सोमवार, 19 अगस्त 2013

एंकर रवीश कुमार जी

एंकर रवीश कुमार जी,
बहुत बार मन करता है कि आप से किसी तरह बात हो,
पर ऐसा संभव ही नहीं हो पाया,
तो सोचा क्यों न ब्लॉग के जरिए ही इस आंकाक्षा-महत्वकांक्षा को,
परवान चढ़ाया जाए,
तुम्हे दोस्त कहूं या अपना प्रिय एंकर कहूं,
या कस्बे का ब्लॉगर कहूं,
टविटर पर आप को पढ़ते हुए,
बहुत बार चलते-रहिए सुना तो,
यह वाक्य अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण एंव अवधारणात्मक लगा,
तो सोचा क्यों न ,
इसी नाम से ब्लॉग ही बनाया जाएं,
ब्लॉग बनाया तो सोचा कि पहली पोस्ट आप को ही लिखी जाएं,
पर किन्हीं कारणों से नहीं लिख पाया,
कई बार हम बहुत कुछ सोचते ही रह जाते है,
कर नहीं पाते,
शायद यह भी चलते रहने का ही परिणाम हो,
खैर,मेरी बातें उपरी तौर पर फोलोवर जैसा आभास भले ही देती हो,
पर वह मैं किसी का नहीं हूं,न हो सकता हूं,
वैसे भी चलता हुआ इंसान किसी के हाथ का मोहताज नहीं हुआ करता,
बहरहाल,
दोस्त तुम को पढ़ते हुए,सुनते हुए,
काफी कुछ समझने और अभिव्यक्त करने में मदद मिलती है,
जिसका मैं कायल-सा हो गया हूं,
पता नहीं कब से मैं एक सम्मोहन की स्थिति में पहुंच गया,
इसका आभास मेरी प्रेमिका ने कराया,
जब उसे लगा कि--
उसके जितना या उससे ज्यादा स्पेस,
मैं आपको देने लग गया हूं.
इसी कारण वह आपसे ईर्ष्या भी करने लगी है,
वरना वह भी तो प्राइम-टाइम तथा हम-लोग बड़े ही चाव से देखा करती थी,
अक्सर हम बात भी किया करते थे,
बातों ही बातों में उसे आपका असर मुझ पर दिखने लगा होगा,
इस मुग्धता से बाहर निकलने के लिए ही,
मै यह पोस्ट लिख रहा हूं,
इसे अपने पाठक-दर्शक की फीडबैक समझ कर स्वीकार करे.
आपका पाठक-दर्शक
नवीन




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