रविवार, 8 मई 2016

कमर में लोच



जितनी उम्मीद और तुज़रबे से
मैंने उसकी पतली कमर में डाला था हाथ
मेरे तुज़रबे और उम्मीद से उलट
निकली थी उसकी कमर
उसकी कमर में लोच नहीं थी
बल्कि वह हद से ज्यादा सख्त थी
बाकी शरीर से
इतनी सख्त तो किसी की रीढ़ भी नहीं होती होगी
मैंने झट से अपना हाथ हटा लिया
इतनी कठोरता की मुझे भी आदत नहीं थी
उसके नर्म चेहरे पर बाल यूं ही उड़ रहे थे
और सुर्ख होठ अधखुले थे
मैंने धूप में जब अपनी शक्ल देखी तो
मेरे चेहरे के होश उड़े हुए थे
मेरा हाथ उस कठोरता से भारी हो गया था
और शरीर सुन्न पड़ता जा रहा था
मेरे कदम ऐसा लगा
लड़खड़ाने लगे थे
मुझे यही बताया भी गया था कि
लड़कियों की कमर में होती है
गज़ब की लोच
वो सारा पुराना ज्ञान
और मेरा अनुभव
दोनों ढूंढने पर भी नहीं मिल रहे थे
यह सब अज़ीब लग रहा था
लग नहीं रहा था
बल्कि ऐसा हो रहा था
उसके दोनों झूलते हाथ
मेरी ज्ञान और अनुभव की धरती को धकेल रहे थे
उसके हाथों को कोमल और नरम होना चाहिए
यह भ्रम भी धराशाई हो रहा था
ऐसा लगा इतिहास का यह पहला दिन है जब
कुछ टूट रहा है बिखर रहा है
अनुभव और ज्ञान के चिथड़े जगह-जगह
छितराए हुए हैं
मैं दुआ करने लगा अपने जिंदा बच जाने की
भूल गया मैं उस क्षण अपने नास्तिक होने की बात
यह कोई स्वपन्न नहीं था
न ही कोई फैंटेसी थी
बस मेरी फटी पड़ी थी।।

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