#घर_का_हर_कोना
मकान को जब घर कहा जाता है तो उसके हर कोने का ज़िक्र नहीं होता । सबके घर में हर जगह अलग-अलग कोने अलग-अलग काम के लिए निश्चित होते चले जाते है। जब जहां आप कोई काम करते है तब-तब वो हिस्सा उस घर का कोना बन जाता है ।
हर कोना नागार्जुन की भाषा में कहे तो आबद्ध होता है सम्बद्ध होता है प्रतिबद्ध होता है ।
हर काम के लिए तय कर दी गयी जगह खास होती चली जाती है । यह खास होना ही उसे कोने में बदलता चला जाता है।
पढ़ने,खाने,लेटने,बैठने,सोचने,हंसने और रोने की एक खास जगह हमें अनचाहे तरीके से अपनी ओर खींचती रहती है और हम भी बिना किसी प्रतिरोध के चलते चले जाते है।
वो जगहें रूढ़ होती चली जाती है और हम उन जगहों से एक खास रिश्ता बनाकर गूढ़ होते चले जाते है ।जीवन में चाहे कितनी ही अनिश्चिता हो वहां उस जगह पर हमेशा उस भाव की निश्चिंतता रहती है ।जो तकलीफ़ में होने के बावजूद सुकून देती है ।
ऐसे ही जीवन में हम निश्चित जगह तलाशते रहते है । यह तलाश अनन्त होती है पर निरन्तर सक्रिय भी रहती है ।
इन अलग-अलग जगहों पर पसरे कोनों को समेटकर ही हम जीवन की गति में शामिल होते रहते है।
आपके जीवन में भी कितने ही ऐसे कोने होंगे पर आपने उन पर लिखा या सोचा नहीं होगा ।
हर कोना कुछ कहता है बस सुनना वाला होना चाहिए ।
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