पहले पहल जब लिखना शुरू किया तो लगा कि लिखने का पहला और अंतिम लक्ष्य सच ही होना चाहिए। सच के सिवाय कुछ नी होना चाहिए। लिखते-लिखते जाना कि सच और झूठ कुछ नहीं होता केवल भ्रम होता है या हमारा खुद का और हमारी सोच-अनुभव का दायरा होता है। यह दायरा छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। एकतरफा भी हो सकता है और बहुतरफा भी। लिखने और पढ़ने के बीच में बहुत कुछ घटता-बढ़ता रहता है। ठीक उसी तरह हमारे लिखे को पढ़ने वाले के साथ भी घटता-बढ़ता होगा। जिससे हम लगभग अनजान होते हैं। पर पढ़ने वाला हमें जानने का भ्रम पाले हुए होता है या कयास लगाए हुए होता है।
यह सब जितना यथार्थ में घटता-बढ़ता हुआ जान पड़ता है, उतना ही आभासीय भी होता चला जाता है।
हम अपने आसपास कुछ होते हुए देखते हैं और जो हमें उस समय दिख रहा होता है। क्या सच में उसी तरह घट रहा होता है या हम ुसे उस तरह घटता हुआ देख रहे होते हैं। अगर वह घटा हुआ निरपेक्ष होता तो मौजूद सभी को एक जैसा घटता हुआ दिख रहा होता पर होता इसका एकदम उलट है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि उस घटना को देखने की सबकी अपनी एक खास जगह हो या देखने वाली की अपनी एक खास मानसिक स्थिति हो।
दरअसल समय के साथ अब मैं सच की दावेदारी करने से कतराने लगा हूं। वर्तमान की घटना और अतीत का अनुभव आपस में इतने गुथमगुथा हो जाते हैं कि उसमें से सच को निचोड़ पाना लगभग असंभव हो जाता है। इस असंभव को संभव बनाने की हर कोशिश मुझे व्यर्थ जान पड़ती है। इस तरह की भनक मुझे उस समय सबसे ज्यादा लगी जब ईश्वर है या नहीं है कि बहस में उलझने लगा। मैं होने का दावा भी नहीं कर सकता था और नहीं होने का भी। दोनों के लिए मेरे पास अपना व्यक्तिगत कोई अनुभव नहीं था। सच का दावा तो किस आधार पर करता? दावा ही दरअसल हमें रूढ़ बनाता चलता है। हम जितने अधिक दावे करने लगते हैं उतने अधिक जकड़ते चले जाते हैं। जबकि चेतना की तरलता ही हमें ठोस रूप प्रदान करने का आभास देती है। उसे ही हम सच मानने लगते हैं और दावेदारी करने लगते हैं।
सच और झूठ क्या है? यह ही नहीं जानता मैं। इसलिए बस लिखता चला जाता हूं। लिखना पढ़ने के लिए ही होता है। हम सब लिखते हैं ताकि उसे पढ़ा जा सके।
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