शनिवार, 17 अगस्त 2013

डर

तुम्हारे अंदर के विराने में,
घुमड़ती तितली,
छटपटा कर निकलना चाहती है,
बाहर.
टकराती है,
फिर टकराती है,
हारकर काटती है चक्कर,
फिर वहीं लौट आती है,
असफल.
तोड़ने में अपने रचे सांचे.
जब-तब,
पुलकित होता रोम-रोम,
बाहर की राह समझ बैठती है,
उसे,
वह.
कोहरा हट सकता है,
परदा भी उठ सकता है,
पर दीवार नहीं टूट सकती,
उसे तोड़ना ही पड़ेगा,
आखिर गिरानी पड़ेगी,
नहीं तो वह नहीं मिटती.
स्नेह निरंतर चुलबुलाहट में,
बातचीत में,
हंसी-मजाक में,
अपने को छिपाए रखे,
यही उसे ठीक लगता है,
जो हर समय गुदगुदाता है,
चुटकियां काटता चलता है.(15 जून 2007) 

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