उठती हुई भावनाओं,
को दबा देती हो,अक्सर.
दोहराती रहती हो,
बार-बार उन शब्दों को,
कि
गलत है,गलत है,
गलत है,गलत है,
बदल देती हो,झूठ को,
सच में,सच को झूठ में.
मसलती रहती हो संवेदनाओं को,
इस कदर,
न करती है असर,
न करवा पाती है.
ओढ़ रखा है आंचल,
तुमने,
कठोरता का,
जबरदस्ती.
कहती हो जो अक्सर,
कि
उम्मीदें नहीं करती ज्यादा,
सपने भी नहीं पालती,
आदि-अनादि.
कहती हो,
मात्र
होता नहीं है वैसा.
पर हो गई हो पारंगत,
इतनी
व्यावहारिक बनने में,
कि खो दी क्षमता,
अहसास के दरिया में ,
डूबने-डूबोने की.
पहरा बैठा रखा है,
कोमल-चंचल बावनाओं,
पर
रखती हो उन्हे,
अनछुए,
अपने अंत:स्तल की,
गहराइयों में.
पहुंच गया मैं,
अनजाने ही,
उस स्थल पर,
जहां लगा रखा है तुमने,
'बैन'
तुम भी
रह न सकी सचेत,
अब,
डरती हो भविष्य से,
नहीं बनना चाहती तुम,
कारण
दु:खों के मेरे,
चाहती हो निपटना,
मगर
व्यावहारिकता से,
सहजता से नहीं.
कहा तुमने
मार दो इन,
सपनों को,
जो तैरते है हमारी आंखों में,
मत पालो इन्हें,
बच्चों की तरह,
कर दो इनकी
भ्रूण-हत्या.
बस यूं ही,
लिखते रहेंगे,
मिटाते रहेंगे,
नया लिखने के लिए,
जरूरी हो जाता है,
पुराने का मिटाना.
को दबा देती हो,अक्सर.
दोहराती रहती हो,
बार-बार उन शब्दों को,
कि
गलत है,गलत है,
गलत है,गलत है,
बदल देती हो,झूठ को,
सच में,सच को झूठ में.
मसलती रहती हो संवेदनाओं को,
इस कदर,
न करती है असर,
न करवा पाती है.
ओढ़ रखा है आंचल,
तुमने,
कठोरता का,
जबरदस्ती.
कहती हो जो अक्सर,
कि
उम्मीदें नहीं करती ज्यादा,
सपने भी नहीं पालती,
आदि-अनादि.
कहती हो,
मात्र
होता नहीं है वैसा.
पर हो गई हो पारंगत,
इतनी
व्यावहारिक बनने में,
कि खो दी क्षमता,
अहसास के दरिया में ,
डूबने-डूबोने की.
पहरा बैठा रखा है,
कोमल-चंचल बावनाओं,
पर
रखती हो उन्हे,
अनछुए,
अपने अंत:स्तल की,
गहराइयों में.
पहुंच गया मैं,
अनजाने ही,
उस स्थल पर,
जहां लगा रखा है तुमने,
'बैन'
तुम भी
रह न सकी सचेत,
अब,
डरती हो भविष्य से,
नहीं बनना चाहती तुम,
कारण
दु:खों के मेरे,
चाहती हो निपटना,
मगर
व्यावहारिकता से,
सहजता से नहीं.
कहा तुमने
मार दो इन,
सपनों को,
जो तैरते है हमारी आंखों में,
मत पालो इन्हें,
बच्चों की तरह,
कर दो इनकी
भ्रूण-हत्या.
बस यूं ही,
लिखते रहेंगे,
मिटाते रहेंगे,
नया लिखने के लिए,
जरूरी हो जाता है,
पुराने का मिटाना.
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