#सन्1995
11 वीं में था,जब पहली बार डाक कावड़ लाया था ।दौड़ना तब मेरा जूनून हुआ करता था ।हर रोज कम से 20 km की दौड़ और बाद में 100 मीटर के फर्राटे या सपाटे लगाकर बदन खुलता था मजा आ जाता था ।ये उन दिनों की बात है जब दिमाग नहीं खुला था,वैसे खुला अब भी नहीं है बस चल पड़ा है ।और आप तो जानते ही है कि जिसका दिमाग चल पड़ता है उससे लोग बाग़ खार खाएं ही रहते है ।बहरहाल भक्त तब नहीं था । 10 बार के करीब डाक कावड़ लाया,जिसमे 7 से लेकर 15 जने तक हरिद्वार से रिले रेस की तरह भागते है । हमारी कावड़ सबसे कम समय में कावड़ लाने के प्रसिद्ध थी । सबसे कम समय था 5 घण्टे 58 मिनट । समालखा से हरिद्वार की दूरी लगभग 170 km बताई जाती थी । पहली बार का समय 14 घण्टे से कुछ मिनट ज्यादा ही था ।समय हर बार घटता गया और जूनून हर बार बढ़ता गया । बम बम भोले बोलना तब भी चुतियापा लगता था और गंगाजल चढ़ाना मूर्खता ।
उस समय मैं अपनी टीम का अच्छा धावक माना जाता था । ये मेरी जिंदगी में बाहर से आई पहली ख़ुशी थी,क्योंकि उससे पहले मुझे इतना मान और सम्मान कभी नहीं मिला था न घर पर और न बाहर ही । मैं तो फिर इसी में जीने लगा ।हर रोज सुबह 4 बजे से दौड़ना शुरू और शाम को तपते रेत पर दौड़ता । दूध और चना हर रोज की खुराक बन गयी ।
मई,जून और जुलाई के तीन महीने जो सबसे गर्म दिन होते है इनमें रेस लगाने का मजा है वो किसी महीनों में नहीं ।इन महीनों में पैर थिरकने लगते है दौड़ने के लिए ।
उन दिनों चांदी के मेडल भी मिले जो बाद में छल्ले बनकर प्रेमिकाओं की उँगलियों में खूब जँचे ।
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