मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013

स्त्री की अस्मिता और राजनीति (संदर्भ-मैत्रेयी पुष्पा की ‘फैसला’ कहानी)

         
21वीं सदी के दूसरे दशक में कदम रखने बावजूद स्त्री की दशा में ज्यादा फर्क(बेहतर) महसूस नहीं किया जा सकता.दिसंबर 2012 में दिल्ली में निर्भया बलात्कार का जघन्य काण्ड होया सन 2013 के सितंबर महीने में ही आसाराम बापूपर नाबालिक लड़की के साथ अमानवीय कर्म अर्थात बलात्कार का आरोप हो या इसी महीने में मुजफ्फरनगर में लड़की के साथ हुई छेड़छाड़ का धार्मिक-उन्माद में बदल जाना हो.ये सभी घटनाएं हमें नए सिरे से स्त्री के प्रति होने वाली घटनाओं के प्रति सोचने-समझने पर मजबूर करती है.तीनों घटनाओं के केन्द्र में लड़कियां ही है,जबकि इन तीनों घटनाओं को अलग-अलग संदर्भों में व्याख्यायित किया गया है.दिल्ली की घटना में फांसी की सजा को समाधान के रूप में प्रस्तुत करना तथा आसाराम को धर्म के झंड़ेबरदार के रूप में रेखांकित करना एंव मुजफ्फरनगर की घटना को सामंप्रदायिकता के रंग में रंग देने की रणनीति,हमें खबरदार करती है कि स्त्री-अस्मिता से जुड़ा मुद्दा किस तरह अलग-अलग रूपों में बदल दिया गया.स्त्री को महज अपनी राजनीति और आन-बान-शान से जोड़कर उसके मौलिक-अधिकारों की अनदेखी करने का षडयंत्र इन सभी घटनाओं में साफ झलकता है.स्त्री को मनुष्य के रूप देखने के बजाय उसे अपनी रणनीति के तहत महज वस्तु के रूप देखने का नजरिया उभर कर सामने आता है.इन सभी संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में ही स्त्री-अस्मिता के सवाल को बेहतर ढंग से समझा एंव विश्लेषित किया जा सकता है.
उत्तर-आधुनिक परिदृश्य में जहां अस्मिता का प्रश्न अहम सवालों में से एक है,वहीं स्त्री-अस्मिता का प्रश्न एक महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभर कर सामने आता है.जिसे किसी भी कीमत पर अनदेखा नहीं किया जा सकता,क्योंकि यह आधी आबादी के अधिकारों का सवाल भी है.इन अधिकारों की शुरूआत समानता के बिना संभव नहीं है.इसलिए स्त्री की अस्मिता की चर्चा करना अर्थात् स्त्री के उन सभी अधिकारों की मांग जो उसे मनुष्य की अवधारणा के रूप में परिभाषित होने से वंचित रखते हैं.इसी स्त्री अस्मिता से आरंभ होकर स्त्री-आंदोलनों के माध्यम स्त्री के विभिन्न-पक्षों को अनेक माध्यमों के जरिए पुरजोर ढंग से उठाया जा रहा है.इस संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में ही स्त्री-विमर्श को भी समझा जा सकता है. स्त्री-विमर्श की तह में ही सबसे प्रमुख प्रश्न है...स्त्री को मनुष्य के रूप में स्वीकारा जाना. जबकि समाज में उसे दोयम दर्जे की प्राप्ति और साथ ही समाज की रूढ़ परंपराएँ जिन्होंने स्त्री को स्त्री के रूप में परिभाषित किया है.सीमोन द बॉउवर के शब्दों में कहे तो—स्त्री पैदा नहीं होती स्त्री बना दी जाती है,अर्थात इससे सवाल उठता है उस जेंडर और सेक्स का जिसमें सेक्स जैविक संरचना है,तो जेंडर सामाजिक कन्स्ट्रक्टर अर्थात् औरत की मौजूदा अधीनता,अपरिवर्तनीय जैविक असमानताओं से नहीं पैदा होती बल्कि यह ऐसे सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों और विचारधाराओं की देन है जो महिलाओं की वैचारिक और भौतिक अधीनता को सुनिश्चित करती है.इसलिए नारीवादी विचारक लिंग-भेद आधारित काम,यानी लिंग के आधार पर श्रम विभाजन और उसमें भी ज्यादा आधारभूत स्तर पर यौनिकता और प्रजनन के प्रश्न को एक ऐसे विशेष के रूप में देखती है जिसे जैविक संरचना जो प्राकृतिक और अपरिवर्तनीय मानी जाती है के दायरे से बाहर रखकर देखना चाहिए.”1
 आधुनिक काल के  आरंभिक साहित्य में स्त्री की पहचान दिखाई देने लगी थी किंतु स्त्री की अस्मिता का केंद्र में आना बाकी था.अलग-अलग अस्मिताओं के सवाल परवर्ती पूंजीवाद की देन है.इन्हीं संदर्भों में धीरे-धीरे स्त्री का सार्वजनिक और राजनीतिक परिवेश बनना शुरू हुआ.स्त्री जीवन के अनछुए पहलुओं पर विचार-विमर्श होने लगा.स्त्री जीवन के संदर्भ और संबंधों को साहित्य नये सिरे से परिभाषित करने लगा.स्त्री-विमर्श ने समाज के तमाम वर्चस्ववादी नजरियों को चुनौती देना शुरू किया तथा उन स्थितियों पर भी प्रहार किया जो स्त्री को अस्तित्वहीन,अस्मिताहीन बनाते है.इससे एक नई परिवर्तनकारी सोच सामने आने लगी है. जिसने स्त्री की स्थिति एंव अवस्थिति को पहचानने एंव नई पहचान बनाने की प्ररेणा शक्ति प्रदान की है.इसी ने आधी दुनिया के अस्तित्व,उसकी अस्मिता,भविष्य एंव उसके सरोकार से जुड़े प्रश्नों को साहित्यिक स्तर पर भी पुरजोर ढंग से अभिव्यक्त करना शुरु किया.
स्त्रीवादी लेखिकाएं स्त्री-अस्मिता को एक नहीं कई रूपों में देखती है.किसी के यहां लिंग,किसी के यहां शरीर,किसी के यहां मन तो किसी के यहां स्त्री की अनुभूति प्रमुख है.स्त्री अस्मिता के स्वरूप को सुधा सिंह ने इस तरह परिभाषित किया है-स्त्री अस्मिता का प्रमुख आधार है,स्त्री को पुरूष संदर्भ से बाहर लाना और स्त्री संदर्भ में रख कर देखना.पितृसत्तामक विचारधारा का विरोध करना.उन तमाम तर्कों का निषेध अथवा अस्वीकार जो स्त्री को उसकी स्वतंत्र पहचान से वंचित करते है अथवा मातहत बनाते हैं.स्त्री और पुरूष दो अस्मिताएं है.2 दरअसल स्त्री अस्मिता का सवाल केवल व्यक्तिक अस्मिता का सवाल नहीं है,बल्कि व्यक्तिक अस्मिता के सामाजिक अस्मिता में रूपातंरण की प्रक्रिया है. जो सदियों से स्त्री के अनेक स्वरुप स्वयं गढ़ एंव निर्मित कर रहा है. स्त्री का स्वरूप  गढ़ने में कई आधारो ने मुख्य भूमिका निभाई है.जिस वजह से स्त्री की अनेक पहचान समाज में निर्मित हुईं,पर मनुष्य के रूप में उसे कभी नहीं पहचाना गया.इन्हीं तमाम बिंदुओं को स्त्रीवादी लेखिकाओं ने अपने –अपने ढंग से साहित्य में चित्रित किया है.
मैत्रेयी पुष्पा की फैसलानामक कहानी स्त्री अस्मिता और वर्तमान  राजनीति की परतों को खोलकर रख देती है.वसुमति गांव में प्रधान चुनी जाती है तो अपने ब्लॉक प्रमुख पति का रबड़ स्टांप है.पति उस पर दबाव डालकर उल्टे सीधे फैसले करवाता है.वसुमति भीतर ही भीतर आहत होती रहती है.पुरुष वर्चस्व के आत्मसातीकरण से उत्पन्न संकोच से भीतर ही भीतर ही लड़ती है.”3 इस कहानी में समाज में मौजूद स्त्री और पुरुष संबंधों के बीच की खाई को भी उजागर किया है तथा समाज की भूमिका को भी उभारा है..समाज केवल व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं होता,बल्कि वह व्यक्ति के अस्तित्व की ऐसी शर्त बन जाता है जिससे पृथक व्यक्ति की कल्पना संभव नहीं है.व्यक्ति,परिवार और समाज के आपसी ताने-बाने को विश्लेषित और व्याख्यायित करने का कर्य साहित्यकारों ने मुख्य रुप से किया है. .परिवार समाज को व्यक्ति से जोड़ता है.परिवार में ही व्यक्ति के विभिन्न सामाजिक संबंधों की नींव है-- स्त्री और पुरुष.किसी समाज में स्त्री का स्थान क्या है,इससे उस समाज की स्थिति पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है.फैसला नामक कहानी में भी वसुमति की स्थिति उसके पति की तुलना में दोयम दर्जे की है तथा उसको मिलने वाले वोटों का कारण उसका स्त्री होना ही है.जो कि स्त्रियों का अपने स्व के प्रति सचेत होने तथा उसी के माध्यम से अपने सारे दुःख-दर्द दूर करने के सपने भी साथ में संजोए हुए है.इसी कारण वासुमति को इतने अधिक विरोध व पार्टीबाजी के बाद भी जीत हासिल हुई.वासुमति अपनी जीत का विश्लेषण करते हुए कहती है कि--
"कैसे मिल गए इतने वोट  ?
गांव में पार्टीबंदी थी,विरोध था,फिर...?
बाद में कारण समझ में आ गया था,जब मैंने सारी औरतों को एक ही भाव से आह्लादित देखा.उमंगों-तरंगों का भीतरी आलोड़न चेहरों पर छलक रहा था."4
वासुमति की जीत में गांव की सभी स्त्रियों को अपनी जीत या अपने अधिकारों के प्रति लड़ने की एक उम्मीद दिखाई दे रही थी.पर वासुमति को जीत में अपनी हार के पहलु भी नजर आ रहे थे.किस तरह सका पति पहले की तुलना में उस पर अधिक बंदिशे रखने लगा और उसकी जीत को अपनी प्रतिष्ठा के साथ जोड़ कर देखने लगा.पितृसत्ता की यह खासियत होती है कि वह स्त्री को अपनी आन-बान-शान से जोड़कर औरत पर बंदिशे बढ़ाता चलता है और खुद की हैसीयत को बढ़ाता चलता है--
 " वे प्रमुख बने तो बंदिशों में कुछ और कसावट आ गई और जब मैं स्वयं प्रधान बन गई तो उनकी प्रतिष्ठा कई-कई गुना ऊंचे चढ़ गई."5
वासुमति के पति प्रमुख बने तो उन्होंने उस पहले की तुलना में बंदिशों को ओर अधिक बढ़ा दिया.स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को लेकर सचेत मैत्रेयी ने वासुमति के माध्यम से स्त्री की स्थिति को रेखांकित किया है,कि किस तरह स्त्री पर बंदिशे और शान-शौकत के घटने-बढ़ने से जोड़ कर देखने की पुरुषवादी सोच स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकती.परंतु समाज में स्त्रियां धीरे-धीरे ही सही पर अपने अस्तित्व के प्रति सचेत भी हो रही है तथा उसके खिलाफ आवाज बी बुलंद कर रही है.अब चुपचाप सहने की की रिवायत में काफी बदलाव नजर आने लग गया है.इसी कहानी की पात्र ईसुरिया अपनी सोच को उजागर करती हुई कहती है--
ईसुरिया- "बरोबरी का जमाना आ गया.अब ठठरी बंधे मरद माराकुटी करें,गारी-गरौज दें,मायके न भेजे,पीहर से रुपइया पइसा मंगवावें,क्या कहते है कि दायजे के पीछे संतावें,तो बैन सूधी चली जाना बसुमती के ढिंग."6
ईसुरिया कहानी में दलित पात्र है.रमणिका गुप्ता कहती है कि- स्त्री मुक्ति की अवधारणा सापेक्षक है.ऐसे तो मुक्ति की अवधारणा भी बदलती रहती है लेकिन एक गरीब खटने-कमाने वाली औरत की मुक्ति उसकी देह-मुक्ति के साथ-साथ जो पुरुष हिंसा का शिकार बनती है-उसकी भूख से मुक्ति भी है,जिसके लिए रोजगार की जरूरत होती है.एक दलित मजदूर औरत के लिए तिहरी मुक्ति चाहिए-श्त्रीपन,गरीबी,और जाति की मुक्ति.इसी गरीबी रेखा के नीचे वाले वर्ग की स्त्री और निम्न मध्यम वर्ग,अभिजात व उच्च मध्यम वर्ग की स्त्री के लिए देह का अर्थ भिन्न होता है.”7
दरअसल स्त्री-मुक्ति का संघर्ष कई स्तरों पर एक साथ लड़ा जा रहा हैं.एक और वह राजनैतिक-आर्थिक दासता के विरूद्ध लड़ते हुए संपूर्ण समाज के सदस्य की हैसियत से संघर्ष में अपना योगदान था तो दूसरी ओर समाज के भीतर अपनी दीन-हीन दशा के विरूद्ध संघर्ष है.वासुमति की राजनैतिक भागीदारी महज उसके पति द्वारा छलावा मात्र थी.वह उसे घर की चार-दीवारी में ही बंद रखना चाहते थे.जब वासुमति पंचायत में चली जाती है तो उसका पति रनवीर घर आने पर उसे उसकी हैसीयत का पाठ पढ़ाने लगता है---
 लौटकर रनवीर ने खूब समझाया था,"पंचायती चबूतरे पर बैठती तुम शोभा देती हो ? लाज-लिहाज मत उतारो.कुल-परंपरा का ख्याल भी नहीं रहा तुम्हें ? औरत की गरिमा आढ़-मर्यादा से ही है.फिर तुम क्या जानो गांव में कैसे-कैसे धूर्त हैं ? "8

पुरुषवादी सोच स्त्री को अपनी मर्यादा से जोड़कर उसकी गुलामी या दासता को और अधिक मजबूत करना चाहती है.जगदीश्वर चतुर्वेदी कहते है कि—स्त्री की पहचान जन्मजात न होकर सामाजिक निर्मिति है.स्त्री की अस्मिता का निर्माण करने वाला प्रमुख तत्व है उसका पुरुष संदर्भ,इसके अतिरिक्त उसकी अस्मिता को पहचानने का यदि कोई रूप सामने आता है तो समाज आज भी इस रूप में स्त्री को पहचानने से इंकार करता है.”9
     वासुमति पंचायत में जाकर फैसला करने के बाद सुख और आनंद की अनुभूति करती है,क्योंकि उसे भी इस बात का हसास है कि सदियों जो रास्ता बंद पड़ा था उसके खुलने की शुरुआत इस फैसले से हो गई थी.यह फैसला स्त्री की चेतना को जागृत करके प्रेरित करने का रास्ता भी खोलता था.
"  फैसला करवाकर आयी तो अपूर्व तोष में भीगी हुई थी.अनाम आर्द्रता और प्रेमिल निष्ठा के साथ लिया  निर्णय.पवित्र मंदिर-सा लगा था पंचायत का चबूतरा,जिस पर बैठकर रुके हुए सड़े जल को जैसे काटकर बहा दिया हो मैंने.सम्पूर्ण गंदगी रिता दी हो अपने हाथों से.अब मानो नई वाटिका का बीजारोपण होगा वहां."10

"सुन ले, और समझ ले अपनी औकात, मजबूरी में खड़ी करनी पड़ी तू.मैं दो-दो पदवी नहीं रख सकता था एक सात.सोचा था पत्नी से अधिक भरोसोमंद कौन...."11 वासुमति का पति रनवीर उसे उसकी औकात बता कर अपनी सोच को उजागर करता है तथा समाज के एक बड़े सच को कहानीकार इस पात्र के माध्यम से उजागर करती है.औकात का अहसास करने के पीछे पुरुष समाज का अपनी सत्ता का छीन जाने का डर साफ झलकता है.एंद्रीना रीच ने इस पर अपने विचार रखते हुए कहा है कि-स्त्री संघर्ष  का समस्त इतिहास सदियों से चुप्पी में डूबा हुआ है.किसी भी स्त्रीवादी लेखिका के लिए सबसे बड़ी सांस्कृतिक बाधा यह आती है कि प्रत्येक स्त्रीवादी लेखन किसी शून्य से पैदा हुआ जान पड़ता है,जैसे कि हममें  से प्रत्येक बिना किसी ऐतिहासिक अतीत संदर्भ युक्त वर्तमान के जीते,सोचते और काम करते है.यह उन कई रास्तों में से एक है जिसमें स्त्री के काम को विच्छिन्न,अनियमित और अपनी किसी भी परंपरा से यतीम मान लिया जाता है.”12दरअसल यह वर्चस्ववादी राजनीति का एक अंग है,जिसके तहत स्त्री को बंदिशों में रखने की कवायद आज भी जारी है.ग्राम्शी ने वर्चस्व की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए माना है कि समाज में एक विशेष प्रकार की संस्कृति दूसरी प्रकार की संस्कृतियों पर हावी रहती है.यही स्थिति पितृसत्तामक समाज की भी है,जहां स्त्री की स्थिति अन्याकी है और पुरुष कर्त्ता के रूप में सामने आता है.ऐसी स्थितियों में एक और वह पितृसत्तामक समाज द्वारा उत्पीड़ित की जाती है तो दूसरी और बाहरी परिवेश यही समाज पूंजीवाद का मुखौटा पहन कर उसे निकटतम कोटि की उजरती गुलाम में तब्दील कर देता है.दरअसल पितृसत्ता केवल वैचारिक,मानसिक या सांस्कृतिक स्तर की अथवा सुपरस्ट्रक्चर की चीज नहीं बल्कि समाज के आधार से संबंधित चीज है,जिसका उत्पादन के साधनों उत्पादन के संबंधों और उत्पादन के तरीकों से बड़ा भौतिक संबंध है.”13
निर्णय लेने का अधिकार भी मूल रूप से स्त्री के पास नहीं है.अपने जीवन से जुड़े निर्णयों से लेकर राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक आदि सभी निर्णयों में स्त्री को स्वतंत्रता नहीं है.इस सभी निर्णयों में पुरुष का हस्तक्षेप या सीधे-सीधे उन्हीं का एकछत्र राज चलता रहा है.भले ही इसके दरकने के स्वर भी कहीं-कहीं से सुनने लगे हो,पर पूरी तरह से अभी टुटे नहीं है.वासुमति  को भी निर्णय लेने के अधिकारों से वंचित किया उसके पति ने तथा रबड़ स्टाप की तरह अपनी को इस्तेमाल करने वाला उसका पति सभी निर्मय अपनी मर्जी से लेता था एंव वासुमति पर भी थोप देता था.इसी परिप्रेक्ष्य में ईसुरिया वासुमति को कहती है कि तुम ने भी हमारी सारी उम्मीदें तोड़ दी."ईसुरिया का शोकगीत थमा न था,"अच्छा होता बसुमति, हम अपना वोट काठ की लठिया को दे आते,निरजीव लकड़ी को.उठाये उठती तो.बैरी पर वार तो करती.अतीचालों के विरोध में पड़ती.पर रनवीर की दुल्हन ,तुम तो बड़े घर की बहू ही रहीं.पिरमुख जी की पत्नी.घूंघट में लिपटी पुतरिया-सी चलती रहीं,आंखें मूंद के."14 वासुमति केवल घुंघट में लिपटी काठ की गुड़िया के समान प्रतीत हो रही थी.क्योंकि उसकी परवरिश भी इसी पितृसत्तामक समाज में हुई थी,जो आरंभ से ही यह कंडीशनिंग करना शुरू कर देता है कि पति की हर इच्छा का पालन करना उसका परम धर्म है,उसी के परिणाम स्वरूप वासुमति भी अपने पति का विरोध नहीं कर पाती.वह हरदोई के पक्ष में अपने दिए गए फैसले पर अंत तक नहीं टिक पाती,क्योंकि उसके पति ने दूलरा ही फैसला कर दिया था.जो कि समाज की पुरुषवादी सोच के अनुरुप ही था.दूसरी तरफ हरदेई के पिता के रोदनमय बयानों पर पुलसिया कलम चल रही थी--" दहेज के लोभी पति से मार-पीट हुई थी,रात के समय.उसकी बिगड़ी हुई आदतों के चलते हम अपनी बेटी को नहीं भेजते थे उसके साथ.पर होनी को नहीं टाल पाये,दरोगा जी.पिरान खो दिये मेरी हरदेई ने.मां बेहोस पड़ी है घर में "15 राजनैतिक साजिशों के तहत हरदेई के पिता और वासुमति का पति हरदेई के पति के खिलाफ ही मुकदमा दर्ज करा देता है.दहेज के खिलाफ बने कानून का अपनी पहुंच का इस्तेमाल करते हुए किस तरह मासूम लोगों को इसमें फंसा देते है.कहानीकार ने इस पहलू पर भी फोकस किया है कि किस तरह से एक वाजिब कानून को इंसानियत के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
   राजनीति में स्त्रियों की भागीदारी को सुनिश्चित करने तथा,पुरुष-वर्चस्व व ,सांमती-सोच और पितृसत्तामक ढांचे में फंसी वासुमति एक दिन वह झटके के साथ संकोच की दीवार लांघ जाती है.वह प्रमुख के चुनाव में अपना मत पति के खिलाफ देती है और उसका पति एक वोट यानी वासुमति के वोट से ही हार जाता है.रोल मॉडल संकोच की सीमा लांघने वाला किलिंग इंस्टिंक्टपा लेने में सहायता करते हैं.आज की स्त्री राजनीति,खेल,विज्ञान,साहित्य और अन्य क्षेत्रों में अपने रोल मॉडल चुन लेती है.इन रोल मॉडलों से प्ररेणा पाकर न जाने समाज की कितनी लड़कियों के दिलो-दीमाग में सपनों को जागृत किया तथा उन्हें प्रेरित किया अपने अधिकारों और निर्णय लेने की क्षमता के प्रति.उन सभी में एक विश्वास जगाया.यह काम हमारे जनतंत्र ने चुपचाप किया है कि गुमसुम,चुपचाप,सहमी औरतें आज आत्मविश्वास के साथ संसद के दरवाजे पर खड़ी हो कर चीख रही है-हमरा हिस्सा दो ! हिन्दी साहित्य और खासकर हिन्दी कहानी आज उसी चीख को दर्ज कर रही है.



संदर्भ-ग्रंथ सूचि-
(1)सं.-साधना आर्य,निवेदिता मेनन,जिनी लोकनीता,नारीवादी राजनीति,हिन्दी माध्यम कार्यान्वय     निदेशालय,दिल्ली,पृ.40
(2) सुधा सिंह,ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ,ग्रंथशिल्पी प्रा.लि. दिल्ली,2008,पृ.12
(3) सं.-अरुण प्रकाश,कहानी-संग्रह,हमारा हिस्सा,,पेंगुइन बुक्स,दिल्ली,2005,पृ. भूमिका
(4)मैत्रेयी पुष्पा,फैसला, सं.-अरुण प्रकाश,कहानी-संग्रह,हमारा हिस्सा,,पेंगुइन बुक्स,दिल्ली,2005,पृ. 314
(5)वहीं,पृ.315
(6) वहीं,पृ.316
(7)उद्धृत,रमणिका गुप्ता,कथादेश,सितंबर 2008,पृ.93
(8) मैत्रेयी पुष्पा,फैसला, सं.-अरुण प्रकाश,कहानी-संग्रह,हमारा हिस्सा,,पेंगुइन बुक्स,दिल्ली,2005,पृ. 319
(9) जगदीश्वर चतुर्वेदी,स्त्रीवादी साहित्य विमर्श,ग्रंथशिल्पी प्रा. लि.,दिल्ली,पृ.7
(10) मैत्रेयी पुष्पा,फैसला, सं.-अरुण प्रकाश,कहानी-संग्रह,हमारा हिस्सा,,पेंगुइन बुक्स,दिल्ली,2005,पृ. 322
(11) वहीं,पृ.324
(12) उद्धृत,सुधा सिंह,ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ,ग्रंथशिल्पी प्रा. लि.,दिल्ली,2008,पृ.47
(13)उद्धृत,सं. रमेश,संज्ञा उपाध्याय,आज का स्त्री आंदोलन,शब्दसंधान प्रकाशन,दिल्ली,पृ.19
(14) मैत्रेयी पुष्पा,फैसला, सं.-अरुण प्रकाश,कहानी-संग्रह,हमारा हिस्सा,,पेंगुइन बुक्स,दिल्ली,2005,पृ. 327
(15) वहीं,पृ.327


          


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