मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013

मैत्रीय पुष्पा को पाठक का खुला पत्र (पाखी-प्रकरण)


छिनाल-प्रकरण से लेकर ताजे विवाद,जो कि पाखी के मंच पर आपकी उपस्थिति को लेकर खडा हुआ है.जिस के संबंध में आपने अपना स्पष्टीकरण दिया तथा विरोध भी दर्ज किया है.एक पाठक होने के नाते मैंने आपका वह वक्तव्य ध्यान से पढा.पढने पर कुछ शंकाएं और अनकही बाते अनायास ही उभरने लगी.सोचा आपसे ही सांझा करना ज्यादा सही होगा.पहले बात करता हूं आपके कहे कि,जो आपने कहा-"मैंने पाखी पत्रिका के टॉक ऑन टेवल कार्यक्रम में जो भाग लिया अपनी समझ से लिया ,किसी के दबाब में नहीं।और बात चीत के दरमियान पाया कि विभूति साहब अपने द्वारा मांगी गयी मांफी पर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। मुझे हंसी आगई।लेकिन जो भी है यह तो मानना पड़ेगा कि उस विवाद में वे आनंद नहीं ले पाए और तब के बाद किसी माई के लाल की हिम्मत नहीं हुई कि स्त्रियों के लिए उन शब्दों का प्रयोग करे जिन पर हम आपत्ति जता रहे थे।रही बात जुलाई की पाखी में छपे साक्षात्कार में मेरी उपस्थिति की भर्त्सना की , तो समझ लीजिये कि इन बातों को सुनने और अपनी राह चलते जाने की मुझे आदत है।आपको बता दूं कि मैं बचपन से ही निडर रही हूँ।इस लिए ही यहाँ भी नहीं डरती। न विभूति न . राय से ,न राजेन्द्र यादव से और न उन लोगों से जो मेरे पाखी प्रकरण को लेकर आग बबूला होरहे हैं। मुझे किसी से न पद लेना ,न प्रमोशन।न पुरस्कार ,न पहचान का लालच है।आप बेशक अपने बीच से मुझे ख़ारिज कर दें क्योंकि मैं जैसी हूँ तो हूँ और मैं ऐसी ही हूँ , जिसका चीजों को तोड़ने से ज्यादा बदलने में विश्वास है। खिसियाकर वे मुझ पर हजार प्रहार करें और करेंगे ही , मैं जानती थी क्योंकि हम अपने मकसद में कामयाब हुए हैं।मेरी तस्वीर आपको अश्लील लग रही है मगर मेरा मकसद अश्लील हरगिज न था और न है।"
आप ने कार्यक्रम में भाग लेने का फैसला अपनी समझ से लिया,क्या यह समझ व्यक्तिक थी या इसके भी कई आयाम है.दूसरा "विभूति साहब"-शब्द के इस्तेमाल के पीछे की विचार-प्रक्रिया समझ से बाहर की है, क्योंकि इतना मनोविज्ञान तो समझ आता ही है कि विरोधी विचार के बजाय विरोधी व्यवहार और बयानबाजी करने वाले के लिए साहब शब्द मुंह से निकलेगा ही नहीं.उसके लिए खासकर जो सत्ता में बैठकर स्त्री को महज वस्तु की तरह ट्रीट करता हो.आपके कहे में साफ झलकता है कि कोतवाल "साहब"(?) अपने कहे पर शर्मिंदा बिल्कुल नहीं थे,नहीं तो वे यूं अपनी पीठ नहीं थपथपा रहे होते.हां यह जरुर है कि उस विरोध के बाद किसी में यह हिम्मत नहीं होगी कि खुले मंच से स्त्री के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करे.यह उस आंदोलन की जीत कही जाएगी,पर समय के साथ-साथ क्या विरोध अपनी धार खोता चला जाता है.अगर नहीं, तो आपका यूं बचकाना जवाब देना,हमारे होसले को परस्त कर देने में अहम भूमिका निभा सकता है.व्यक्ति का अपना निर्णय भी होता है,पर जब आप आंदोलन को लीड कर रहे होते हो तो आप का पर्सनल कुछ नहीं रहता.आपकी बातों में प्रतिक्रिया के साथ गुस्सा भी झलकता है,जो कि अपनी जगह वाजिब है.क्योंकि जिम्मेदारी एकतरफा नहीं होती.आप का पक्ष जाने बगैर हमारा यूं तिलमिला जाना आपको भी अखरा होगा.
पर कुछ प्रतिरोध क्षणिक भी होते है,जो आपसी संवाद से सुलझ भी जाते है.यह मामला संवाद-हीनता की स्थिति में पहुंचना हम सब की हताशा-कमजोरपन को भी दरशाता है.तोडने वाली बात पर भी एक बात कहने का मन है कि तोडने वाले तो विश्वास तोड कर भी ढोल पीटते है,उम्मीद है आपने विश्वास नहीं तोडा होगा.बने बनाएं ढांचे भले ही तोडे हो.बाकी आप ही के शब्दों में -‘स्त्रील की सच्चाेई से पुरुषवर्चस्व डरता है' अगर में यह बात कहती हूँ तो ऐसा ही लगेगा जैसे कह रही हूँ कि राजा-प्रजा से डरता है। यह बात झूठ भी नहीं। ( रचनाकार: मैत्रेयी पुष्पा का आलेख ‘स्त्रीह का पहचान पत्र' )http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_21.html#ixzz2YjgbnxrR)
उम्मीद है आपने भी पुरुषवर्चस्व वाले कोतवाल साहब(?) के अंदर डर पैदा किया होगा.
आप के अनुसार--- "कि साहित्य जगत में ईमानदारी से लिखने के लिए हिम्मत और हौसला चाहिए..क्योंकि सच लिखना ख़तरे से खाली नहीं है..समाचार चैनल न्यूज एक्सप्रेस के मंथन कार्यक्रम में पत्रकारों से बातचीत करते हुए मैत्रेयी पुष्पा ने बेबाक अंदाज में कहा कि साहित्य जगत में भी सियासत हावी है..मसलन किस पुस्तक को पुरस्कार मिलना चाहिए ..साहित्य कैसा लिखा जाए..किस लेखक को साहित्यकार माना जाए और किसको नहीं..ये सब साहित्य संसार में फैली राजनीति से तय होता है।उन्होंने समाज और साहित्य की राजनीति का सबसे बड़ा शिकार महिलाओं को बताया और कहा कि जिस प्रकार महिला को घर से लेकर पूरे समाज में पुरुष के बताये रास्ते पर चलना पड़ता है उसी तरह साहित्य में भी पुरुष लेखक खुद को साहित्य का सबसे बड़ा झंडाबरदार समझते हैं। वो कहती हैं कि साहित्य में महिलाओं का चरित्र किस तरह दर्शाया जाए, साहित्य के सिपहसलारों ने इसके भी नियम-कायदे तय किए हुए हैं। साहित्य संसार में महिलाओं की हालत दलितों जैसी है। साहित्य जगत में सक्रिय जो लोग तरक्कीपसंद होने का दम भरते हैं दरअसल व्यवहार में वो वैसे होते नहीं हैं। बातचीत के दौरान उन्होंने लोकाचार जैसी परंपराओं को भी महिलाओं के खिलाफ साजिश करार देते हुए कहा कि इन लोकाचारों के जरिए महिलाओं को घरों की चहारदीवारी के अंदर कैद रखने की राजनीति की जाती रही है।(समाचार मीडिया.कॉम)"
उम्मीद करता हूं कि लोकाचार के खिलाफ आप की बुलंद आवाज, फिर से इन मठाधिशों की नींद भी उडा देगी.इस जगत में ईमानदारी से बोलने के लिए हिम्मत और हौसला चाहिए,जिसकी हम आप से निरंतर उम्मीद करते रहे है,रहेंगे भी.कोई गलती हो गई हो तो पाठक की प्रतिक्रिया समझ कर दरकिनार कर दीजिएगा.

आपका पाठक
नवीन रमन

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