भांड-पाथर, कश्मीर का पारंपरिक नाट्य है । यह
नृत्य, संगीत और नाट्यकला का अनूठा संगम है । व्यंगय मज़ाक
और नकल उतारने हेतु इसमें हँसने और हँसाने को प्राथमिकता दी गयी है । संगीत के लिए
सुरनाई, नगाड़ा और ढोल इत्यादि का प्रयोग किया जाता है ।
मूलत: भांड कृषक वर्ग के हैं, इसलिए इस नाट्यकला पर
कृषि-संवेदना का गहरा प्रभाव है ।
स्वांग, मूलत: स्वांग में पहले संगीत का विधान रहता था, परन्तु
बाद में गद्य का भी समावेश हुआ । इसमें भावों की कोमलता, रससिद्धि
के साथ-साथ चरित्र का विकास भी होता है । स्वांग को दो शैलियां (रोहतक तथा हाथरस)
उल्लेखनीय हैं । रोहतक शैली में हरियाणवी (बांगरू) भाषा तथा हाथरसी शैली में
ब्रजभाषा की प्रधानता है ।
नौटंकी प्राय: उत्तर प्रदेश से सम्बंधित है । इसकी कानपुर, लखनऊ तथा हाथरस
शैलियां प्रसिद्ध हैं । इसमें प्राय: दोहा, चौबोला, छप्पय, बहर-ए-तबील छंदों का प्रयोग किया जाता है ।
पहले नौटंकी में पुरुष ही स्त्री पात्रों का अभिनय करते थे, अब स्त्रियां भी काफी मात्रा में इसमें भाग लेने लगी हैं । कानपुर की
गुलाब बाई ने इसमें जान डाल दी । उन्होंने नौटंकी के क्षेत्र में नये कीर्तिमान
स्थापित किए ।
रासलीला में कृष्ण की लीलाओं का अभिनय होता है । ऐसे मान्यता
है कि रासलीला सम्बंधी नाटक सर्वप्रथम नंददास द्वारा रचित हुए इसमें गद्य-संवाद, गेय पद और लीला
दृश्य का उचित योग है । इसमें तत्सम के बदले तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग होता
है ।
भवाई, गुजरात और राजस्थान की पारंपरिक
नाट्यशैली है । इसका विशेष स्थान कच्छ-काठियावाड़ माना जाता है । इसमें भुंगल,
तबला, ढोलक, बांसुरी,
पखावज, रबाब, सारंगी,
मंजीरा इत्यादि वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है । भवाई में भक्ति
और रूमान का उद्भुत मेल देखने को मिलता है ।
जात्रा, देवपूजा के निमित्त आयोजित मेलों,
अनुष्ठानों आदि से जुड़े नाट्यगीतों को ‘जात्रा’
कहा जाता है । यह मूल रूप से बंगाल में पला-बढ़ा है । वस्तुत: श्री
चैतन्य के प्रभाव से कृष्ण-जात्रा बहुत लोकप्रिय हो गयी थी । बाद में इसमें
लौकिक प्रेम प्रसंग भी जोड़े गए । इसका प्रारंभिक रूप संगीतपरक रहा है । इसमसेंस
कहीं-कहीं संवादों को भी संयोजित किया गया । दृश्य, स्थान
आदि के बदलाव के बारे में पात्र स्वयं बता देते हैं ।
माच, मध्य प्रदेश का पारंपरिक नाट्य है ।
‘माच’ शब्द मंच और खेल दोनों अर्थों में
इस्तेमाल किया जाता है । माच में पद्य की अधिकता होती है । इसके संवादों को बोल
तथा छंद योजना को वणग कहते हैं । इसकी धुनों को रंगत के नाम से जाना जाता है ।
भाओना, असम के अंकिआ नाट की प्रस्तुति है । इस शैली में असम, बंगाल, उड़ीसा, वृंदावन-मथुरा
आदि की सांस्कृतिक झलक मिलती है । इसका
सूत्रधार दो भाषाओं में अपने को प्रकट करता है- पहले संस्कृत, बाद में ब्रजबोली अथवा असमिया में ।
तमाशा महाराष्ट्र की पारंपरिक नाट्यशैली है । इसके
पूर्ववर्ती रूप गोंधल, जागरण व कीर्तन रहे होंगे । तमाशा लोकनाट्य में नृत्य क्रिया की प्रमुख
प्रतिपादिका स्त्री कलाकार होती है । वह ‘मुरकी’ के नाम से जानी जाती है । नृत्य के माध्यम से शास्त्रीय संगीत, वैद्युतिक गति के पदचाप, विविध मुद्राओं द्वारा सभी
भावनाएं दर्शाई जा सकती हैं ।
दशावतार कोंकण व गोवा क्षेत्र का अत्यंत विकसित नाट्य रूप
है । प्रस्तोता पालन व सृजन के देवता-भगवान विष्णु के दस अवतारों को प्रस्तुत
करते हैं । दस अवतार हैं- मत्स्य, कूर्म, वराह,
नरसिंह, वामन, परशुराम,
राम, कृष्ण (या बलराम), बुद्ध व कल्कि । शैलीगत साजसिंगार से परे दशावतार का प्रदर्शन करने वाले
लकड़ी व पेपरमेशे का मुखौटा पहनते हैं ।
केरल का लोकनाट्य कृष्णाट्टम 17वीं शताब्दी के मध्य कालीकट के
महाराज मनवेदा के शासन के अधीन अस्तित्व में आया । कृष्णाट्टम आठ नाटकों का वृत्त
है, जो क्रमागत रुप में आठ दिन प्रस्तुत किया जाता है ।
नाटक हैं-अवतारम्, कालियमर्दन, रासक्रीड़ा,
कंसवधाम् स्वयंवरम्, वाणयुद्धम्, विविधविधम्, स्वर्गारोहण । वृत्तांत भगवान कृष्ण
को थीम पर आधारित हैं- श्रीकृष्ण जन्म, बाल्यकाल तथा
बुराई पर अच्छाई के विजय को चित्रित करते विविध कार्य ।
केरल के पारंपरिक लोकनाट्य
मुडियेट्टु का उत्सव वृश्चिकम् (नवम्बर-दिसम्बर) मास में मनाया जाता है । यह
प्राय: देवी के सम्मान में केरल के केवल काली मंदिरों में प्रदर्शित किया जाता है
। यह असुर दारिका पर देवी भद्रकाली की विजय को चित्रित करता है । गहरे साज-सिंगार
के आधार पर सात चरित्रों का निरूपण होता है- शिव, नारद,
दारिका, दानवेन्द्र, भद्रकाली,
कूलि, कोइम्बिदार (नंदिकेश्वर) ।
कुटियाट्टम, जो कि केरल का सर्वाधिक प्राचीन पारंपरिक लोक नाट्य रुप है, संस्कृत नाटकों की परंपरा पर आधारित है । इसमें ये चरित्र होते हैं- चाक्यार
या अभिनेता, नांब्यार या वादक तथा नांग्यार या स्त्रीपात्र
। सूत्रधार और विदूषक भभ् कुटियाट्टम् के विशेष पात्र हैं । सिर्फ विदूषक को ही
बोलने की स्वंतत्रता है । हस्तमुद्राओं तथा आंखों के संचलन पर बल देने के कारण
यह नृत्य एवं नाट्य रूप विशिष्ट बन जाता है ।
कर्नाटक का पारंपरिक नाट्य रूप
यक्षगान मिथकीय कथाओं तथा पुराणों पर आधारित है । मुख्य लोकप्रिय कथानक, जो महाभारत से लिये गये हैं, इस प्रकार हैं :
द्रौपदी स्वयंवर, सुभद्रा विवाह, अभिमन्युवध,
कर्ण-अर्जुन युद्ध तथा रामायण के कथानक हैं : वलकुश युद्ध, बालिसुग्रीव युद्ध और पंचवटी ।
तमिलनाडु की पारंपरिक लोकनाट्य
कलाओं में तेरुक्कुत्तु अत्यंत जनप्रिय माना जाता है । इसका सामान्य शाब्दिक
अर्थ है- सड़क पर किया जाने वाला नाट्य । यह मुख्यत: मारियम्मन और द्रोपदी अम्मा
के वार्षिक मंदिर उत्सव के समय प्रस्तुत किया जाता है । इस प्रकार, तेरुक्कुत्तु के माध्यम से संतान की प्राप्ति और अच्छी फसल के लिए
दोनों देवियों की आराधना की जाती है । तेरुक्कुत्तु के विस्तृत विषय-वस्तु के
रुप में मूलत: द्रौपदी के जीवन-चरित्र से सम्बंधित आठ नाटकों का यह चक्र होता है
। काट्टियकारन सूत्रधार की भूमिका निभाते हुए नाटक का परिचय देता है तथा अपने
मसखरेपन से श्रोताओं का मनोरंजन करता है ।
स्रोत--http://ccrtindia.gov.in/hn/theatreforms.php
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