हर फिल्म को देखने का अपना-अपना नजरिया होता है.उस नजरिये में हमारी परिस्थितियां और उन प्रक्रियाओं से निर्मित हमारी सोच फिल्म को कई आयाम देती है. " ANTARDWAND" फिल्म का हीरो(नायक नहीं) एक कमजोर व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है.भले ही फिल्म समाज की कई समस्याओं को रेखांकित करती है.फिल्म दरअसल स्त्री के अस्तित्व को लेकर कई आयाम खोलती है.स्त्रीवादी नजरिए से यह फिल्म घोर पुरुषवादी समाज में स्त्री की स्थिति को उजागर करती है.स्त्री को अपने जीवन से जुड़े किसी भी निर्णय में खुद निर्णय लेने तक का अधिकार हमारा समाज आज 21वीं सदी में भी नहीं दे सका है.
बहरहाल हीरो के लिजलिजे व्यक्तित्व के निर्माण में हीरो का थोथा ज्ञान जिम्मेदार अधिक लगता है.वरना हमारा पढ़ना-लिखना यदि हमें हमारे निर्णयों के प्रति जिम्मेदार और विद्रोही नहीं बनाता,तो सारी पढ़ाई-लिखाई बेकार ही समझिए.हीरो किसी भी एंगिल से आत्म-मंथन करता हुआ और आत्मविश्लेषण करता हुआ नजर नहीं आता.उसका प्रेम भी प्रेम जैसा तीव्र-ताप वाला नहीं लगता.प्रेम का तो दूसरा नाम ही विद्रोह कहा जा सकता है.यदि ऐसे व्यक्तित्व का आदमी प्रशासक बनता तो वह इस व्यवस्था का अंग बन कर ही रह जाता.वह कभी भी व्यवस्थाओं से टकराने की हिम्मत नहीं जुटा पाता.जो व्यक्ति अपने प्रेम को लेकर घर विद्रोह नहीं कर पाता तथा अपनी प्रेमिका के किसी ओर से विवाह करने के निर्णय के बाद अपनी जबरदस्ती की पत्नी से दोबारा मिलने तक की नहीं सोचता.जिससे वह देह संबंध तक बना चुका होता है.जब भी इस तरह के व्यक्तित्व देखता-पढ़ता हूं,हर बार यहीं लगता है कि किस तरह की शिक्षा हम समाज को दे रहे है,जिसमें कायदे से अपनी बात रखने तक की हिम्मत नहीं होती.ऐसे समाज को आप परिस्थितियों के बलबूते बदल देना चाहते है,जो कि अतिवादी विचार का अंग अधिक लगता है.बजाय व्यक्ति और समाज के परस्पर संवादों और संघर्षों से निर्मित आलोचनात्मक समाज के यह एक पंगु व्यक्तित्व और कमजोर समाज का निर्माण करने में अहम भूमिका का निर्वाह अधिक लगता है.ऐसा व्यक्ति आई.ए.एस बन भी जाता तो क्या ही उखाड़ लेता.इस तरह व्यक्ति किसी भी व्यवस्था को भोगने में ही अपनी भूमिका की इति श्री मान लेते है.
दरअसल कुर्सी पर बंधा व्यक्ति समाज.परिवार,परंपराओं के नाम पर जकड़ दिए गए,उस व्यक्ति का प्रतीक अधिक लगता है जिसे शिक्षा भी मुक्ति नहीं दिला सकी.उसके चेहरे पर सजा ताज, या मुकुट हमारे समाज चमक-दमक को दर्शाता है,जो बार-बार अपनी पीठ थपथपाने से बाज नहीं आता.मान-मर्यादाओं के नाम पर इतने कमजोर व्यक्ति न तो किसी समाज के हीरो हो सकते है और डबलीनुमा आईएएस ही बनते है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें