सोमवार, 12 अगस्त 2013

अब्दुल-चायवाला

अब्दुल-चायवाला
कैंपस में चाय की तलब लगते ही पहुंच जाते अब्दुल के पास.सैंट्रल लाईबरेरी के पीछवाडे .कर देते आर्डर . जैसे कवि हर दुख पहचान लेता है उसी तरह अब्दुल  टेस्ट . बिना कहे पहुंच जाता चाय लेकर. चाय के साथ बीडी भी  मांग लेते उसी से. सोचता होगा की वैसे तो इतनी बडी जगह पढते है पर बीडी मांग के पीते है ,उसे क्या पता कैसे कैसे जुगाड लगाकर पढने आए है.
  उसे वैसे कम आफत थी जो उसे बार बार बिल्ली की तरह जगह बदलनी पडती. बदलने को तो इतना सामान नहीं था पर उन  ढोबरों को उठा कर कभी इधर रखो, कभी उधर रखो. इसी रख्खा रख्खी में पहुंच गया लॉ फैक्लटी के पास. कुछ दिन की जद्दोजहद के बाद सफाया ही कर दिया. बस रह गये पांडे जी, दुबे जी, शर्मा जी..पता नहीं ये सच में सपाईडर-मैन जाति के है या मौके की नजाकत को देखकर हो गये है. जिधर देखो यहीं है.

   चलता कीया अब्दुल को . छोड गया कुछ उधार...छोड चला वतन तुम्हारे हवाले साथियों की तर्ज पर . और कुछ सवाल...
वो सवाल आज भी दिल्ली -विश्वविद्यालय नॉर्थ-कैंपस में गूंज रहे है.पर हन्नी सिंह की यो यो में कहीं दब से गए है या  साथी लाल-सलाम,लाल-सलाम की पुकार में पैर तले जा बैठे है.

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