शनिवार, 17 अगस्त 2013

तुम ही बताओ !

"आदमी गलतियों का पुतला है "
बचपन में ही न जाने कब,
किसने,मुझे यह फिकरा सौंप दिया,
जब से लेकर अब तक,
आदमी बनने के चक्कर में ,
गलतियां ही करता रहता हूं.
क्या यह सफाई हजम होने वाली है,
नहीं,ना,
फिर भी,
मैं तुम्हे दे रहा हूं,
पता नहीं क्यों ?
पर यह भी तो देखो,
कि गलती तो करता जरूर हूं,
पर उन्हें रिपिट नहीं करता,
 पर हां,बार-बार,
गलती करता ही रहता हूं.
तुम ही बताओ !
गणित तो तुमने भी पढ़ा होगा,
+ ठीक काम = -गलत काम,
+     काम            = -काम,
बचा कौन ?
केवल मैं.
फिर भी तुम ऐसा करती हो,
अरे ! मैं तो भूल ही गया कि,
तुम गणितज्ञय थोड़े ही हो,
साहित्य की विद्यार्थी हो,
चलो तुम्हारे क्षेत्र में ही समझने का,
प्रयास करते है.
अब तुम कहोगी कि-
ये चालाकियां नहीं चलेगी,
मुझे कुछ नहीं सुनना है,
यहीं से सारा समीकरण ही,
बिगड़ जाता है.
अंतिम फार्मूले को पहले ही इस्तेमाल,
करने से सवाल का हल नहीं निकलता,
बल्कि उलझ जाता है,
फिर गतिज्ञय की तरह समझाने लगा,
बिना जोड़-घटा के,
जीवन चलता ही नहीं,
पता चले,
घाटा ही घाटा हो रहा है.
तुम ही बताओ !
क्या यह बनियागिरी नहीं है,
क्या यह छलावा नहीं है,
तुम सब जानती हो.
ऐसा थोड़े ही है,
कुछ,ऐसा भी तो होगा,
जो तुम नहीं जानती हो,
वही तो असली या मार्के की चीज है,
अब तुम कहोगी कि मैं अब सब कुछ जान गई हूं,
जो पहले पता नहीं था,
बस  यही एक गलती तुम भी तो करती हो,
कि सब कुछ जान गई हो.
सब कुछ जानने का मतलब है,
अब कुछ जानने को कुछ बचा ही नहीं,
जबकि यह ,
असंभव है,
तुम असंभव को,
संभव बना रही हो,
है न अजीब बात(क्या बात है),
लाजवाब,
गजब ढा दिया.
तुम ही बताओ !
क्योंकि तुम ही बता सकती हो,
बस,
क्योंकि तुम ही समझा ,
सकती हो.
केवल.

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