सोमवार, 12 अगस्त 2013

सिनेमा ही रहने दीजिए

सिनेमा को सिनेमा ही कहना ठीक है.ये विशेषण वैचारिक मतंव्य-भर है कि-सार्थक सिनेमा,समानांतर-सिनेमा.कलात्मक-सिनेमा.कला-सिनेमा.व्यावसायिक-सिनेमा.लोकप्रिय-सिनेमा इत्यादि इत्यादि.इन्हें विशेषण ही रहने देते तो भी ठीक था,पर विशेषण से संज्ञा में बदल जाना घातक है.सिनेमा के व्यवसायिक पक्ष की उपेक्षा तो मार्क्सवादी-एप्रोच भी नहीं देती.आलोचना करिए.नकारिए मत.उपेक्षा सरकारी-कर्म है,उसके फेर में मत पड़िए.साहित्य के साथ घसीटा-घसीटी करना भी इसके साथ अन्याय ही होगा.

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