बोलियाँ भाषा के कान भर रही थी
अनुभव से ज्यादा वजन बढ़ाये हुए हिंदी के प्रोफेसर उस समय सोफे की गोद में आराम फरमा रहे थे। कुछ प्यारी बच्चियां इधर उधर चहल रही थी । कुछ प्यारे बच्चे लाल के जूते पर उँगलियाँ स्पर्श करा रहे थे। बोलियाँ बोखलाई हुई इधर-उधर मटकती फिर रही थी ।एक बोली ने जरूरत से ज्यादा मेकअप किया हुआ था जिसे देखकर रीतिकालीन शिक्षक से टिप्पणी किये बगैर नहीं रहा गया और उसने अपना ऐतिहासिक छोटा वक्तव्य देते हुए कहा- "बिल्कुल तमाशा दिखाने वाली की बन्दरिया लग रही हो ।" इतना कहने भर की देर थी कि उन उपजाऊ शिक्षक के अनुयायी ने तुरन्त इस बिम्ब को अपनी डायरी में तारीख के साथ दर्ज कर लिया ।
वक्तव्य की गूँज ने सूर्य की किरणों की तरह उस हाल को जगमग कर दिया । जिस पर टिप्पणी हुई बस उसकी ऑंखें शर्म झुक गयी। उसके बगल से आई बोली के चेहरे का रंग ख़ुशी से लाल हो गया।
भाषा दूर से सब कुछ भांप रहा था। जी यहां भाषा व्याकरण के नियमों को तोड़कर खुद को स्त्रीलिंग के दायरे से बाहर मानकर पुलिंग जैसा व्यवहार कर रहा था। बोलियाँ आपस में फुसफुसा रही थी । जब जिस बोली का दाव लगता वह गर्दन झुका कर भाषा के सामने अपनी दिक्कते गिनाने लगती और ऊँगली से इशारा करके दूसरी बोली बाबत भाषा के कान भरने लग जाती ।
कान भराई की सरकारी रस्म पर करीब 3 करोड़ का खर्च हुआ । कन्धों पर सबके झोलों से साफ लग रहा था कि भारत के खादी उद्योग का जीडीपी बढ़ गया होगा ।
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