनीति
के तहत जनमत में तब्दील किया जाता है.तमाम पहचानों को आक्रामकता के साथ
प्रस्तुतिकरण की प्रक्रिया में शामिल करके दुविधाग्रस्त और अपरिपक्व युवाओं को
बरगलाने में अहम भूमिका निभाते है.इस रणनीति को सोशल मीडिया के माध्यम से ही काउंटर
किया जा सकता है, क्योंकि इस तरह का प्रचार इसी माध्यम पर सबसे ज्यादा होता
है.पाबंदी लगा देने से समाधान नहीं निकलते.जिसकी तरफदारी कुछ विद्वान करते नजर आते
है.माध्यम-शिक्षा और आलोचनात्मक ‘काउंटर’ ही मेरे हिसाब से सही रणनीति होगी.
इसमें सबसे ज्यादा युवा शामिल है और जिस वजह से यह
बाजार की भी पहली पसंद बनता जा रहा है.बस इसमें लोकतांत्रिक आंदोलनकर्मी भी शामिल
हो जाएं तो बाजारवादी शक्तियों और अलोकतांत्रिक शक्तियों से भी लड़ा जा सकता
है.लड़ाई अब हर स्तर पर लड़नी पड़ेगी.केवल आंदोलनों से काम नहीं चल सकता है.पर इसक
मतलब यह नहीं है कि इससे आंदोलन की भूमिका को नजर अंदाज किया जा रहा है.भौतिक और
मानसिक दोनों स्तरों पर संघर्ष जरूरी है,इसलिए इस माध्यम की शक्ति को पहचान कर
उसका सकारात्मक इस्तेमाल करना होगा.उपेक्षा से काम नहीं चलेगा.क्योंकि
अलोकतांत्रिक शक्तियां इस पर हावी होती जा रही है और बाजार ने इसे अपने ग्राहक
ढूंढने का नया जरिया बना लिया है.
सोशल मीडिया
ने परंपरागत मीडिया पर निर्भरता को कम किया है. लोगों की अभिव्यक्ति मुखर हुई.चंद
लोगों के नापाक इरादे इस नए मीडिया को बर्बाद ना कर पाएँ. यहीं पर हमें अपनी निर्णायक
भूमिका निभानी है.इसे ‘ऑपन स्पेस’ में सृजनात्मक हस्तक्षेप कह सकते है.जिसका स्वरूप लोकतांत्रिक
होगा.क्योंकि संपादित माध्यमों के ख़रीदे जा सकने वाले सरोकारों के बीच सोशल मीडिया
अभिव्यक्ति का पहरुआ बनकर सच को सामने लाता रहे और लोकतंत्र को मजबूत करता रहे.यही
प्रयास हमें करना हैं.
एक सवाल यह भी
उठता है कि क्या यह सामूहिक आवाजों का माध्यम है ? किसी स्तर तक यह सामूहिक आवाजों का माध्यम है भी,पर व्यक्तिक स्तर पर
ज्यादा है.सोशल मीडिया शिक्षा, परिवार, समाज, सरकार आदि सारे सरोकारों को प्रभावित कर रहा
है. उसकी यह ताकत लोकतंत्र को मजबूत तो कर रही है, पर हमें इसके खतरों का भी ख्याल
रखना होगा.लोकतंत्र हमें फैसले लेने की ताकत देता है. यह आम आदमी को आवाज देता
है, ऐसे में सोशल मीडिया का आना इस ताकत को
और बढ़ा देता है.सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता का सवाल आज लोगों तक पहुंचा तो
इसके पीछे सोशल मीडिया की एक बड़ी ताकत है. एक जीवंत लोकतंत्र के लिए एक सक्रिय
मीडिया जरूरी है.जिसकी भरपाई सोशल मीडिया करता है. इसे अंबानी के पुत्र द्वारा कार
से मारे गए लोगों की खबर से बेहतर समझा जा सकता है,जिसे इलैक्ट्रानिक मीडिया ने
नजर अंदाज कर दिया था.उसे सोशल मीडिया ने उठाया.
क्या लोकतंत्र शासन चलाने का सबसे बेहतर तरीका
है ?
लोकतंत्र केवल चुनावों तक सीमित नहीं है ,यहां विचारों का भी लोकतंत्र होना
चाहिए. सोशल मीडिया ने इसे संभव कर दिखाया है। इससे पूरी मानवता एक सूत्र में
जुड़ती हुयी दिखने लगी है.सोशल मीडिया के कारण पार्टनरशिप बन रही है, संवाद बन रहा है और फिर संबंध बन रहे
हैं. परंपरागत मीडिया में जहां संवाद नियंत्रित था और कुछ ही लोग यह तय कर रहे थे
कि क्या पढ़ना है और किन सवालों पर बात होनी है, वहीं सोशल मीडिया ने आम आदमी को ताकत दी है. इसने जाति, भाषा, भूगोल और सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर एक वैश्विक संवाद की परंपरा की
शुरूआत की है. सोशल मीडिया को सामाजिक सरोकारों से जुडकर अपनी निर्णायक भूमिका अदा
करनी होगी,पर यह काम हमें व्यक्तिक और संगठन दोनों स्तरों पर करना होगा.इसी के
चलते सोशल मीडिया में हर नागरिक पत्रकार की भूमिका में आ गया है.अतः हम कह सकते है
कि लोकतंत्र शासन चलाने का सबसे बेहतर तरीका है.
बाजार और सत्ता का आपसी गठजोड़
बाजार को पनपने और फैलने के लिए मनमुताबिक
परिस्थितियां चाहिए.ऐसी परिस्थितियां सत्ता में काबिज लोग इन कॉर्पोरेट कंपनियों
को मुहैया करा रहे है.इसी का नतीजा यह निकलता है कि जो पार्टी जितनी मदद कॉर्पोरेट
की करती है,कंपनी भी उसी की मदद करती हुई नजर आती है.मोदी के प्रति बढ़ते प्रेम को
नजर अंदाज नहीं किया जा सकता.’वॉल स्ट्रीट जनरल’ ने मोदी की प्रशंसा में लिखा है कि-‘धीमे होते भारत का उभरता सितारा’.दूसरी ओर ‘टाइम मैगजीन’ ने लिखा-‘मोदी मतलब व्यापार’.यह जानना दिलचस्प है कि किस कीमत पर ?
यह
कीमत है नागरिकों के अधिकारों में कटौती करके, सब्सिडियां खत्म करके, विरोध की
संस्कृति को कुचल कर, लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म करके.कहने का तात्पर्य यह है
कि सत्ता का लोककल्याणकारी स्वरूप खिसककर मुनाफेखोरी में तब्दील हो रहा है.जिसके
कारण राज्य की संरचना और बुनावट से नागरिकों की परेशानियाँ गायब है.कोई चिंता या
सरोकार बचे नहीं है.बाजार सत्ता पर हावी है और सत्ता समाज पर हावी है.जो कि
लोकतंत्र को कमजोर करने में लगा हुआ है.हर उठती हुई आवाज को दबा देना चाहता है.पर
सोशल मीडिया न दबने की ताकत रखता है.यही इसकी ताकत भी और कमजोरी भी है.
इस बढ़ती मुनाफेखोरी की प्रवृत्ति ने हमें
बाजार की नजर में उपभोक्ता और सत्ता एंव राजनीति की नजर में वोट में तब्दील कर
दिया हैं.ये तमाम प्रक्रियाएं लोकतंत्र को कमजोर करती हैं तथा इसके मूल स्वरूप और
चिंताओं को धूमिल करती हैं.सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभावों को चाहे-अनचाहे रूप में
सभी पार्टियों ने स्वीकार करना शुरू कर दिया है.इसी कराण चुनाव प्रचार में डिजिटल
उपकरणों और सभी माध्यमों का इस्तेमाल हर पार्टी कर रही है.हर पार्टी इनकी शक्तियों
को धीरे-धीरे पहचानने लगी है और इसमें शामिल भी हो रही है. लोकसभा की करीब 30 प्रतिशत सीटों के
सोशल मीडिया से प्रभावित होने की रिपोर्ट पर विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस माध्यम
की ताकत को स्वीकार किया. लेकिन साथ ही कहा कि लोगों से सीधे सम्पर्क जैसे
परंपरागत चलन चुनाव प्रचार का कारगर तरीका है.
“भाजपा उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने
कहा, ‘‘पार्टी चुनाव प्रचार के परंपरागत तरीके पर ही ज्यादा जोर देगी.
इसमें कोई बदलाव नहीं आयेगा. सोशल मीडिया से युवा काफी संख्या में जुड़े हैं और इस
वर्ग तक हम सूचना एवं सम्पर्क के रूप में इंटरनेट,
फेसबुक,
ट्विटर आदि को आगे बढ़ा रहे हैं. लेकिन
यह सूचना एवं संचार सुविधा का तरीका होगा. हम परंपरागत तरीके से ही चुनाव प्रचार
के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं.’’7 सोशल मीडिया पर अभियान को गति देने और
लोगों तक पहुंचने के प्रयास के तहत भाजपा ने ‘मिशन 272
प्लस’
के तहत 60
स्वयंसेवकों की एक टीम बनायी है.जो
लगातार प्रचार-प्रसार में लगी हुई है.“पूर्व
केंद्रीय मंत्री एवं राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा, ‘‘सोशल मीडिया शहरी या देहाती क्षेत्र का विषय नहीं है. इसकी
अधिक चर्चा अन्ना हजारे के आंदोलन के साथ शुरू हुई जो जन लोकपाल और भ्रष्टाचार के
खिलाफ अभियान था और सरकार की ओर से इस आंदोलन से गलत तरीके से निपटा गया. इसी
आंदोलन से जुड़े लोगों ने एक पार्टी बनायी और दिल्ली में उसका अच्छा प्रदर्शन रहा.’’ उन्होंने कहा,
‘‘हालांकि,
सोशल मीडिया के प्रभाव की बात करने वाले
भ्रम में हैं, अगर ऐसा ही होता तो मुम्बई में भी आंदोलन सफल होता. सोशल
मीडिया का प्रभाव सीमित है.’’8
“एक अध्ययन में यह बात
सामने आई है कि अगले आम चुनाव में सोशल मीडिया लोकसभा की 160 सीटों को प्रभावित कर सकता है जो निचले सदन की कुल सीटों का
करीब 30 प्रतिशत है. गौरतलब है कि अध्ययन में कहा गया है कि अगले आम
चुनाव में लोकसभा की 543 सीटों में से 160 अहम सीटों पर सोशल मीडिया का प्रभाव रहने की संभावना है. इनमें
से महाराष्ट्र से सबसे अधिक प्रभाव वाली 21
सीट और गुजरात से 17 सीट शामिल है.’’
उत्तरप्रदेश में ऐसी सीटों की संख्या 14, कर्नाटक में 12,
तमिलनाडु में 12, आंध्र प्रदेश में 11
और केरल में 10 है.अध्ययन के अनुसार,
मध्यप्रदेश में ऐसी सीटों की संख्या 9 जबकि दिल्ली में सात है. हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में ऐसी सीटों की संख्या पांच-पांच है जबकि
छत्तीसगढ, बिहार,
जम्मू कश्मीर, झारखंड और पश्चिम बंगाल में ऐसी चार-चार सीटें हैं. अध्ययन के
अनुसार 67 सीटें सोशल मीडिया के अत्यधिक प्रभाव वाली हैं जबकि शेष की कम
प्रभाव वाली सीटों के रूप में पहचान की गई है. (एजेंसी) “9
|
आज का दौर सोशल मीडिया का है।'सोशल मीडिया- इज इट द वॉयस ऑफ द पीपल?आज सोशल नेटवर्किंग दुनिया भर में
इंटरनेट पर होने वाली नंबर वन गतिविधि है, इससे पहले यह स्थान पोर्नोग्राफी को हासिल था. सोशल नेटवर्किंग
साइट्स संचार व सूचना का सशक्त का जरिया हैं, जिनके माध्यम से लोग अपनी बात बिना किसी रोक-टोक के रख पाते हैं. यह
बात देश और दुनिया के हर कोने तक पहुँच जाती है. हमें सैक्स-शिक्षा और माध्यम-शिक्षा पर
भी जोर देना चाहिए. क्योंकि इन दोनों के अभाव में ही युवा उलटे-सीधे रास्तों के
जरिए अपनी जिज्ञासाएं शांत करते है.
आज हर किसी की जुबान पर
जो युवा-युवा चढ़ा हुआ नजर आता है,उसका एक बड़ा कारण यह सोशल मीडिया ही है.उन्हीं
को ध्यान में रखते हुए ही माई टाईम, माई स्पेस—जैसे जुमले इस्तेमाल किए जा रहे
है.लोकतंत्र को कमजोर से बचाने के लिए न तो युवाओं की अनदेखी की जा सकती है और न
ही उनकी आवाज की.उनकी आवाज को सकारात्मक दिशा देने के लिए उनकी भाषा में संवाद की
स्थिति कायम करनी होगी.वरना तमाम खतरे उठाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा.चयन हमारे
हाथ में है.संवाद बनाएं या संवादहीनता के स्थिति में उन्हें खेलने दे अलोकतांत्रिक
और कम्यूनल-शक्तियों के हाथ में.बेहतर स्थिति यही होगी कि हम इस माध्यम की शक्ति
और सीमाओं को समझते हुए इसमें सक्रिय सृजनात्मक हस्तक्षेप का रास्ता अपनाएं और
आंदोलनों को भी जारी रखें. ताकि लोकतंत्र में उत्पन्न किए जा रहे खतरों से निपटा
जा सके और एक आलोचनात्मक राष्ट्र के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकें.
अतः लोकतंत्र में आलोचना
और प्रतिवाद की महता होती है उसके प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखना चाहिए.लोकतंत्र तभी
सार्थक है जब लोकतांत्रिक मनुष्य भी हो.लोकतांत्रिक मनुष्य के बिना लोकतंत्र बेजान
है.ऐसे में सोशल मीडिया की भूमिका को समझते हुए इस बनते हुए नए स्पेस को प्रतिवाद
और आलोचना के लिए इस्तेमाल करना जरूरी है.अन्यथा इस स्पेस पर अलोकतांत्रिक शक्तियां
काबिज हो कर लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल सकती है और समाज में हिंसा और भेदभाव
को बढ़ा सकती हैं.
संदर्भ
ग्रंथ सूचि---
1. http://chalte-rahiye.blogspot.in/
2. वहीं
3. विनीत कुमार, मंडी में मीडिया,वाणी प्रकाशन,दिल्ली,संस्करण-2012, पृ.-17
4. http://naisadak.blogspot.in/
5. वहीं
6. वहीं
8. वही
9. वहीं
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