मदन हॉल जो अब केवल स्मृतियों में ही बचा हुआ है.कुछ खट्टी-मिट्ठी और कड़वी यादों के साथ.कुछ चीजें , घटनाएं,पल,जगहें,स्थान या इमारतें हमारे मन में यूं चस्पा हो जाती है कि गाहे-बेगाहे वो हमारे मन को कुरेदती रहती है.यह कुरेदना उन ऐतिहासिक पलों में जिए जीवन को समझने-विश्लेषण करने के साथ-साथ एक सुखानुभूति का भी अहसास कराता है.भले ही आज के दौर में सिनेमा हॉल में जाना या मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखा जाना अपने आप में अनोखी या रोमांचित कर देनी वाली घटना भले ही न लगती हो.पर मुझे आज भी याद है जब मैं वैश्य स्कूल में था,तब हमने गाँधी फिल्म देखी थी.आज भी गाँधी के प्रति जो भाव है,उनमें उस फिल्म का क्या-कितना योगदान है,इसका कोई पैरामीटर नहीं है.बल्कि उस फिल्म की स्मृतियां भी कहीं खो गई है.याद करने पर भी फिल्म का कोई सीन या लड़कों की कोई प्रतिक्रिया तक याद नहीं है.हाँ,यह जरूर याद है कि जय संतोषी माँ-फिल्म मैंने अपने परिवार के साथ देखी थी,शायद जिसमें घर की स्त्रियां भी शामिल हो.एक बंद बड़े हॉल के बीच अंधेरे में इतने लोगों के बीच होने न होने का अहसास ही रोमांचित कर देने वाला था.
आज जब मैं सिनेमा के अध्ययन से जुड़ा हुआ हूं.तो कई बार सोचता हूं कि बचपन से लेकर आज तक के जीवन में कई सूत्र बिखरे हुए जान पड़ते है,तो कई सूत्रों को जुड़ते हुए जब देखता हूं तो बहुत अजरज होता है.क्योंकि किसी प्रकार की नियति या भाग्यवादी नजरिए से सोचना संभव ही नहीं जान पड़ता है.हाँ,भूतकाल या अतीत की कुछ डोर हमें वर्तमान और भविष्य तक बांधें रखती है.उन्हीं डोरों में से एक यह भी लगती है.पापा का कभी भी फिल्म देखने से मना नहीं करना,उल्टे फिल्म देखने के लिए पैसे तक देना.जब कि मैं ने उन पैसों से बहुत कम ही फिल्में देखी.एक खास तरह की मानसिकता बन गई थी उन दिनों पापा के खिलाफ जाने की.कारण उनका शराब पी कर घर करने वाला क्लेस ही था.अन्यथा बिना पीए तो लगता था कि उन जैसा साधारण इंसान कोई होगा ही नहीं.पिते ही उन जितना बड़ा शैतान नजर नहीं आता था.उन की मुझ पर की जाने वाली हर टिका-टिप्पणी मुझे अंदर ही अंदर से खाती रहती थी.मैं बहुत अधिक अपने आप में ही खोया-खोया रहने लगा.माँ के अधिक नजदीक होने के कारण घर के कामों में ही मुझे आनंद भी आने लगा.स्त्रियोचित गुण मुझ में साफ झलकने लगे.उन्हें देखकर पापा ने,खासकर मेरी चाल को लेकर मुझे जनानियां कहना शुरू कर दिया.बहुत तकलीफ देह स्थिति होती थी.पर किस से अपने मन के दुःख कहता.बहरहाल मामला आत्मकथ्य की और अधिक बढ़ने लग गया है.इसलिए इस विषय पर फिर कभी विस्तार से लिखूंगा.फिल्म के प्रति उपेक्षा का बड़ा कारण पापा के प्रति एक तरह की प्रतिक्रिया ही थी.
आज सिनेमा या फिल्मों में ही अधिक रूचि होने का कोई ठोस कारण नजर नहीं आता.शोध करने का कारण तो फिर नजर आता है कि कुरुक्षत्र विश्वविद्यालय में जो सपाट और घिसेपिटे शोध कार्यों का कचरा देखा,तो मन ख्याल आया कि हिन्दी साहित्य से हट कर ही काम किया जाएं,अन्यथा मेरा काम भी इस तरह धूल फांकता फिरेगा.कम से कम मुझे तो संतुष्टि मिलेगी ही.हो सकता है इस तरह के कार्यों की तरफ भी रूझान बढ़ने लगे.इस विषय पर काम करने पर गाइड और विभाग द्वारा जबरदस्ती बौद्धिकता थोपने का जो करम वो सब करते है,उस से भी बचा रह पाऊंगा.तो सिनेमा पर शोध करने के अनेक कारण रहे है.पर इन कारणों के अलावा सिनेमा के प्रति बढ़ते रूझान और लगाव का ठीक-ठीक मूल्याकंन कर पाना मुश्किल है.
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