सोमवार, 12 अगस्त 2013

दिल-ए-दास्तान

दिल---दास्तान

दोस्तों,जिंदगी के इस मुहाने पर खडे होकर बहुत बार सोचता हूं कि,

तुमने भी कम दर्द नहीं दिए है मुझे,

बचपन तो बीता ही था,आंतक और डर के साएं में,

उसी से महसूस कर पाता हूं,तमाम आंतक और डर,

जिसने एक रात-भर बिताई हो आंतक के सांए में,

नहीं खोल पाता जुबान कई सदियों तक,

जैसे-तैसे करके पहुंचा था दिल्ली-यूनीवर्सिटी,

पर तुमने भी मुझे ट्रीट किया केवल हरियाणवीं समझ कर ही,

तुम्हारी नजर में था हरियाणवी का मतलब-मुंहफट,मौजमस्ती करने वाला बस,

बस इसी नजरिये तुमने कर दिया सरलीकरण सबका,मेरा भी,

साथ रहते हुए ऐसी उपेक्षाओं से जाना मैंने दलित और स्त्री की पीडा को,

महसूस किया तुम्हारे अपने-अपने पाठों को,चुपचाप समझता-देखता रहा,

क्या तुमने भी कभी महसूस किए मेरे दर्द,मेरी पृष्ठभूमि,मेरा अकेलापन,

शायद नहीं किया होगा,क्योंकि मैं नहीं बना पाया अपने को चलता-फिरता पोस्टर,

अकेले में ही खुरचता रहा अपने जखम,झेलता रहा विस्थापन का दर्प,

निकाल फेंका गया मुझको वहां से जहां पर मैंने जाना जीवन को इतने करीब से,

तब भी अकेला ही चुपचाप चला आया अपनी पीडा की पोटली को घसीटते हुए,

भले ही देख लेना अब भी निशां बाकी होंगे, उस घसीटी गई पोटली के,

कितना मुश्किल था उस समय अपने आत्म-सामान को इधर-उधर से समेटना,

बिखरे कागजों के बीच अपने होने का तलाशना,

वो पन्ने आज भी गवाह है,जिन पर झलके थे आंसू,

उन आंसुओं से मीटते हर्फ, आज भी जेहन में यूं ही सैलाब बने पडे है,

हस्ती मिटती नहीं यूं ही,मिटा दी जाती है-इसी मर्म को समेटता-टटोलता,

अपने ख्यालों में खोया-सा बस लौट आया.

पर लौट नहीं पाया आज तक.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें