बुधवार, 6 जनवरी 2016

मौत की किताब

"समर्पण

संस्कृत भाषा के रहस्यमयी शब्द

और इस उपन्यास के अंतिम पन्ने के नाम"

मौत की किताब उपन्यास की शुरुवात में समर्पण ही सोचने पर मजबूर कर देता है । हिंदी के जिस स्वर ऋ को हम सब ऋ से ऋषि के रूप जानते आये थे । उसमें कुछ रहस्य जैसा भी है,यह बात न तो पता थी और न किसी ने बताई । जिज्ञासा जागी आखिर इसमें रहस्य जैसा क्या है ?

रहस्य हमेशा से इंसान को अपनी और आकर्षित करते रहे है। जैसे इस उपन्यास का नाम भी एक तरह के रहस्य जैसा ही है। मौत की किताब-ऐसा इसमें क्या होगा ? क्या मौत का जाना जा सकता है ? इसी से जुड़ा दूसरा सवाल क्या जीवन को जाना जा सकता है ? या जो हम यह सोचते है कि हमनें जीवन को जान लिया है । अनुभव क्या काफी है जीवन को जानने के लिए ?

लेखक इस रहस्य की तरफ लेकर चलते है और लिखते है-"अक्सर मैं सच्चे दिल से खुद से ही यह सवाल करता हूँ कि मैं आख़िर लिखता क्यों हूँ ? लिखना और ख़राशें डालना,तकरीबन एक जैसी बातें हैं । संस्कृत की ऋ धातु पर ध्यान दें तो बात और साफ हो जाती है ।पत्थर पर ख़राशें डालना,उसे उधेड़ना,तकलीफ पहुंचाना ।लिखना यही सब तो है। ऋ धातु के अनुसार,लिखना वः है कि लेखक और उसकी रचना में कोई दूई या दूरी बाकी न रहे । ऋ आग के जलने की वैसी आवाज़ है जो लिखने की तमाम गंदगियों को जलाकर राख कर देती है ।इसलिए मुझे अपने जुर्म का अहसास है । मैं जो लिखता हूँ, वह पत्थर पर ख़राशें डालने के बराबर है । मुझे नहीं मालूम कि पत्थर को यक़ीनन कोई तकलीफ़ पहुंचती भी है या नहीं,मगर मेरे नाख़ून तो उखड़-उखड़ जाते हैं ।"

"लिखना एक तकलीफ़देह प्रोसेस है । लिखकर आप दूसरों को तकलीफ़ पहुंचाते हैं और ख़ुद आपके अंदर भी एक गहरा जख़्म उग आता है ।"

#मौत_की_किताब

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