कामदेव उर्फ राजेन्द्र यादव जी,
हंस के सम्पादक महोदय जी, आप हमेशा ही विवादों
में रहना पसंद करते है.आपकी इन करतूतों के चलते कई बरस पहले ही मैं ने आपको पढ़ना
छोड़ दिया था.अब मैं हंस पत्रिका भी नहीं पढ़ता.खरीदता तो बिल्कुल ही नहीं
हूं.एकाध बार कहीं किसी मित्र के यहां पडी मिल गई तो एक सरसरी-सी नजर जरूर मार
लेता हूं.हालांकि एक पाठक के नजरिए से यह उचित दृष्टिकोण भले ही ठीक न हो,पर क्या
करता .आप इतना अधिक विवाद या बदनाम रहे है कि मन उठ-सा गया था आपको पढ़ने को
लेकर.ऊपर से आप पर लगातार महिलाओं को लेकर जो तथाकथित हिन्दी-समाज में किवदंतियां
लगातार सुनता रहा हूं,कभी किसी रूप में तो कभी किसी रूप में.जो खत्म होने का नाम
ही नहीं ले रही.कुछ तो आपको कामदेव तक कहते है,पर कहने वालों क्या ? कहने वाले तो पता
नहीं क्या-क्या और किस-किस के बारे में कहते है.पर लगता है आप भी कुछ फरक नहीं
पड़ता.इतनी मोटी चमड़ी निर्मित करने का माद्दा भी आप ही रखते है.असल में छपास भी
एक मानसिक रोग ही है,लोगों से क्या-क्या न करा दे.आप भी इस मनोविज्ञान को भली
भांति जान-समझ गए थे.तभी तो विरोध होता रहा और आप अपने करम में लगे रहे.कुछ छपते
रहे और आप है कि छापते रहे.कई बार तो लगता है कि हिन्दी के कई न्यूज-चैनल तक आपसे
प्रभावित हो कर ही हमेशा विवादों के सहारे ही आगे बढ़ते हुए फल-फुल रहे है.आज जब
मैं ने गुगल बाबा के कलेजे में –राजेन्द्र यादव के विवाद,भरा तो उसने कई विवाद
सामने लाकर पटक दिए.तो सोचा क्यूं न .आपके विवादों का एक पिटारा तैयार कर दिया
जाए.दरअसल आप अयोध्या ढांचे की तरह हिन्दी के विवादित ढांचे के रूप में स्थापित हो
गए है.
“वर्ग दो हैं, एक जिन्होंने ज्ञान को मोनोप्लाइज़ (monopolize)
किया
है और दूसरा वो कि जिनके पास भौतिक अनुभव हैं. ब्राह्मण और नॉन ब्राह्मण. अगर मैं
नॉन ब्राह्मण में भी वर्गीकृत करता तो वो जातिवाद था. ब्राह्मणों के पास कई
हज़ारों साल से ज्ञान कैद है जिसे उन्होंने किसी दूसरे के पास जाने नहीं दिया,
उनके
पास ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्या था. वो अमूर्तन में विचरते रहे,
इसीलिए
उनके पास कविता है, क्योंकि कविता अमूर्तन का खेल है.” (ब्राह्मणों को ज्ञान-पिशाच कहना चाहिए-सुप्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र
यादव से गीताश्री की बातचीत)
“ब्राह्मणों
को ज्ञान-पिशाच कहना चाहिए”.आपकी
उक्ति में दम तो है,पर आप भी तो अपने आप में एक संस्थागत तरीके से पिशाच ही है.आप
ने भी तो उसी ज्ञान और सत्ता के सहारे इतना भोग-विलास किया.अन्यथा साहित्यकार तो
ओर भी है हिन्दी में.दरअसल आपने हंस पत्रिका के नाम पर भरपूर शोषण तो किया ही,इसके
साथ-साथ बदनामी को खूब भूनाया.मैं ने तो जब पढ़ना-लिखना शुरू किया,मने हिन्दी
साहित्य के पढन-लेखन में आया,तो आप को लेकर सुनी गई बातों ने मेरे
बालमन(साहित्यिक-समझ के लिहाज से) पर इतना बुरा प्रभाव डाला की,तभी मैं ने एक
निर्णय ले लिया था कि कभी अगर कुछ छपने की आंकाक्षा हुई तो कम से कम हंस पत्रिका
में कभी कुछ नहीं भेजूंगा.भले ही हिन्दी जगत के लोग यही से साहित्यकार ,लेखक,आलोचक
होने का प्रमाण पत्र लेते हो पर मैं ने यह निर्णय लिया और मैं आज तक इस निर्णय पर
कायम हूं.बिना किसी संशय के.संशय की कोई गुजाइंश ही नहीं है.
आपके शुभ-चितंकों और दुश्मनों की भी
लंबी कतार और लंबी परंपरा रही है.कई बार तो लगता है नई-कहानी के लेखकों को ध्यान
में(विशेषतः) रखकर ही अज्ञेय ने आधुनिक मनुष्य को यौन-वर्जनाओं का पुंज कहा था.हंस
पत्रिका की वैतरिणी के सहारे आपने भी लगता है,अपनी सारी यौन-वर्जनाएं को मोक्ष तक
पहुंचा ही दिया होगा.या अब भी कोई कसर बाकी रहती है.गुगल बाबा ने ही आप के किसी
हमदर्द का यह लेख पर सामने रख दिया.“राजेन्द्र यादव से नफरत की जा सकती है। राजेन्द्र यादव से प्यार किया
जा सकता है मगर राजेन्द्र यादव को नकारा नहीं जा सकता। लेखकों की तीन तीन पीढ़ियां
अपने लेखन के लिये राजेन्द्र यादव की शाबाशी पाने के लिये लालसा लिये बड़ी हुई हैं।
जब तक राजेन्द्र यादव फतवा ना जारी कर दें या हंस में कहानी प्रकाशित ना हो जाए तो
कहानीकार अपने आप को मुख्यधारा का हिस्सा नहीं मान सकता। यानी हिन्दी साहित्य की
मुख्यधारा के दरवाजे की कुंजी राजेन्द्र यादव ही आपको थमा सकते हैं।“इस “कुंजी” ने
ही आप को इतना अधिक मौका उपलब्ध कराया.गलती केवल आप की नहीं है,उनकी भी है,जो
लगातार सब कुछ जानते हुए भी अपने स्वार्थों के चलते चुप रहे या विरोध भी किया तो केवल
अपना उल्लू सीधा करने के लिए.खैर आप भी शुरू से ही अपने रास्ते पर डटे रहे . कमाल का
धैर्य और आत्म-विश्वास आप में भी कूट-कूट कर भरा हुआ है. “राजेन्द्र यादव को समय समय पर तरह तरह
के विवाद खड़े करने का भी शौक है। जैसे उनका एक साक्षात्कार था 'होना, सोना एक खूबसूरत बला के साथ' प्रवासी साहित्य पर उनकी हिकारत भरी टिप्पणी, हनुमान जी पर उनका बयान, ब्राह्मणों को ज्ञान पिशाच कहना- यह सब
उन्हें केन्द्र में बनाए रखता है। यानी कि राजेन्द्र यादव अच्छी तरह जानते हैं कि
समाचारों की हेडलाइन में कैसे बना रहा जा सकता है।“
“'पाखी' के
जनवरी, २०११ अंक में
प्रकाशित 'संवाद' में वे कहते हैं- 'सन् सैंतालीस से पहले का या बीसवी सदी
से पहले का जो साहित्य है, वह
सब हमें छोड़ देना चाहिए क्योंकि उस जबान को जिसमें वह लिखा गया, कोई नहीं समझता।' साहित्य को लेकर यह एक अद्भुत सोच है।
ब्रिटेन में अब शेक्सपीयर को पढ़ना अनिवार्य नहीं रह गया है। हिन्दी के वरिष्ठतम
साहित्यकार की ऐसी मॉडर्न सोच उन्हें नामवर सिंह से अलग खड़ा करती है। नामवर जी आज
भी किसी पुस्तक का विमोचन करने उसे बिना पढ़े चल देते हैं, जबकि राजेन्द्र यादव ऐसा कभी नहीं
करते। वे नये से नये लेखकों के लेखन से भी परिचित हैं। कभी झूठी तारीपफ नहीं करते।““भाई असगर वजाहत ने उन्हें इस सदी का
सबसे बड़ा महाखलनायक द्घोषित किया था।“ (खलनायक
या करिश्मा : तेजेन्द्र शर्मा)
“दिल्ली में 84
वर्षीय कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव के घर जाकर उन्हें दो घंटे तक गाली
देने का समाचार कुछ ब्लॉगों पर प्रकाशित हुआ। दिल्ली का लगभग सारा हिंदी समाज 11 दिसंबर की इस घटना से परिचित था पर
कहीं से इसके विरोध में कोई आवाज नहीं उठी। अंतत: 22 दिसंबर को जो वक्तव्य प्रकाशित हुआ वह इस प्रकार था:”विभिन्न माध्यमों से पता चला है कि
पिछले दिनों हिंदी के वयोवृद्ध लेखक राजेंद्र यादव के साथ उनके घर जाकर अजित अंजुम
नाम के व्यक्ति ने, जो
टीवी का पत्रकार बतलाया जाता है,
बदसलूकी और गाली-गलौज किया। यह अत्यंत शर्मनाक और खेद जनक घटना है। हो सकता है अजित अंजुम की राजेंद्र
यादव से कुछ शिकायतें हों। हम उस मामले में कोई भी पक्ष नहीं ले रहे हैं। लेखक के
रूप में हमारा मानना सिर्फ यह है कि जब विवाद लेखन को लेकर हो और दो पढ़े-लिखे
प्रबुद्ध लोगों के बीच हो तो उसे लोकतांत्रिक तरीके से हल किया जाना चाहिए। हम इस तरह के
व्यवहार की भर्त्सना करते हैं और अपेक्षा करते हैं कि अजित अंजुम अपने इस व्यवहार
के लिए अफसोस प्रकट करेंगे।”- नामवर
सिंह, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, आनंदस्वरूप वर्मा, मंगलेश डबराल, मैत्रेयी पुष्पा, पंकज बिष्ट, प्रेमपाल शर्मा, भारत भारद्वाज।"आपके पक्ष में इन सभी महानुभवों ने भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भूमिका निभाई.
“इस व्यक्तित्व की यही रिद्धि-सिद्धि है कि महिला हो या पुरुष, नौजवान हो या वयोवृद्ध, सभी बेहद सहजता से इसके कृति क्षेत्र
में प्रवेश कर जाते हैं और इसके साथ अपना एक आत्मीय यान बना लेते हैं। अपनेपन की
साधिकार अनुभूति से गुजरने वाले लोगों की जो विराट बुद्धिजीवी संख्या राजेन्द्र
यादव से जुड़ी रहती है वह शायद ही किसी दूसरे लेखक के नसीब में हो। तिस पर आगरा
परिवार के मेरे जैसे लोगों की भी कमी नहीं है जो जब चाहे तब पूरी ठसक के साथ उनके
एकदम निजी क्षेत्र में जा धमकते हैं।“
“उनके लिखे, बोले
या छापे हुए ने ही विवाद खड़े नहीं किये हैं, 'व्यक्ति' राजेन्द्र यादव ने भी विवाद खड़े किये हैं- ऐसे विवाद जो एक बड़ी
लेखक-पाठक बिरादरी में कहीं चिंता के साथ तो कहीं चटखारे के साथ बतियाये गये हैं
और जिन्हें लेकर बहुतों का मानना है कि ऐसा सब कोई दुष्ट-दुस्साहसी व्यक्ति ही कर
सकता है। मगर दुष्टताएं या क्षुद्रताएं सापेक्ष तरह से ली जाएं तो किस उस जीव में
नहीं होती जो औरत का जाया हो और जिसे इंसान कहा जाता हो। बात तो समूची दुष्टता के
बावजूद वह होने की है जो राजेन्द्र यादव हैं, और जिनकी संगति-कुसंगति एक साथ कई-कई पीढ़ियों के बीच संवाद के सेतु
निर्मित करती रहती है।“
“अपनी तमाम कमियों-कमजोरियों के बावजूद, हमें स्वीकारना चाहिए,
राजेन्द्र यादव एक व्यक्ति लोकतंत्र हैं। उनका व्यक्तित्व एक ऐसे
लोकतांत्रिक परिवेश का सृजन करता है जिसमें एक नवोदित रचनाकार की भी उसी तरह
आवाजाही हो सकती है जिस तरह किसी सिद्ध-वृद्ध रचनाकार की होती है। यहां आकर एक
व्यक्ति राजेन्द्र यादव के साथ बैठकर दरूआ भी सकता है और उन्हें गरिया भी सकता है
और तमाम लंतरानियों के बाद अपने एक बड़े बुद्धिजीवी होने के आत्मरती तमगे को अपने
जेहन में टांगकर खुशी-खुशी वापस अपने खोल में लौट सकता है। इतनी जबर्दस्त सुविधा लेखक-पत्रकार-चिंतक-विचारक
आदि बिरादरी को और कहां उपलब्ध है?”
“लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। राजेन्द्र यादव ने जो एक विशेष
क्षेत्र निर्मित किया है उसमें हिंदी भाषा-संस्कृति-विचार-साहित्य-समाज की वे
बहसें खड़ी हो रही हैं जो तरक्की नाम की वर्तमान अंधी चौंधियाहट के चलते पड़े
बौद्धिक-वैचारिक अकाल के बीच जरूरी खुराक का काम कर रही हैं। प्रिंट और टेली
मीडिया के वे लेखक-पत्रकार-संपादक जो व्यावसायिकता के दुराग्रहों के चलते
अपने-अपने घरों में बोल तक नहीं पाते, उन्हें राजेन्द्र यादव की मेज पर जुबान मिल जाती है। इतना सुकून भी
कम नहीं होता। इस सुकून की खातिर हिंदी की विचार बिरादरी के लिए राजेन्द्र यादव का
होना जरूरी है। उनके न होने की कल्पना एक डरावने शून्य में बदलने लगती है। वह
जियें और सबको जिलाये रखें।“
“राजेन्द्र यादव बताते हैं उन्होंने लिखा था हनुमान रावण के दरबार का
पहला आतंकवादी था, औरंगजेब
के दरबार में शिवाजी पहला आतंकवादी था और अंग्रेजों के दराबर में भगत सिंह पहला
आतंकवादी था. यह राजेन्द्र यादव का पूर्ण विचार है. इसमें आपत्तिजनक क्या है? रावण का दरबार हो तो हनुमान आतंकवादी
ही होगा. औरंगजेब का दरबार हो तो शिवाजी को देवपुरुष कौन कहेगा और अंग्रेजों का
दरबार हो तो भगत सिंह की हैसियत किसी आतंकवादी जैसी ही रही होगी. लेकिन क्या
वास्तव में ये आतंकवादी थे? और
अगर राजेन्द्र यादव का यह पूर्ण विचार है तो क्या ओसामा बिन लादेन भी हनुमान, शिवाजी और भगत सिंह के समानांतर खड़ा
हो जाता है. शायद राजेन्द्र यादव विरोध के उस स्वर को आतंकवाद कह रहे थे जो
साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़ा होता है. लेकिन विवाद हो गया और बात दब गयी.हकीकत यही
है कि "मूर्ख हिन्दुओं" की लंका में यह राजेन्द्र यादव पिछले पच्चीस साल
से अपनी कलम से आग लगाने का काम कर रहा है, और उस राजेन्द्र यादव के चाहनेवालों को तब खुशी होती है जब मूर्ख
हिन्दुओं की इस लंका से धुंआ उठता है.”(हंस के हनुमान जी-
By संजय तिवारी 30/07/2011
17:27:00)
आज इस के लिखने का कारण यह है कि ज्योति कुमारी का
प्रकरण,जो कि दबी जुबान में हिन्दी-जगत के अंदर के खानों में काफी समय से चर्चा में
रहा था.आज वह खुले मंच पर आ गया.क्योंकि आप
ने अपने संपादकीय में(सुना है) माफी के साथ स्पष्टीकरण दिया है.इन सभी विवादों में
हमेशा राजनीति रही है,इससे इन्कार नहीं किया जा सकता.पर आप ने हमेशा इस(सैक्स) छवि
का लाभ ही उठाया है.अतः आप दोषी तो है ही. फिर भी सोचा कम से कम एक बार लिख कर मैं भी भड़ास
तो निकाल ही लूं.आपसे मुझे कोई व्यक्तिगत परेशानी नहीं है,पर आप ने प्रेमचंद के नाम
पर और हंस-पत्रिका की जमीन पर अपनी सैक्स की खेती को फैलाया है.इसलिए आप मेरी नजर में
अन्य घृणित व्यक्तियों की श्रेणी में आ जाते है.कामदेव का आप साक्षात रूप लेकर हिन्दी जगत में अनेक छपासों का उद्धार करने के लिए आए है. इसलिए कम से कम छपने वाले आपके ऋणी है.कुछ ऋण तो आपने समय रहते वसूल कर लिया.बाकी बचा-खुचा भी आप लेकर स्वर्ग जायेंगे.आपकी मनोकामना पूरी हो.
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