"समर्पण
संस्कृत भाषा के रहस्यमयी शब्द
ऋ
और इस उपन्यास के अंतिम पन्ने के नाम"
मौत की किताब उपन्यास की शुरुवात में समर्पण ही सोचने पर मजबूर कर देता है । हिंदी के जिस स्वर ऋ को हम सब ऋ से ऋषि के रूप जानते आये थे । उसमें कुछ रहस्य जैसा भी है,यह बात न तो पता थी और न किसी ने बताई । जिज्ञासा जागी आखिर इसमें रहस्य जैसा क्या है ?
रहस्य हमेशा से इंसान को अपनी और आकर्षित करते रहे है। जैसे इस उपन्यास का नाम भी एक तरह के रहस्य जैसा ही है। मौत की किताब-ऐसा इसमें क्या होगा ? क्या मौत का जाना जा सकता है ? इसी से जुड़ा दूसरा सवाल क्या जीवन को जाना जा सकता है ? या जो हम यह सोचते है कि हमनें जीवन को जान लिया है । अनुभव क्या काफी है जीवन को जानने के लिए ?
लेखक इस रहस्य की तरफ लेकर चलते है और लिखते है-"अक्सर मैं सच्चे दिल से खुद से ही यह सवाल करता हूँ कि मैं आख़िर लिखता क्यों हूँ ? लिखना और ख़राशें डालना,तकरीबन एक जैसी बातें हैं । संस्कृत की ऋ धातु पर ध्यान दें तो बात और साफ हो जाती है ।पत्थर पर ख़राशें डालना,उसे उधेड़ना,तकलीफ पहुंचाना ।लिखना यही सब तो है। ऋ धातु के अनुसार,लिखना वः है कि लेखक और उसकी रचना में कोई दूई या दूरी बाकी न रहे । ऋ आग के जलने की वैसी आवाज़ है जो लिखने की तमाम गंदगियों को जलाकर राख कर देती है ।इसलिए मुझे अपने जुर्म का अहसास है । मैं जो लिखता हूँ, वह पत्थर पर ख़राशें डालने के बराबर है । मुझे नहीं मालूम कि पत्थर को यक़ीनन कोई तकलीफ़ पहुंचती भी है या नहीं,मगर मेरे नाख़ून तो उखड़-उखड़ जाते हैं ।"
"लिखना एक तकलीफ़देह प्रोसेस है । लिखकर आप दूसरों को तकलीफ़ पहुंचाते हैं और ख़ुद आपके अंदर भी एक गहरा जख़्म उग आता है ।"
#मौत_की_किताब
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