सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

सुनील दत्त की एक कविता

आज मैं रेल में बैठा हूं,
बार-बार उसकी सींटी बजती है,
तुम्हे मेरी आवाज सुनाई ना दे,
उसमें मेरा क्या कसूर है ?
अरे मक्का-मदीना जाते है  कुछ लोग,
वहां से मिटा दी गई क्रांति,
और लगा दी गई दीवार,
क्योंकि हम उन मोहम्मद को दीवार में चुनते थे,
पर करे क्या वहाबियों ने कितनी मोटी दीवार लगा दी,
हमारा कसूर क्या हैं ?
कसूर है,
सुनते है हम,
अच्छों को भी और बुरों को भी,
पर ,
इतना ना चल पाता हमको पता,
दागदार है ज्यादा, अपने थोड़े-से,
जिनको हमने नेतृत्व दिया,
वहीं पाएं अपराधी,
अब, हे दुनिया वालों,
आपस में बात करो,
हम-तुम एक नहीं है साथी.
हा,हा,हा,हा,हा,हा,
होह,होह,होह,होह,होह,
ये एक प्रेत बोल रहा है,
बस!,बस !,बस.!

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