यह दीवार कभी दीवार नहीं लगी.इस दीवार के उस पार जाते ही मानो दुनिया ही बदल जाती थी.वह दुनिया जिसे जादुई दुनिया भी कहा जाता है.लगता है एक दीवार ही होती है हमारी यर्थाथ दुनिया और जादुई दुनिया के बीच.बस उसे लांघने भर की देरी होती है और तमाम चीजें उतनी बुरी नहीं रहती,जितनी असल में वो दिखती है.आज भी मैं और मेरा मन, जब भी इधर से गुजरता है, मन इस दीवार को लांघ जाता है.पर खाली हाथ वापिस लौट जाता है.क्योंकि अब इस दीवार के उस पार मदन हॉल नहीं रहा,बेरहम बाजार की मार में वह भी मिट गया और बस गए उस तरफ भी विकास पुरुष के प्रतीक उंचे भवन.मन बहुत कचोटता है, जब भी उधर से गुजरना होता है.शरीर तो कई बार सभी यादों को अनदेखा कर के गुजर जाता है,पर मन है कि मानता ही नहीं.यह दास्तां है मदन हॉल की.जो अब केवल स्मृतियों में ही बचा है.उसकी कोई तस्वीर इतनी कोशिशों के बावजूद मिल नहीं सकी.लोगों से जब भी इस बारे में बात की.उन्हें लगा सिरफिरा है क्या.क्या करेगा.होगी भी तो क्या हो जाएगा.उन्हे क्या पता खत्म होती संस्कृति की तडप.खैर बड़ी मुश्किलों से इस थियेटर के मालिक से बात हो पाई.तस्वीर या कोई भी उससे जुड़ा कागजात,पुरानी टिकट या ऐतिहासिक दस्तावेज मिल नहीं सका.उन से हुई बातचीत में ही इस थियेटर से संबंधित कुछ जानकारियां जुटा पाया.जयभगवान गुप्ता जी के अनुसार--" मदन थियेटर की स्थापना 5 जून 1970 को हुई थी.
जब कभी भी इस हॉल में फिल्म देखने जाना हुआ.हर बार इसकी दीवार फांद कर ही जाना हुआ.दो कारण है इसके.एक तो यह रस्ता घर से नजदीक पड़ता था,दूसरा पड़ोसी-जानकारों के बे-फालतू के उपदेशों से बचने का भी यह शॉर्ट कट था.लकड़ी के बैंचों नुमा कुर्सियों पर बैठ कर न जाने कितनी,जितनी भी देखी.टिकट कभी बाहर से ले लेते तो कभी कभार टिकट चैकर को पैसे देकर ले लेते.बैटरी ले कर चैकर सारे हॉल में बिना टिकट वालों को ढूंढते रहते थे.इंटरवल के समय समोसे और पकोड़े बेचने वालों की कर्कस ध्वनि गुस्सा भी दिला देती थी.कभी-कभी इंटरवल के समय लंबी कतार में खड़े हो सामूहिक मूत्र करने का संकोंच भाव से अहसास बेचैन कर देता था.कहने को दो बालकनी भी थी.अकसर लोग उनमें मूतने का ही काम किया करते थे.अडल्ट फिल्में लगने के बाद तो मैं कल्पना कर सकता हूं कि उन को सदुपयोग किस तरह हुआ होगा.हर बार हीरो के अच्छे सीनों पर सीटियों की ,गालियों की ध्वनि कभी सुखद अहसास नहीं दे सकी.मैं ने कभी सीटी या गाली दे कर फिल्म का आनंद नहीं उठाया.
कलकत्ता से मदन थियेटर कंपनी की ब्रांच ली गई थी.उनके पिता जी मदन सेन गुप्ता जी ने इस थियेटर की नींव रखी थी.आज इस की एक भी फोटो उपलब्ध नहीं है.इस पर पहली फिल्म अराधना लगाई गई थी.यह थियेटर बंद 31 मार्च 2003 को किया गया.बंद होने से पहले इस पर कोई अश्लील फिल्म लगी थी.अंतिम दौर में फिल्म देखने वालों की संख्या घट गई थी.अश्लील फिल्म देखने वालों की तादाद बढ़ने लगी थी,पर उन फिल्मों के भरोसे थियेटर चल नहीं सका.टैक्स भी करीब 125 % भरना पड़ता था." जब मैं ने उनसे पूछा कि कि याद तो बहुत आती होगी.भावुकता से लबालब भरी उनकी आंखें मानो छलक जाएंगी.उन अध-छलकी आँखों से उन्होंने कहा कि-पूछो मत.इस अधूरे वाक्य और मर्म से संपूर्ण वाक्य ने उनके दर्द को बयान करने में जरा भी देर नहीं लगाई.धीरे-धीरे इस तरह के सभी सिनेमा हॉल या तो बंद हो रहे है या पार्किंग में तबदील होते जा रहे है.सरकारें तो पहले से ही निष्क्रिय भूमिका में रही है.रही सही कसर मल्टीप्लैक्सों ने कर दी.आज समालखा जैसे अध-कस्बे में एक भी सिनेमा हॉल नहीं है और ऐसा लगता है कि किसी को कोई कसक भी नहीं.होगी तो मन ही मन होगी. जयभगवान गुप्ता जी ने बहुत ही प्यार और भावुकता भरे लहजे में बात की और उनसे दोबारा मिलने के लिए कहा तो बोले, हाँ कभी भी.,आज भले ही वो सैनेटरी की दुकान खोल कर बैठे अपने बेटे के साथ इस दुकान पर हो,उनकी स्मृतियों में आज भी मदन हॉल यूं ही है.खट्टी-मिट्टी यादों के साथ-साथ कुछ कड़वी यादों को लिए.वो यादे जो हमेशा इनके साथ रहेंगी.

(जारी है...)
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