बुधवार, 19 नवंबर 2014

पास जितना बेहतर उतना

साथ रहने की तलब भी अजीब-सी तलब होती है । इस तलब की कशिश तमाम तरहों के कश से जुदा है । जुदा होने का ख्याल जब भी मन में खोलता है, तो शरीर का रोम-रोम खोलने लगता है और दिल भी तेज गति से बोलने लगता है । जबान तुतलाने लगती है -अभी मत जाओ, थोड़ी देर और रुक जाओ । बस पांच मिनट होर रुक जाओ । ये सारे ख्याल और बोल हर बार प्रथम के दिलो-दिमाग में कोंधने लगते है । जबकि प्रथम को पता है कि ये मुलाकात आखिरी नहीं है ।न ये मिलना पहली बार है और न बिछड़ना ।तब भी न जाने कौन-सा डर गहरे बसा हुआ है । जो अपनी गिरफ्त में प्रथम को हर बार ले लेता है । न रुकने-रोकने का कोई बहाना प्रथम को समझ नहीं आता तो हर बार की तरह वह अंतिम पैतरा आजमा लेता है- चलो लास्ट चाय पी लेते है, फिर चली जाना ।

"तुम भी न प्रथम । तुम्हारा अलग होने का मन बिल्कुल नहीं करता ।"

"तमन्ना ! तुम्हारा करता है अलग होने का ?"

"नहीं यार ! पर हम अलग कहाँ होते है ? तुम मुझे अब मेरे स्टॉप तक छोड़ने चलोगे ।उसके बाद हम फोन पर बात करेंगे। फिर रात को बात करेंगे और सुबह मैं आ ही जाऊंगी ।"

हाँ ।यार ये सब तो ठीक है । फिर भी तुम जब शाम को घर जाती हो तो अजीब-सा हो जाता है ।

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