एक बार अक्षर अपने दोस्त के साथ उसके स्कूल में चला गया ।वहाँ जाने पर देखा मजमा जमा हुवा था ।स्टेज सजाई जा रही थी ।मान्य-गणमान्य स्टेज पर सज धज कर विराजमान थे ।प्रतियोगिता की सारी तैयारियां हो चुकी थी ।विषय बड़े -बड़े अक्षरों में टांग दिया गया था ।कई स्कूलों के बच्चें अपने निबन्धों को रट रहे थे ।सबके चहरों पर डर और जितने की आश तो थी ही पसीने की बुँदे भी रिस रही थी ।एक तरफ टीचर अपना-अपना राग-विराग अलाप रहे थे ।दर्शक के रूप में बच्चों का बड़ा जमावड़ा जबरदस्ती बैठा रखा था ।दहेज एक अभिशाप है-विषय पर एक से एक झनाटे दार ललित निबन्ध पढ़ा गया ।बीच-बीच में तालियों की गूंज पूरे स्कूल में मलेरिये के छिडकाव की तरह फ़ैल गयी ।विजेता घोषित कर दिया गया ।बारी -बारी से लोग-बाग़ भी ज्ञान देने लगे ।वह ऐसा मोका क्यों जाने देता ।स्टेज पर जाते ही उसने कहा कि क्या कोई इस सभा में ऐसा टीचर है जिसने शादी में कुछ न लिया हो ।उस से पहले सारा माहोल चुप हो गया ।वह भी चुपके से कह कर निकल लिया ।जाते वक्त उससे एक ने परिचय माँगा ।खेती बाड़ी करता हूँ कह कर निकल लिया ।चाल-ढाल और चेहरे -मोहरे से कभी पढने-लिखने वाला लगा नहीं ।इसलिए यहीं बताता है अक्सर ।
बाद में पता चला स्कूल प्रशासन उसे तलाश रहा था जो उस जैसे बदतमीज आदमी को वहाँ सभ्य समाज में लेकर आया था ।उसकी बात सुनकर उसे यही लगा कि उसने दिल्ली विश्व-विद्यालय की नाक बचा ली ।वरना लोग कहते बेकार यूनिवर्सिटी है ।तमीज तक नहीं सिखाती कि कहाँ पर क्या कहना चाहिए और क्या नहीं कहना चाहिए ।हो सकता था बत्रा जी इस बात का संज्ञान लेते हुए विभाग पर जांच बिठवा देते ।विभाग को खाम-खां लेने-देने पड़ जाते ।
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