बुधवार, 27 जुलाई 2016

रंगमंच और पारंपरिक कलाएं

भारतीय समाज में पारंपरिकता का विशेष स्‍थान है । परंपरा एक सहज प्रवाह है । निश्‍चय ही, पारंपरिक कलाएं समाज की जिजीविषा, संकल्‍पना, भावना, संवेदना तथा ऐतिहासिकता को अभिव्‍यक्‍त करती हैं । नाटक अपने आप में संपूर्ण विधा है, जिसमें अभिनय, संवाद, कविता, संगीत इत्‍यादि एक साथ उपस्थित रहते हैं । परंपरा में नाटक्‍ एक कला की तरह है । लोकजीवन में गेयता एक प्रमुख तत्‍व है । सभी पारंपरिक भारतीय नाट्यशैलियों में गायन की प्रमुखता है । यह जातीय संवेदना का प्रकटीकरण है ।

पारंपरिक रूप से लोक की भाषा में सृजनात्‍मकता सूत्रबद्ध रूप में या शास्‍त्रीय तरीके से नहीं, अपितु बिखरे, छितराये, दैनिक जीवन की आवश्‍यकताओं के अनुरूप होती है । जीवन के सघन अनुभवों से जो सहज लय उत्‍पन्‍न होती है, वही अंतत: लोकनाटक बन जाती है । उसमें दु:ख, सुख, हताशा, घृणा, प्रेम आदि मानवीय प्रसंग आते हैं ।

भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों में तीज-त्‍यौहार, मेले, समारोह, अनुष्‍ठान, पूजा-अर्चना आदि होते रहते हैं, उन अवसरों पर ये प्रस्‍तुतियां भी होती हैं । इसलिए इनमें जनता का सामाजिक दृष्टिकोण प्रकट होता है । इस सामाजिकता में गहरी वैयक्तिकता भी     होती है ।

पारंपरिक नाट्य में लोकरुचि के अलावा क्‍लासिक तत्‍त्‍व भी उपस्थित होते हैं, लेकिन क्‍लासिक अंदाज़ अने क्षेत्रीय, स्‍थानीय एवं लोरूप में होते हैं । संस्‍कृत रंगमंच के निष्क्रिय होने पर उससे जुड़े लोग प्रदेशों में जांकर वहां के रंगकर्म से जुड़े होंगे । इस प्रकार लेन-देन की प्रक्रिया अनेक रूपों में संभव हुई । वस्‍तुत: इसके कई स्‍तर थे- लिखित, मौखिक, शास्‍त्रीय-तात्‍कालिक, राष्‍ट्रीय- स्‍थानीय ।

विभिन्‍न पारंपरिक नाट्यों में प्रवेश-नृत्‍य, कथन नृत्‍य और दृश्‍य नृत्‍य की प्रस्‍तुति किसी न किसी रूप में होती है । दृश्‍य नृत्‍य का श्रेष्‍ठ उदाहरण बिदापत नाच नामक नाट्य शैली में भी मिलता है । इसकी महत्‍ता किसी प्रकार के कलात्‍मक सौंदर्य में नहीं, अपितु नाट्य में है तथा नृत्‍य के दृश्‍य पक्ष की स्‍थापना करने में है । कथन नृत्‍य पारंपरिक नाट्य का आधार है । इसका अच्‍छा उपयोग गुजरात की भवाई में देखने को मिलता है । इसमें पदक्षेप की क्षिप्र अथवा मंथर गति से कथन की पुष्टि होती है । प्रवेश नृत्‍य का उदाहरण है- कश्‍मीर का भांडजश्‍न नृत्‍य । प्रत्‍येक पात्र की गति और चलने की भंगिमा उसके चरित्र को व्‍यक्‍त करती है । कुटियाट्टम तथा अंकिआनाट में प्रेवश नृत्‍य जटिल तथा कलात्‍मक होते हैं । दोनों ही लोकनाट्य शै‍लियों में गति व भंगिमा से स्‍वभावगत वैशिष्‍ट्य को दर्शक तक पहुँचाते हैं ।

पारंपरिक नाट्य में परंपरागत निर्देशों तथा तुरंत उत्‍पन्‍न मति को मिश्रण होता है । परंपरागत निर्देशों का पालन गंभीर प्रसंगों पर होता है, लेकिन समसामयिक प्रसंगों में अभिनेता या अभिनेत्री अपनी आवश्‍यकता से भी संवाद की सृष्टि कर लेता है । भिखारी ठाकुर के बिदेसियामें ये दोनों स्‍तर पर कार्य करते हैं ।

.पारंपरिक नाट्यों में कुछ विशिष्‍ट प्रदर्शन रुढियां होती हैं । ये रंगमंच के रूप, आकार तथा अन्‍य परिस्थितियों से जन्‍म लेती हैं । पात्रों के प्रवेश तथा प्रस्‍थान का कोई औपचारिक रूप नहीं होता । नाटकीय स्थिति के अनुसार बिना किसी भूमिका के पात्र रंगमंच पर आकर अपनी प्रस्‍तुति करते हैं । किसी प्रसंग और खास दृश्‍य के पात्रों के एक साथ रंगमंच को छोड़कर चले जाने अथवा पीछे हटकर बैठ जाने से नाटक में दृश्‍यांतर बता दिया जाता है ।
पारंपरिक नाट्यों में सुसंबद्ध दृश्‍यों के बदले नाटकीय व्‍यापार की पूर्ण इकाइयां होती हैं । इसका गठन बहुत शिथिल होता है, इसलिए नए-नए प्रसंग जोड़ते हुए कथा-विस्‍तार के लिए काफी संभावना रहती है । अभिनेताओं तथा दर्शकों के बीच संप्रेषण सीधा व सरल होता है ।

नाट्य परंपरा पर औद्योगिक सभ्‍यता, औद्यो‍गीकरण तथा नगरीकरण का असर भी पड़ा है । इसकी सामाजिक-सांस्‍कृतिक पड़ताल करनी चाहिए । कानपुर शहर नौटंकी का प्रमुख केन्‍द्र बन गया था । नर्तकों, अभिनेताओं, गायकों इत्‍यादि ने इस स्थिति का उपयोग कर स्‍थानीय रूप को प्रमुखता से उभारा ।पारंपरिक नाट्य की विशिष्‍टता उसकी सहजता है । आखिर क्‍या बात है कि शताब्दियों से पारंपरिक नाट्य जीवित रहने तथा सादगी बनाए रखने में समर्थ सिद्ध हुए हैं ? सच तो यह है कि दर्शक जितना शीघ्र, सीधा, वास्‍तविक तथा लयपूर्ण संबंध पारंपरिक नाट्य से स्‍थापित कर पाता है, उतना अन्‍य कला रूपों से नहीं । दर्शकों की ताली, वाह-वाही उनके संबंध को दर्शाती है ।

वस्‍तुत: पारंपरिक नाट्यशैलियों का विकास ऐसी स्‍थानीय या क्षेत्रीय विशिष्‍टता के आधार पर हुआ, जो सामाजिक, आर्थिक स्‍तरबद्धता की सीमाओं से बँधी हुई नहीं थीं । पारंपरिक कलाओं ने शास्‍त्रीय कलाओं को प्रभावित किया, साथ ही, शास्‍त्रीय कलाओं ने पारंपरिक कलाओं को प्रभावित किया । यह एक सांस्‍कृतिक अन्‍तर्यात्रा है ।

पारंपरिक लोकनाट्यों में स्थितियों में प्रभावोत्‍पादकता उत्‍पन्‍न करने के लिए पात्र मंच पर अपनी जगह बदलते रहते हैं । इससे एकरसता भी दूर होती है । अभिनय के दौरान अभिनेता व अभिनेत्री प्राय: उच्‍च स्‍वर में संवाद करते हैं । शायद इसकी वजह दर्शकों तक अपनी आवाज़ सुविधाजनक तरीके से पहुँचानी है । अभिनेता अपने माध्‍यम से भी कुछ न कुछ जोड़ते चलते हैं । जो आशु शैली में जोड़ा जाता है, वह दर्शकों को भाव-विभोर कर देता है, साथ ही, दर्शकों से सीधा संबंध भी बनाने में सक्षम होता है । बीच-बीच में विदूषक भी यही कार्य करते हैं । वे हल्‍के-फुल्‍के ढंग से बड़ी बात कह जाते हैं । इसी बहाने वे व्‍यवस्‍था, समाज, सत्‍ता, प‍रिस्थितियों पर गहरी टिप्‍पणी करते हैं । विदूषक को विभिन्‍न पारंपरिक नाट्यों में अलग-अलग नाम से पुकारते हैं । संवाद की शैली कुछ इस तरह होती है कि राजा ने कोई बात कही, जो जनता के हित में नही है तो विदूषक अचानक उपस्थित होकर जनता का पक्ष ले लेगा और ऐसी बात कहेगा, जिससे हँसी तो छूटे ही, राजा के जन-विरोधी होने की कलई भी खुले ।


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