हिंसा और प्रेम के कॉकटेल में परोसी गई फिल्म राम-लीला न तो हिंसा के समाजशास्त्र को सही से व्याख्यायित कर पाई है और न ही प्रेम को अपनी विराटता और सहजता में परोस पाई है.दोनों ही स्तरों पर फिल्म निराश अधिक करती है.संजय लीला भंसाली से एक सफल निर्देशक होने के नाते ज्यादा उम्मीद रखना गलत नहीं था.पर उन्होंने अपने कमजोर निर्देशन से ब्लैक और देवदास के असर को कम ही किया है,उसे बढ़ाया नहीं है.
भंसाली ने अपने सारे सामर्थ्य को राम-लीला के गानों में खपा दिया. रंगों के प्रति लालसा और नजरिए को सीमित दायरे में रखने का ही नतीजा यह रहा कि फिल्म सतह पर ही तैरती रह गई.गहराइयों में उतरने का प्रयास तक नहीं करती.उसी के फलस्वरूप फिल्म बहुत ही सतही बन कर रह गई है.
हिंसा के समाजशास्त्रीय और भारतीय परिवेश की ना-समझी भी हमें फिल्म की विश्वसनीयता पर संदेह अधिक कराती है.ऐसा लगता है कि निर्देशक ने सोमालियाई परिेवेश पर बनी फिल्मों को चलताऊ ढंग से देखा-समझा और उन्हीं का असर रह गया हो.इसी कारण हथियारों के प्रति मोह और गोलियों की खनक के बीच प्रेम हल्का और कमजोर नजर आता है.
प्रेम क्या मर-मिट जाने में ही अभिव्यक्त हो पाता है ? जीवन की सार्थकता लील देने पर ही क्यों अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचती है ? पारिवारिक दुश्मनी के बीच उपजे प्रेम हमेशा मृत्यु की आगोश में
ही क्यों परिणत होते है ? क्या प्रेम में मर जाना ही प्रेम को सार्थक बनाता है ? मृत्यु को उत्सव तरह भुनाना क्या फिल्मी ट्रैंड भर है या जीवन के प्रति सतही समझ का परिणाम है.
कुल मिलाकर फिल्म न तो प्रेम को ही सजीव रूप में अभिव्यक्त कर पाई है और न ही हिंसा को विभिन्न एंगलों से जस्टीफाई कर पाई है.हां,फिल्म सोमालिया का पाइरेटिड संस्करण बन कर रह गई है.
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