हिन्दी साहित्य जगत की दुनिया के परस्पर जो हिन्दी का नया ‘स्पेस’ बन रहा है ।
उसको अनदेखा नहीं किया जा सकता । इस पूरी प्रक्रिया का विश्लेषण एवं मूल्याकंन
किया जाना चाहिए । हिन्दी साहित्य जगत की दुनिया और हिन्दी का बनता नया स्पेस ये दोनों
दो अलग-अलग दुनिया बना दी गई हैं । क्योंकि हिन्दी साहित्य जगत में प्रवेश की एक
खास प्रक्रिया है और जहां किसी भी नए लेखक
का पैर जमा पाना संभव नहीं है । जबकि हिन्दी के बनते नए ‘स्पेस’ में किसी आलोचक,प्रकाशक आदि की पीठ नहीं सहलानी पड़ती ।यहां पाठक-लेखक सब
स्वतंत्र है । और दोनों के बीच संवाद,नौक-झौक सब चलती है ।यहां कोई दादा-पौते का
संबंध निभाने नहीं आते,बल्कि हर कोई अपनी बात कहने के लिए ज्यादा स्वतंत्र है ।इस
नए स्पेस में पाठक और लेखक दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका है । जबकि हिन्दी साहित्य
जगत में पाठक भी गढ़े जाते है ।समीक्षाएं लिखवाई जाती है,शोध करवाएं जाते
है,प्रशंसा प्रायोजित-आयोजित होती है ।प्रकाशक के आगे कौन दरी बिछाता है,इसका सबको
पता ही है ।लाइब्रेरी में कितना कूड़ा भरा हुआ,इस पर शोध होना बाकी है ।
बात जहां तक लप्रेक की है,यह इस बनते-बिगड़ते नए स्पेस की ही देन है । जिसमें
लेखक और पाठक के बीच के दूरी स्पाट और एकहरी नहीं हैं । दोनों ही एक दूसरे के साथ
घुल मिलकर नई संरचनाओं के बीच अपने होने के अहसास के क्षणों को जी रहे हैं । यह
जीना आत्ममुग्धता के साथ जीना नहीं है,बल्कि एक सार्थक हस्तक्षेप के साथ अपनी मौजूदगी
का दखल है ।एक ऐसे समय में जब प्रेम को सतही और थोथा करार दिया जाने लगा हो,तब ये
अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ प्रेम के क्षणों को मुखर करता है ।
प्रेम का आख्यान हमेशा अपने विराट रूप में अभिव्यक्त हुआ है । उस आख्यान के
बरक्स लप्रेक जिंदगी की सामाजिक,राजनीतिक,धार्मिक,आर्थिक एवं सांस्कृतिक आदि
तुरंता प्रतिक्रियाओं के बीच अपने जीवन में होने वाली हलचलों को दर्ज करता है ।शहर
के गुणा-गणित के बीच प्रेम के लिए स्पेस की तलाश शहर में रहने वाला हर प्रेमी
जानता है । प्रेम केवल खुली प्रकृति और बंद कमरों के बीच ही नहीं पनपता,बल्कि वह
हर छोटी से छोटी जगह पर अपने लिए स्पेस का निर्माण भी करता है ।इसी को इश्क में
शहर होना कहा जा सकता है ।इस इश्क में सेक्स और रूप-सौंदर्य के सौंदर्यबोध से अलग
एक ठोस किस्म का आम जीवन है,जो शहर और कस्बे के युवा को अपना जान पड़ता है ।जो
कहीं से भी फिल्मी और किताबी नहीं है ।न ही इसमें शहर को खलनायक बनाने की कोशिश
होती है । इश्क और शहर दोनों में डूब कर
जीना इसका खास तेवर है । क्रांति और भ्रांति के बीच इश्क मूलतः जीवन के
उलझे हुए रेशे को खंगालने का काम करता है,जिंदगी और शहर दोनों में ।
लप्रेक दरअसल धड़कनों को शब्दों के जरिए अभिव्यक्त करने का माध्यम है । इन
धड़कनों में शहर भी है,कस्बा भी है और गाम भी है । नहीं है तो वो है बेगानापन
।अपनेपन के रस में भीगे रेसों को हर एक छोटी कथा में पिरोया गया है । कहानी छोटी
है पर अधूरी नहीं है ।
हिन्दी में प्रेमचंद,रेणु की परंपरा के (जैसा तमगा उन्होंने खुद के लिए लगाया)
प्रतिष्ठित लेखक भगवानदास मोरवाल जी ने लप्रेक को लेकर जो चिंता और सवाल खड़े करने
का प्रयास किया हैं ।दरअसल उसमें बहस की गुंजाइश कम ही है ।क्योंकि उनके पूरे लेख
में हिन्दी और उसके पाठक वर्ग की चिंता कम है ।बल्कि एक तथाकथित प्रतिष्ठित लेखकों
और अपने खुद के बाजार को लेकर चिंता अधिक
है ।जो कि स्वाभाविक भी है ।दूसरा उन्होंने मूल्याकंन करते वक्त जल्दबाजी के
साथ-साथ नए पाठक वर्ग और संचार माध्यमों के प्रति अपनी कमजोर समझ को भी उजागर कर
दिया है ।हिन्दी के बनते नए स्पेस के प्रति उनकी नजर रूढ़ नजरिया ही पेश करती है
।उनका विरोध बहुत कुछ खाप की तरह है,जो परंपरा के नाम पर विरोध करना चाहते है और
रूढ़ को बचाने के चक्कर में फब्तियां कसने का मौका भी नहीं छोड़ते है । उनकी भड़ास
राजकमल प्रकाशन के प्रति ज्यादा लग रही है,बजाय लप्रेक के ।लप्रेक तो आड़ भर है ।
इस पूरी बहस में आम पाठक और हिन्दी के शोधार्थियों के अंतर को भी समझना होगा ।
लप्रेक से हिन्दी का तो भला होगा,पर हिन्दी साहित्य के नाम पर जड़ जमा चुके लेखकों
का शायद नुकसान होना स्वाभाविक है ।
हम हिन्दी वाले लेखक बनाम बाहरी (बिहारी)
हम और वे की गूंज पूरे लेखन में साफ झलकती है ।मानो हिन्दी में कुछ भी करने या
लिखने का सारा अधिकार तथाकथित हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखकों के पास ही है । जिस तरह
सामाजिक संरचनाओं में ‘बिहारी’ शब्द का चलन है,कुछ-कुछ उसी तर्ज पर हिन्दी साहित्य में ‘बाहरी’ का चलन है । खारिज करने का चलन हिन्दी में
यों नया नहीं है । हिन्दी साहित्य जगत से जुड़े तमाम लेखक,आलोचक,पाठक,शोधार्थी और
प्रवक्ता आदि सब अंदर के खानों में चलने वाली रणनीतियों को जानते-समझते ही है ।
जिसे आम भाषा में जुगाड़ कहा जाता है । हिन्दी साहित्य में स्थान बनाने-पाने के
लिए एक खास योग्यता की मांग रहती ही है ।जो उसे पूरा नही करता,उसे बाहर धकेल दिया
जाता है ।मोरवाल जी चिंता के संदर्भ में अंत अज्ञेय के शब्दों में -दूर के
विराने तो कोई सह भी ले, खुद के रचे विराने कोई सहे कैसे ? ( स्मृति आधारित)
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