शनिवार, 28 सितंबर 2013

गाइडों के गाइड


  • हरियाणा के कॅालिजों में बच्चे के हाथों में किताबों की जगह गाइडें थमा दी जाती है और अध्यापक गाइडों के जरिये देवआनंद नुमा गाइड तैयार करने का महत कार्य मात्र 35000 से लेकर 100000 रुपये तक की अदनी -सी राशि लेकर करते हैं और भविष्य की नींव रखने में अपनी भूमिका और योगदान के कारण छाती और पेट को कई इंच फुला कर चलते है.गाइडी -बच्चे भले ही समाज के भेदभाव को दूर न कर सके, पर किताब और गाइड के फर्क को सफा करके देश को नई दिशा जरुर दे रहे हैं.यह दिशा क्या "दसा" करेगी ? इसकी चिंता प्रेफसर(प्रोफेसर का अपभ्रंश) भला क्यों करें ? दरअसल मुख्य चिंता यह है कि गाइड और किताब का फर्क इन प्रोफेसरों को भी नहीं हैं.प्रोफेसर का काम इनकी नजर में बस 'लैक्चर' दे कर निकल जाना है,कौन क्या समझ पाया या समझने की कोशिश करता है या नहीं.इससे इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.न ही इस बात से फर्क पड़ता है कि कल कौन से बच्चे थे और आज कौन से बच्चे 'क्लास'में आए हैं.बस अपना कर्म करते चले जाओ,फल की चिंता किए बगैर. गीता के इस पाठ को बेहतर तरीके से जीवन में उतार लिया है.दरअसल नौकरी मिलते ही पढ़ने-लिखने से ये खुद को अलग कर लेते है,यह समस्या भी इन की जड़ों में पैठ कर गई होती है.जिसका परिणाम बच्चे भुगतते है.उन बच्चों की 'कंडीसनिंग' तो स्कूल के स्तर पर ही हो जाती है.रही सही कसर यहां पर आकर पूरी हो जाती है.रट्टे मारने की जो परंपरा वहां से शुरु होती है,वह यहां आकर अपने चरम पर पहुंच जाती है.अगर बच्चों की कॉपी एक जगह रख कर तुलना करे तो पाएंगे की लगभग सभी की कॉपी फोटो स्टेट लगेगी.अंतर केवल 'राइटिंग' का मिलेगा.बच्चों में विवेक विकसित करने के बजाय हम उन्हें भेड़चाल में चलने का अभ्यस्त करने के अलावा कुछ ओर नहीं कर रहे होते है.भेड़चाल बिना विवेक के हिंसात्मक कार्र्यवाही में बदलते देर नहीं लगती.उस पर इनकी चिंता यह कि बच्चे बिगड़ गए है.घर वालों का 'कंट्रोल' बच्चों पर नहीं रहा है.शिक्षक की भूमिका क्या होती है ? और क्या होनी चाहिए ? िइस पर इन्होंने कभी गंभीरता से विचार भी नहीं किया होगा.
  • सवाल यह बिल्कुल नहीं है,क्योंकि यह सवाल किसी परीक्षा में नहीं आने वाला और न ही इसका जवाब किसी गाइड में मिलेगा. क्योंकि यह आउट ऑफ .सलेबस है . बच्चों को अगर हटकर पढाओ तो कहते है कि सर !  ये किसी किताब(गाइड) में नहीं मिला.पता नहीं आप कहां से पढाते है .हमें तो 'निसान' लगवा दीजिए बस.बाकी हम खुद ही कर लेंगे.गाइडों के प्रकाशक भी हर साल अपने बिचौलिए को भेज देते है और वे ढेर सारी गाइडे हर विभाग को गिफ्ट नुमा रिश्वत दे जाते है.फिर उनकी बंदर बांट कर ली जाती है और कुछ गाइडे छोटे 'करमचारियों' को और कुछ गरीब बच्चों को दरियादिली स्वरुप दे कर दानवीर कर्ण की परंपरा में शामिल होने के साथ-साथ द्रोणाचार्य पुरस्कार की दौड में अपना जुगाड लगाने लग जाते हैं.इस गाइडी-संस्कृति के परोधा धन्य है.मैं उन सभी को नमन करता हूं और मुझे परमात्मा सत्-बुद्धि दे इसकी कामना (का-मना) करते हुए अपने को इस सत्त-कर्म में बडा ही असहाय महसूस करता हूं.




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