सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

नेता भी चाहिएँ और नागरिक भी-प्रवक्ता पुरुषोत्तम अग्रवाल,भाग-1


 ( रेस्पेक्ट इंडिया द्वारा आयोजित 'श्री रामधारी सिंह दिनकर स्मृति व्याख्यान  3 अक्टूबर 2013 को हुआ । ' व्याख्यान पूर्ववत प्रसिद्ध आलोचक प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल {पूर्व सदस्य ,यू.पी.एस.सी.} ने दिया । विषय है - ' नेता भी चाहिय़े और नागरिक भी '
कार्यक्रम मे श्री बी पी सिंह {पूर्व राज्यपाल ,सिक्किम } प्रो डी पी त्रिपाठी {सांसद ,राज्य सभा } एवं श्री मनोज तिवारी {लोकप्रिय गायक और अभिनेता } की गरिमामयी उपस्थिति रही ।तिथि - 03.10.2013 स्थान - मल्टी परपस हॉल ,इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ,मैक्स मुलर मार्ग ,न्यू दिल्ली ,समय : शाम 5 : 30 बजे )                        
                         
मैं एक ऐसे विषय पर बोल रहा हूं,जिससे हम सबका संबंध हैं.हम सब नागरिकों का संबंध हैं.मैंने जैसा आपको कहा कि दिनकर को देखने का अवसर मुझे नहीं मिला,लेकिन एक डाक्यूमैंट्री  बचपन में देखी थी,जिसमें वह(दिनकर) कविता पढ़ते हुए दिखते है-तान-तान फन व्याल के,मैं तुझ पर बांसुरी बजाऊं. तब मेरे बाल मन में यह इच्छा प्रकट हुई थी कि काश ! मैं कभी दिनकर को यूं सामने से कविता पढ़ते हुए देखूं.दिनकर कविता केवल पढ़ नहीं रहे थे.दिनकर पूरी अपनी मुख मुद्रा से,पूरी भंगिमा से,पूरे शरीर विन्यास से कविता को रच रहे थे जैसे,अद्भुत था वो कविता पाठ.दिनकर का एक निबंध जो 9वीं कक्षा में लगा हुआ था.उस निबंध का एक वाक्य मुझे किसी न किसी रूप में प्रभावित करता रहा है.वाक्य इस रूप में है कि-सब नेता बन जाएगें जब, जवाहर लाल कि मोटर कौन चलाएगा,नाश्ता कौन बनाएगा.,इस रूप में वो वाक्य मुझे हांट करता रहा है और इस निबंध का शीर्षक था-नेता नहीं,नागरिक चाहिए.उस निबंध को ही ध्यान में रखते हुए यह आज का शीर्षक-नेता भी चाहिएँ और नागरिक भी ,विषय चुना.

दिनकर ने वह निबंध 1951 या 52 में लिखा था और उसके वो तीन-चार वाक्य आपके सामने पढ़ना चाहता हूं.और फिर हम देखें कि 1951-52 से आज 2013 तक हम कहां पहुंच गए है और दिनकर जी के साथ वरिष्ठ कवि गुप्त जी कि यह पंक्ति याद करें कि-हम क्या थे,क्या हो गए और क्या होंगे.”  इसे विचारने का समय 1912 में भी था और इसे विचारने का समय 2013 में भी है.दिनकर के वाक्य पढ़ता हूं-कल्पना कीजिए,कि देश का एक-एक आदमी जवाहरलाल हो गया ,तब एक-एक आदमी सोचेगा,योजनाएं बनाएगा,बहस करेगा,लेकिन जब इन 35 करोड जवाहरलालों को भोजन कौन बनाएगा,उनके लिए कपड़े कौन धोएगा,मुश्किल यह है कि उनकी मोटरें कौन चलाएगा.जवाहरलाल बनने में और सब ठीक है,कठिनाई सिर्फ इतनी है कि जवाहरलाल कुदाल नहीं चला सकता,हथोडे नहीं उठा सकता और ज्यादातर वह अपनी मोटर भी आप नहीं चलाता है और इसलिए उस निबंध के अंत में उन्होंने लिखा कि दरअसल पूरा निबंध इस बात की वेदना में भरा हुआ है कि इस समय देश में नेता बहुत अधिक है.यह सन् 1951 की बात है.इस देश में हर आदमी नेता बनना चाहता है,नेता दिखना चाहता है.जाहिर है कि इस समय नेता का जैसा अवमूल्यन नहीं हुआ था,लेकिन अब हो चुका है.अब मौहल्ले के सबसे बदमाश व्यक्ति को,कॉलेज के सबसे दुष्ट छात्र को आजकल नेता जी कहते है.संभवतः यह स्थिति 1951-52 में नहीं थी.इसीलिए दिनकर जी ऑब्जरव कर रहे थे अपने आस-पास कि सभी नेता बनने के लिए उत्सुक है और उस निबंध में अंत में वह कहते है—और नेता होता कौन है ? अक्सर वह मनुष्य जो अपने मूल्यों को चरित्र व व्यक्तित्व को व्यवाहरिक रूप देता है.जिन मूल्यों की समाज को जरूरत होती है.नेता वो है,जो समाज के लिए जरूरी उन मूल्यों को अपने आचरण में उतारे और ऐसे नेता तभी उत्पन्न हो सकते हैं,जब कि हम सब बतौर नागरिक के ऐसे मूल्यों को अपने आचरण में उतारें.इसलिए दिनकर जी उस निबंध में स्थापित करते है कि-हमें नेता नहीं,नागरिक चाहिए.


यह बहुत महत्वपूर्ण है मित्रों,कि यह बात एक लेखक,एक कवि,एक साहित्यकार कह रहा हैं.देश का निर्माण आंरभ ही हुआ था.सारे समाज में उत्साह और आशावाद का वातावरण था.जवाहरलाल के नेतृत्व में लोगों कि अगाध आस्था थीं,लेकिन दिनकर जी यह नोट कर रहे थे कि कहीं कुछ गड़बड़ है.कहीं नागरिकता के निर्माण की,नागरिकता की सकंल्पना की समस्याएं उत्पन्न हो रही है.यह बहुत महत्वपूर्ण है.इसी समय हम यह भी याद करे कि एक और कवि ने बरसों बाद यह नोट किया था कि – अंततः हम एक आलोचनात्मक राष्ट्र का निर्माण करने में असफल रहे हैं.यह अज्ञेय का वाक्य है.2013 में यह बात सत्य लगती है कि हम एक आलोचनात्मक,एक उल्लेखवान,एक चिंतित राष्ट्र का निर्माण करने में दूर तक असफल रहे है और भावनाएं इस समय कितनी कोमल है.यही वो कारण है कि हर साल मैं केवल एक वक्तव्य करता हूं और करना चाहता हूं.क्योंकि मैं नहीं जानता कब आप में से कौन, कौन से मेरे वाक्य से आपकी भावना आहत हो जाए और कल कौन आप में से अपनी उस आहत भावना के लिए मेरे शरीर को शत-विक्षत और आहत करने के लिए उत्सुक हो.किसी को कुछ नहीं कह सकते.कब किसकी भावना ,किस  चीज से आहत हो जाए.किसी फिल्म में किसी गाने से,किसी कहानी से,किसी शब्द से,किसी कविता से,किसी के पात्रो के नाम से,कुछ नहीं कहा जा सकता है.भावनाओं की हमारा समाज इतनी चिंता करता है कि मैंने आज तक पिछले कुछ दिनों में किसी को यह शिकायत करते नहीं सुना कि फंला आदमी की फंला बात से मेरा विवेक आहत हो गया.आपने सुना हो तो कृपया मुझे बताएं ?


और यह उस सभ्यता में,कभी-कभी गर्व होता है इनचीजों को याद करते हुए,तो कभी उसी अनुपात मे लज्जा भी आती है कि उस सभ्यता में जब वेद में यह कथा आती है कि-जब देवता चले गए धरती छोड़ कर और एक-एक करके सभी बुजुर्ग और ऋषि भी मरने लगे तो देवताओं से पूछा गया कि धरती के नरों ने कि अब जब आप चले ही गए हो तो ऋषि भी अब धीरे-धीरे जा रहे है.हमारा नया ऋषि कौन होगा ? ऋषि यानि देखने वाला.हमारे लिए रास्ता कौन देखेगा ? और कौन दिखाएगा ? तो  उत्तर देता है कि देवताओं और ऋषियों के जाने के बाद तुम्हारा मार्गदर्शक तप होगा.यह आज से ढाई हजार साल पहले की बात है.उस समाज में,उस परंपरा में स्थिति यह कहती है कि तप और विवेक रचनात्मक अभिव्यक्ति कब किस तरफ से खतरे में आ जाए.इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं है.मैं तो क्या ,कोई प्रोफेशनल अस्ट्रालाजर भी इस बारे में नहीं बता सकता .बड़े से बड़े ज्योतिषी से जाकर पूछ लीजिए जो यह बताने में सक्ष्म हो कि अगले प्रधानमंत्री श्री अलां होंगे या फंला होंगे.वह यह नहीं बता सकेगा कि किस बात से कब किसकी भावना आहत हो जाए.


इस कदर भावुक समाज की रचना हम लोगों ने की है और इसलिए अज्ञेय जी का यह कथन-अंततः हम आलोचनात्मक राष्ट्र के निर्माण में असफल रहे है.दिनकर की यह वेदना की नेता बहुत है लेकिन नागरिक नहीं है.इसीलिए मित्रों,इस स्थिति पर पूरी गहराई,पूरी गंभीरता के साथ विचार करना जरूरी है.आज की स्थिति मुझे याद दिलाती है एक किताब की.Revolution of Nihilism-warning to the west(1939)-author-Rausching Herman.ये अगस्त 1939 में लिखी गई थी.तारीख पर ध्यान दीजिए.यह इसीलिए कह रहा हूं कि अगस्त1939 में यह किताब छपी थी और इसका लेखक नासी पार्टी का भूतपूर्व सदस्य था.1937 तक नासी पार्टी में था और अगस्त 1939 में उसने यह किताब प्रकाशित की थी.और सितंबर 1939 में हिटलर ने हमला कर दिया था.Nihilism-विनाशवाद,हर तरफ विखंडन का दौर.किसी चीज में कोई आस्था नहीं.किसी संस्था,किसी मर्यादा और किसी परंपरा की कोई परवाह नहीं.जो हम कह रहे है,वही सही है.यह है Nihilism का तात्पर्य.यह पुस्तक आंरभ होती है अद्भुत वाक्य से आंरभ होती है- "हमारे समय में लालच है,इस बात का ,कि हम असहनीय को भी नाकाबिले बर्दाशत को भी बर्दाशत कर ले."


हालत कहीं और बदतर न हो जाए.सवाल यह है कि नाकाबिले बर्दाशत को बेहतर या बदतर में कौन-सी चीजें बदल सकती है.क्या करे ?

लेकिन इस सवाल का जवाब देने से पहले एक बहुत ही नाजुक सवाल से टकराना होगा कि  अगर चीजों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया तो अंततः हालात किस तरह के होंगे ? अगर आप कुछ न करे,तो यह तो सही है ही कि जो अपने को तटस्थ कहते है,समय उनका अपराध लिखेगा.हमारे कवि हमें बहुत पहले चेतावनी दे गए है.लेकिन वो अपराध लिखा जाएगा या न लिखा जाए.लेकिन हालात जिस तरह के है,उनको अगर उनके हाल पर छोड़ दिया जाए तो,वे किस तरफ जाएंगे.ये चेतावनी लेखक  जर्मनी को,सारे यूरोप को दे रहा था.ये चेतावनी जितनी 1939 में थी,उससे कम सार्थक 2013 में नहीं है.केवल भारत के लिए नहीं,बल्कि सारी दुनिया के लिए जिस तरह की स्थितियां बन रही है.जिस तरह की चीजें हो रही है.अगर वो अपने आंतरिक तट से जैसी की तैसी चलती रही तो हम कहां पहुचेंगे,इस पर सोचना चाहिए.
(जारी है.....

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