मदन सिनेमा हॉल पर काफी दिनों से जानकारी इकट्ठा करने का विचार बार-बार आता था.पर किसी न किसी कारण टलता ही रहता था.पहली बार अपने जन्मदिन(21 अगस्त 2013) पर ठोस रूप से इस पर करने की रणनीति बनाई.पर वह कामयाब नहीं हो पाई.कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या और कैसे शुरू किया जाए.अंधेरे में हाथ-पैर मारने जैसा लग रहा था.इस हॉल के मालिक के बेटे से जब पहली बार बात की,तो उनकी हल्की और निष्क्रिय प्रतिक्रिया ने मनोबल बिल्कुल गिरा दिया.पर इस तरह के मनोबलों के गिरने की कहानी बचपन से ही साथ-साथ हमसफर की तरह चलती आई थी,तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ा.एक सूत्र हाथ लगने पर काम करने की स्पीड और उस स्पीड में यादों की तलहटी में तैरती सिनेमा हॉल की यादें अपने आप सतह पर आने लगी.सतह पर आई इन यादों में से एक याद अपनी मां,बुआ और पापा के साथ देखी फिल्म-जय संतोषी माँ,की आई.हालांकि फिल्म रीलिज 1975 में हुई थी,पर देखी 90 के दशक में गई थी.
बुआ कहने लगी एकदम से कैसे ये सारी बातें तुझे याद आ गई.बुआ उस समय क्या लड़कियों और औरतों को फिल्में देखने जाने देते थे.वो भी हरियाणा जैसे समाज के एक गांव के पुरुष.कभी -कभी साथ ले जाते थे,पर सब के घर वाले नहीं देखने देते थे फिल्म.मैंने भी जय संतोषी मां,शोले,याराना और दो-तीन हरियाणवी फिल्में ही देखी थी और तुम्हारी बड़ी बुआ के साथ दिल्ली में राम तेरी गंगा मैली भी देखी थी.हरियाणवी फिल्म को तो वो लोग भी देखने गए जो फिल्म देखने से मना करते थे.उनके घर की लड़कियां और औरतें भी फिल्म देखने गई.
फिल्म पर बात करते-करते बुआ भावुक हो गई.मानो बुआ अपने जीवन उन हसीन पलों में फिर से तैरने लग गई हो.अपने उन अनुभवों को इतनी संजीदगी से बताने लगी जैसे जमा पूंजी को पोटली से निकाल कर एक-एक नोट और सिक्कों को अपने हाथ से खंगाल कर फिर से संजो कर रख लेना चाहती हो.
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