अनुराधा बेनीवाल की ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ पढ़ी, पढ़ते ही
अनुराधा के लिए जो पहला शब्द ख़्याल में
आया वो हैं ‘हंडेर’। जिसका अर्थ है बिना किसी ख़ास मकसद के घूमना, बल्कि जहाँ
घूमना ही मकसद हो। हिंदी के आवारा शब्द के नजदीक। यह शब्द बचपन से आजतक किसी लड़की
के लिए इस्तेमाल होते हुए नहीं सुना। बल्कि लड़कों के लिए ही सुना और खुद के लिए
भी। बिना मकसद, बिना काम यूं ही जब मन किया, जिधर मन किया। निकल लिए। बिना किसी डर
के। बिना किसी से पूछे-बताए। फिर इसके उलट ख़्याल आया कि मेरी बहन ने तो ऐसा कभी
नहीं किया। दरअसल किया नहीं कहना चाहिए करने नहीं दिया गया। करने तो दूर की बात
है, ऐसा उसे सोचने भी नहीं दिया गया। सोचने से पहले उसे खूब डरा दिया गया। और वह
डरा कर कैद कर दी गई एक ऐसी दुनिया में जो पुरुषों ने बनाई नहीं गढ़ी थी। डर की दुनिया।
गुलामी की दुनिया। जिसे किसी लड़की ने चुना नहीं हैं। यह उन पर थोप दी गई दुनिया
है।‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ पर बात करने से
पहले रू-ब-रू कराते हैं आपको अनुराधा बेनीवाल से। जो सोशल मीडिया पर अनुराधा सरोज
के नाम से लिखती हैं और अपनी तल्ख़ और बेबाक विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जानी
जाती हैं।
अनुराधा बेनीवाल का जन्म हरियाणा के रोहतक जिले के खेड़ी गाँव में 1986 में
हुआ। इनकी 12वीं तक की अनौपचारिक पढ़ाई घर में हुई। 15 वर्ष की आयु में ये
राष्ट्रीय शतरंज प्रतियोगिता की विजेता रहीं। 16 वर्ष की आयु में विश्व शतरंज
प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उसके बाद इन्होंने प्रतिस्पर्धी शतरंज
खेल की दुनिया से ख़ुद को अलग कर लिया। दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस
कॉलेज से अंग्रेजी विषय में बी.ए. (ऑनर्स) करने के बाद एलएलबी की पढ़ाई की, फिर
अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. भी किया। इस दौरान ये तमाम खेल-गतिविधियों से कई
भूमिकाओं में जुड़ी रहीं। फ़िलहाल ये लंदन में एक जानी-मानी शतरंज कोच हैं और वहाँ
कैम्ब्रिज के लिए ख़ुद भी शतरंज खेलती हैं। मिज़ाज से बैक-पैकर अनुराधा अपनी
धुमक्कड़ी का आख्यान ‘यायावरी आवारगी’ नामक पुस्तक-श्रृंख्ला में लिख रही
हैं। ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ श्रृंख्ला की पहली
किताब है।[1]
अनुराधा की यह किताब है मूलतः यात्रा-संस्मरण। पर स्त्री के जीवन में आज़ादी
के क्या मायने है, इस नज़रिए से यह किताब
अपने पहले पड़ाव से आगे निकलकर आधी आबादी का जीवंत दस्तावेज बन जाती हैं। अनुराधा
अपने जीवन के सफ़र और यात्राओं के ज़रिए बाहर-भीतर की दुनिया से तो रू-ब-रू कराती
ही हैं, साथ में हरियाणवी समाज में स्त्री की जकड़बंदियों को कुरेद-कुरेद कर हमें
सोचने पर मज़बूर भी करती हैं। वह स्त्री की कंडीशनिंग से लेकर स्त्री की आज़ादी के
बहुस्तरीय पाठ भी रचती चलती हैं। स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता, देह
मुक्ति का विमर्श, सेक्स-एजुकेशन और अरेंज मैरिज आदि विषयों पर अपनी बेबाक राय
रखते हुए हमें सोचने पर मजबूर भी करती हैं, ताकि एक गैर-बराबरी के समाज का निर्माण
संभव हो सकें। यात्राओं की पाठशाला में हम( पुरुष-समाज) पन्ने-दर-पन्ने सवालों के
कटघरे में खड़े होते चले जाते हैं।“दरअसल आजादी मेरा ब्रांड हिन्दी में अपनी किस्म की पहली
किताब होने के कारण इसे पढ़ने के लिए अपने कई सहज इलाकों से बाहर आना जरूरी है।
मसलन रोहतक के गाँव से निकलकर यूरोप के शहरों की ‘सोलो बैकपैकर्स’ यात्रा पर निकलने
के बीच की यात्रा में जो कुछ अनुराधा की जिंदगी में होता है वह सब ही हिन्दी के
पाठकों के लिए पर्याप्त झटके देने के लिए काफी है। यायावरी हिन्दी जगत के लिए एक
पूरी तरह मर्दाना ‘स्पेस’ है तिसपर एक लड़की सो भी अकेले न केवल इस ‘स्पेस’ में अतिक्रमण करती
है वरन बाकायदा इस घोषणापत्र के साथ के साथ करती है कि ये बाहर जाना बेकाम का है,
आवारगी है, किसी और की हो न हो मेरी आज़ादी है।”[2] इस आज़ादी की यात्रा के लिए सबसे अहम् अनुराधा स्त्री का
आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना मानती हैं। आर्थिक रूप से स्वतंत्र हुए बिना स्त्री
आज़ाद होने की सोच भी नहीं सकती। ‘अपने पहले कमाए पौंड से मैंने बाजार से इन चीज़ों के अलावा
भी कुछ खरीदा-ढेर सारा आत्मविश्वास। आत्मविश्वास। वह पैसों से ख़रीदा या सामाजिक
रुतबे पर पला-बढ़ा आत्मविश्वास नहीं था। वह खुद को जानने से आया था। वो कहते हैं
न, आजादी ना लेने की चीज़ हैं, ना देने की। छीनी भी तो क्या-आज़ादी, यह तो जीने की
चीज़ है।’अनुराधा ने हरियाणवी समाज और यूरोपीय समाज के बीच अकेले
घूमते हुए इस आज़ादी को अलग-अलग ढंग से जीया हैं। यह जीया और भोगा हुआ जीवन उन्हें
अपने भीतर और बाहर की दुनिया को समझने का मौका देता है और स्त्री आज़ादी में सबसे
बड़ी बाधाओं का बोध कराती हैं। अनुराधा के लिए हर यात्रा जीवन-बोध का अभिन्न अंग
बन जाती है और स्त्री आज़ादी के आयाम को लगातार विकसित करती हैं। आर्थिक रूप से स्वतंत्रता
स्त्री मुक्ति के लिए सबसे जरूरी माना गया है। सिमोन द बोउवार से लेकर अनुराधा तक
ने इस पर सबसे ज्यादा जोर दिया है। सिमोन द बोउवार अपनी डायरी में लिखती हैं: ‘मैं ब्रह्मांड
में भटकने और तैरने की अपेक्षा सीमित किंतु ठोस पकड़ को महत्त्व देती हूं।’[3] जबकि अनुराधा
गतिशील मूल्यों के ग्रहण की प्रक्रिया को अपनी यात्राओं के द्वारा मज़बूती प्रदान
करती हैं और यह मानती है कि आर्थिक
रूप से सक्षम स्त्री में ही आत्मविश्वास पैदा हो सकता हैं।
आत्मनिर्भर- हमारी प्रथामिकता नौकरी थोड़े ही होती है, वह
तो शादी होती है।
प्रभा खेतान का मानना है कि-“मैं दुनिया के जिस किसी कोने में गई हूं, मैंने स्त्री को
खोजा है। उसे जानने की चेष्टा की है। उस देश की स्त्री कैसी है? वह कैसे कपड़े
पहनती है? उसकी सामाजिक भूमिका का कितना महत्त्व है? क्या स्त्री अधिकारों के प्रति वह सजग है?”[4] इसी सजग प्रक्रिया में अनुराधा भी स्त्री की प्राथमिकता का
भारतीय संदर्भ में मूल्यांकन करती हैं। भारतीय स्त्रियों का बड़ा हिस्सा आर्थिक
रूप से स्वतंत्र व्यक्तित्व निर्मित करने के बज़ाय शादी में भविष्य तलाश करती हैं।
बचपन से ही भारतीय समाज में लड़कियों की कंडीशनिंग कर दी जाती है। उन्हें
आत्मनिर्भर होना नहीं सीखाया जाता बल्कि परिवार में रहते हुए अच्छी बहन, बेटी और
पत्नी धर्म का निर्वाह करना सीखाया जाता है। उनकी प्राथमिकता नौकरी नहीं होती
बल्कि शादी और बच्चे होते हैं, उसके बाद समय मिले तो नौकरी होती है। अनुराधा बताती
है कि “आज़ादी बड़ी अनोखी-सी चिड़िया है, यह है तो आपकी, लेकिन
समय-समय पर इसको दाना डालना होता है। अगर आपने दाना उधार लिया तो चिड़िया भी उधार की
हो जाती है। आत्मनिर्भरता के दाने पर पलती है यह, और इसे किसी महंगे या ख़ास दाने
की ज़रूरत भी नहीं होती। बस अपना हो, अपने ख़ुद के पसीने से कमाया हुआ कैसा भी
दाना। उसी में मस्त रहती है।” हरियाणवी समाज में स्त्रियां अभी भी पुराने ढर्रे पर जीने
के लिए मजबूर है। स्कूल और कॉलेज का जब भी रिजल्ट आता है, अख़बारों की हैडलाइन यही
होती हैं कि लड़कियों ने इस बार भी बाजी मारी। और जब नौकरियों में देखते हैं तो
उनका प्रतिशत बहुत कम होता है और होता भी है तो बहुत सीमित नौकरियों में होता हैं।
आज भी स्त्रियों के लिए स्कूल और बैंक की ही नौकरी अच्छी मानी जाती हैं। स्कूल की
नौकरी सबसे ज्यादा। आम धारणा यह है कि स्कूल में पढ़ाते हुए स्त्री घर का काम और
बच्चों की देखभाल भी अच्छे से कर लेती है। यानी स्त्री काम करते हुए भी अपनी घरेलू
भूमिकाओं में पुरुष को सहयोगी के रूप में नहीं पाती बल्कि पुरुष तब भी घर से बाहर
के काम के लिए ही होता है और स्त्री घर के काम के लिए। घर और बाहर का यह विभाजन ही
स्त्री के शोषण और दमन का बड़ा कारण बनता हैं।
स्वतंत्र कार्य शैली के लिए एक स्वतंत्र माहौल की जरूरत होती है। जिसमें
भारतीय समाज आज भी पिछड़ा हुआ है। घर और घर से बाहर स्त्री को स्वस्थ माहौल उपलब्ध
हो सकें, इसके लिए स्त्री-पुरुष की बराबरी की मानसिकता का होना जरूरी है।शायद ही
कोई लड़की ऐसी होगी, जिसके साथ ये सब ना घटा हो। जिसका ज़िक्र अनुराधा बेबाकी से
कर रही हैं- “मैं उस चीज के बिना वापस नहीं जाऊंगी! मुझे
इस आजादी को अपने खेतों, अपने गाँवों, अपने शहरों में महसूस करना है। मुझे यूं ही
निश्चिंत बेफ़िक्र घूमना हैं, रोहतक की गलियों में। मुझे वह चीज विकास नगर की उस
गली में छोड़ देनी है, जहाँ वह लड़का मेरी छाती पर हाथ मारकर भाग गया था। सोनीपत
बस स्टैंड के उस मोड़ पर छोड़ देनी हैं, जहाँ से गुज़रते वक़्त मुझे गंदे
इशारों,टिप्पणियों से नवाज़ा जाता था। दिल्ली की उन बसों में छोड़ देनी है, जहाँ
वह आदमी जिप खोलकर मेरे पीछे रगड़ने की कोशिश कर रहा था। उस घर में छोड़ देनी हैं,
जहाँ मेरी दोस्त के पिता ने मेरा क़द और वजन नापने के बहाने मेरे पूरे शरीर पर
अपना लिजलिजा हाथ फिराया था। उस ट्रेन के स्लीपर कोच में छोड़ देनी है, जहाँ वह
आदमी रात को मेरी चादर के नीचे कुछ ढूंढने आ गया था।” और पुरुष समाज की
कारस्तानी देखिए कि इतना सब झेलते हुए अगर कोई लड़की इसका विरोध करती है, तो उसे
ही चुप करा दिया जाता है या घर की चारदीवारी में कैद कर दिया जाता है। जिसका
परिणाम यह निकलता है कि इस तरह की अमानवीयता और शोषण को चुपचाप सहना उनकी मज़बूरी
हो जाती हैं। जो धीरे-धीरे आगे चलकर डर में भी तब्दील होने लगती है।
अनुराधा ने आत्मविश्वास आर्थिक रूप से मज़बूत होकर पाया और साहस की सीख उसने
मार्लुस की मां के जरिए पाई । जिन्होंने अपनी बेटी को बलात्कार होने के बाद क्या
एतिहात रखे जाने चाहिए इसकी सलाह दी। मार्लुस जब अकेली घर से घूमने निकली तो उनकी
मां कहती है-“अपना खूब ख्याल रखना। पागल कुत्ते तो कहीं भी हो सकते हैं,
तो अगर रेप हो जाए तो प्रेगनेंसी से बचने के लिए पिल्स अपने साथ रखना। मैंने पहली
बार किसी मां को रेप होने के सिलसिले में सलाह देते हुए जाना था। मैंने या तो माँओ
को इस बारे में बात करते ही नहीं सुना, या सुना था कि यहां/ वहाँ
इस वक़्त सेफ़ नहीं है, बाहर मत जाओ! लेकिन अपनी बेटी को रोकने के बजाय,
हादसा होने पर क्या किया जाए- इस बारे में सलाह देना पहली बार सुना था! मार्लुस
की माँ कहती है कि, ‘रेप भी एक एक्सीडेंट है जो नहीं होना चाहिए, लेकिन होने पर
शर्म की बजाय उस बारे में क्या किया जाए, यह पता होना चाहिए। ऐसी माँ की बेटी कैसे
निडर नहीं होगी? यहाँ से मैंने साहस सीखा।” जबकि
भारत में उलटा रेप पीड़ित लड़की को गलत नज़रों से देखा जाता है और उसे ही दोषी
करार कर दिया जाता है। भारतीय विचार-विमर्श के केंद्र में यह मुद्दा कभी प्रमुखता
से नहीं उठाया जाता कि क्यों हम एक ऐसे समाज का निर्माण नहीं कर पाए है, जिसमें
लड़की जब मन चाहे और जहाँ चाहे आ-जा सकें। बल्कि किया हमने इसका उलट है। हमने
यहाँ-वहाँ लड़कियों को आने-जाने से रोक दिया है। जबकि इस रोकने से न तो छेड़खानी
कम हुई और न बलात्कार कम हुए। परिवार और समाज दोनों स्त्री के भक्षक होते हुए रक्षक की भूमिका में
नज़र आते है, जो कि समझ से परे है।
दरअसल हर समाज ने
लड़कियों के लिए अच्छे-बुरे के पैमाने तैयार किए हुए हैं और वो सारे पैमाने पुरुष
समाज ने अपनी सुविधा के अनुसार रचे हुए है। जिसमें सबसे बड़ा पैमाना ‘अच्छी’ लड़की और ‘बुरी’ लड़की के भेद का है और
यह भेद टिका है उसकी सेक्स इच्छाओं पर। स्त्री यौनिकता पर कंट्रोल के जरिए
पितृसत्ता को मजबूत किया जाता है। पितृसत्ता ने पुरुष यौनिकता को सक्रिय और
प्रभावी माना है, इसीलिए स्त्री को वस्तु या चीज के रूप में देखा है। फलस्वरूप
स्त्री की यौनिकता एक सांस्कृतिक घटना हो गई। जबकि हकीकत में स्त्री-पुरुष के
जैविक विभाजन का इससे कोई लेना-देना नहीं है। यह पितृसत्ता की राजनीति थी ताकि कुछ
विशिष्ट पुरुषों को स्त्री सुलभ होती रहे। इसका परिणाम यह निकला कि एक ऐसी समाज
व्यवस्था निर्मित हुई जिसमें बलात्कार, यौन शोषण और यौन उत्पीड़न एवं आक्रामकता एक
आम बात हो। फूको के अनुसार-“अनुशासित देह समर्पित देह है,आधारहीन
है। और यह समर्पण केवल पुरुष के प्रति नहीं, बल्कि विशिष्ट संस्थागत नियमों द्वारा
स्त्री की देह को यौन संतुष्टि के लिए ‘उत्पादन’ एवं ‘काम’ लायक बनाया जाता
है।” अनुराधा का मानना है कि-“मेरी निजता सिर्फ़ मेरी
देह के मुक्त होने भर में नहीं-यह मैंने बहुत जल्द समझ लिया था। वह भी जरूरी हैं,
आज भी मानती हूं। लेकिन असली आजादी का बोध उतने भर में सीमित नहीं। देह की आजादी
को पाना आसान है। इस लड़ाई से पार पाना अपने वश में हैं; बशर्ते बिगड़ी हुई,
ज्यादा-ही-फॉरवर्ड,बदचलन. चरित्रहीन, लूज कैरेक्टर, होर, रंडी- जैसे विशेषणों को
हँसकर उड़ाने भर की मानसिक मजबूती हो। आर्थिक आजादी ने काफी हद तक देह को आजाद कर
दिया। लेकिन उसको पूरी आजादी अच्छे-बुरे की कंडीशनिंग टूटने से मिली। सिर्फ किसी
के साथ सो सकने की आजादी ही नहीं, किसी के साथ नहीं सो सकने की आजादी भी। किसी भी
तरह की हिचक और परवाह से आजादी।” और अच्छी लड़की की पूरी अवधारणा उसकी यौन इच्छाओं के
दमन के आस-पास रची जाती है। इस विचार के अनुसार- “अच्छी लड़कियां एसेक्सुअल
होती हैं, उन्हें न किसी के साथ हमबिस्तर होने का मन करता हैं; ना किसी का हाथ पकड़ने
का, न वे किसी के होंठ चूमना चाहती हैं, ना किसी की बाँहों में खो जाना चाहती
हैं... ना ही उनके पेट में तितलियाँ उड़ती हैं...और उड़ती भी हैं तो पहले
कुल-गोत्र, अच्छी नौकरी, यहाँ तक कि घर-परिवार जैसी चीजें देखकर ही पंख खोलती हैं!” यह
भारतीय समाज की आदर्श लड़की के लक्षण निर्धारित कर दिए गए हैं। जो इन्हें लांघती
हैं, उसके लिए हर समाज में अलग-अलग विशेषणों की भरमार हैं।“हमें अपने शरीर की
भूख को सुलाए रखना बहुत कम उम्र से ही सिखा दिया जाता है, इसलिए इस हद से बाहर
निकलना इतना भी आसान नहीं। लेकिन हाँ, उस भूख को पहचानना जरूर सीखा मैंने। उस भूख
की इज्जत करना भी मैंने सीखा।” ऐय्याशी सिर्फ़ देह की नहीं होती। उसका संबंध किसी भी तरह
के उपभोग की अधिकता या उसके मनमानेपन से है। लूसी इरिगारे इस संदर्भ में सवाल
उठाती है कि- “पितृसत्ता पुरुष-जननेंद्रिय की आक्रामकता को सक्रिय एवं स्वाभाविक मानती
है। स्त्री योनि को निष्क्रिय माना जाता हैं। यह वही पुरुषलिंग-केंद्रित यौन विचार
व्यवस्था है, जिसके कारण प्रेम के चरम क्षणों में भी पुरुष का स्खलन स्त्री सुख के
लिए नहीं, बल्कि पुरुष के अपने आत्म में वापस लौटने की तरह ही माना जाता है। पुरुष
का यह आत्म-आलिंगन है। परंतु यौनिकता के प्रसंग में ऐसा दृष्टिकोण स्त्री द्वारा
भी यौन-जीवन में सुख एवं आनंद का अधिकार प्राप्त करने पर चर्चा नहीं करता। पुरुष ‘संभोग से समाधि की ओर’ जाता है, मगर स्त्री को तो
केवल माध्यम ही बने रहना है।” दरअसल इतरलिंगी यौन व्यवस्था
पर आधारित सत्ता के खेल में स्त्री को मुक्ति हासिल करनी होगी। न केवल पुरुष की
परपीड़न की वृत्ति से बल्कि स्त्री की स्वयं के प्रति हीनता और दया भाव से भी
मुक्ति की जरूरत है। पुरुष की प्रधानता स्त्री की हीनता पर फलती-फूलती है। यौन
आक्रामकता को सत्ता की आक्रामकता से मुक्त करना होगा। यौन जीवन में आनंद की
प्रधानता होनी चाहिए, सत्ता का खेल नहीं।
दूसरी तरफ हरियाणवी समाज में स्त्री की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर अनुराधा
ने अपने अनुभव बताते हुए लिखा है-“मैं जिस समाज में पैदा हुई, पली-बढ़ी, उसमें व्यक्तिगत
स्वतंत्रता जैसी कोई च़ीज नहीं थी। वहाँ किसी घर में कोई संतान पैदा हुई नहीं कि
उसे ‘संस्कारी’ और ‘लायक’ बनाने की हर कोशिश उसके माता-पिता,परिवार और रिश्तेदार-
सबकी तरफ़ से शुरू हो जाती थी। उसके कोरे दिमाग़ में समाज के क़ायदे-क़ानून और
रिवाजों-परंपराओं को पूरा का पूरा उतार देने के सभी जाने-पहचाने तरीक़े आजमाए
जाते।” हरियाणवी समाज लड़का-लड़की की बराबरी की कितनी भी दुहाई
देता हो, पर सच आज भी गैर-बराबरी का ही है। अनपढ़ और शिक्षित समाज दोनों की सोच और
व्यवहार में आज भी भेदभाव उसी तरह मौजूद हैं। आज भी लड़के के होने पर नीम की टहनी
टांगी जाती है, थाली बजाई जाती है और लड़की के होने पर यह सब नहीं किया जाता।
मैंने इस संदर्भ में अपने कई परिचित शिक्षकों से इस पर सवाल किया तो उन्होंने इस
भेदभाव को संस्कार और संस्कृति के नाम पर बस फोलो करना स्वीकार किया। जबकि ‘सच’ उन्हें भी पता है।
वह है संपत्ति का वारिस। दूसरी
तरफ स्कूल और कॉलेज में आज भी लड़के और लड़कियाँ अलग बैठते हैं। बात करना, प्यार
करना आज भी गुनाह माना जाता हैं। ऑनर कीलिंग और भ्रूण हत्या के लिए हरियाणा सबसे
ऊपर है। हरियाणा केवल बदनाम नहीं है हालात
आज भी लगभग वैसे ही है। इन सवालों से टकराये बगैर आप गैर-बराबरी के समाज को बदल
नहीं सकते। स्कूल और कॉलेज के स्तर पर लिंग समानता और सेक्स एजुकेशन को जब तक
शिक्षा का हिस्सा नहीं बनाया जाता, तब तक स्त्री-पुरुष के भेदभाव को खत्म करना
संभव नहीं हो सकता।
सेक्स एजुकेशन का नाम सुनते ही भारतीय समाज में उसके विरोध के स्वर तेजी से उभरने लगते हैं।
कभी पश्चिमी संस्कृति के नाम पर विरोध होता हैं, कभी संस्कारों के नाम पर। जबकि
इनके मूल में छिपा है स्त्री की यौनिकता को कंट्रोल करने का विचार। जिसके ज़रिए
स्त्री की गुलामी को पुख्ता किया जाता है। अनुराधा डच देश की शिक्षा में सेक्स
एजुकेशन के महत्व को बताते हुए बराबरी के समाज में लड़के-लड़की दोनों की भूमिका को
मुख्य रूप से रेखाकिंत करती हैं- “डच स्कूलों में पहली क्लास से बच्चियों और बच्चों को सेक्स
एजुकेशन दी जाती है। क्या होता है जब आप किसी को पसंद करते हैं या जब वह आपको गले
लगाता है, हग्ग करता है? क्या उन्हें कभी प्यार हुआ है? क्या
होता है प्यार? प्यार में होते हैं
तो कैसा लगता है? कब किसी को छू लेने का मन करता है? स्कूल
में जीवन के इन सब जरूरी सवालों पर स्वस्थ बातचीत होती है। उम्र के साथ शरीर के
बदलावों के बारे में बताया जाता है। क्यों ख़ुद को छू लेने का मन करता है? सेक्स
क्या होता है, किस उम्र में किया जाना चाहिए? क्या-क्या
सावधानियाँ बरतनी चाहिए? किसी का छुआ आपको
अच्छा न लगे तो क्या करना चाहिए? किससे बात करनी
चाहिए? कोई अच्छा लगना बंद हो जाए तो उसको कैसे बताया जाए? एक-दूसरे के ब्रेक-अप के समय कैसे मदद करनी
चाहिए। इन सबके बारे में क्लास टीचर अपने स्टुडेंट के साथ बात करती हैं। दुनिया को
कामसूत्र देने वाला समाज आज इस सब सवालों से डरने लगा हैं। सेक्स को दबाने की बजाय
अगर उसे कायदे से पढ़ाया जाए, बताया और
सिखाया जाए तो निश्चित रूप से समाज की मानसिकता बदलेगी। स्वस्थ होगी। जानकर ही
किसी चीज से ऊपर उठा जा सकता है।” हम सभी को इन सवालों पर गंभीरता से विचार-विमर्श की जरूरत
है। संवाद के जरिए ही गैर-बराबरी का समाज निर्मित किया जा सकता है।
जातीयकरण,लैंगिकीकरण एवं यौनिकता, स्त्री को दमन की इन तीनों प्रक्रियाओं से
गुजरना पड़ता है। इस दमन से मुक्ति के बिना स्त्री मुक्ति का सपना अधूरा है।
भारतीय समाज में पितृसत्ता को मजबूत करने वाली संस्था विवाह संस्था है। इस
अंरेज मैरिज पर अनुराधा अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखती है कि- “सोचिए, अगर इस
अरेंज मैरिज का कोई कांसेप्ट ही नहीं हो, एकदम से खत्म हो जाए यह व्यवस्था तो ? तब तो यह गांरटी ही नहीं होगी कि सबकी शादी होगी
ही होगी। मतलब, आपको खुद शादी के लिए इस लायक बनना होगा कि कोई आपको पसंद करे। वे
सभी गुण आपको अपने अंदर पैदा करने होंगे जिससे कि कोई आपको अपना जीवन-साथी बनाना
चाहे। इससे क्या यह नहीं होगा कि लड़के-लड़कियाँ आपस में बातें करना सीखेंगे, एक-दूसरे
को एक-दूसरे के लायक बनाना सीखेंगे? अभी जैसा नहीं तो नहीं ही हो सकेगा कि लड़के ने पूरी उम्र
किसी लड़की से बात ही न की हो, या राह चलते सिर्फ़ कमेंट ही पास किए हों, किसी
लड़की लड़की को दोस्त तक न बनाया हो, या किसी लड़की का हाथ पकड़ने तक का शऊर ना हो
उसे, ना ही किसी से प्रेम करना सीखा हो उसने, फिर भी वह शादी को लेकर बेफ़िक्र
रहे। क्योंकि उसे पता है कि वह जैसे ही कोई नौकरी पा लेगा या उसके घर में ठीक-ठाक
इतनी ज़मीन है कि उसको बीवी कैसे भी मिल जाएगी। आखिर एक लड़के को एक लड़की के साथ
बेहतर जीवन जीने की तैयारी पहले से क्यों नहीं करनी चाहिए? ठीक
इसी तरह उसी समाज में एक लड़की भी है कहीं जिसने कभी किसी लड़के से बात ही नहीं की
है, उसने न किसी को दोस्त बनाया है ना ही उसने घर बसाने का कोई ढंग-ढर्रा सीखा है,
ना खुद घर के इंतज़ामात करने की कोई कोशिश की है, न अपने घर के सब बिल भरने का
सलीका है। क्योंकि उसको भी पता है कि ठीक समय आने पर उसके माँ-बाप या रिश्तेदार
उसको एक बसा-बसाया घर दिलवा ही देंगे। लेकिन अगर उसे इस बात की गारंटी नहीं दी गई
होती, अगर उसको बना-बनाया घर या किसी घर बनाने वाले के साथ ब्याहने का प्रॉमिस
नहीं किया गया होता तो शायद वह उस दिशा में ख़ुद मेहनत करती। आत्मनिर्भर होती
और निर्णय लेने की क्षमता भी उसमें बेहतर होती।” यह एक बेहतर
रास्ता हो सकता है, जिसे पारंपरिक और क्रांतिकारी रास्तों के बीच का सहज एवं
स्वाभाविक रास्ता माना जा सकता है और अरेंज मैरिज के रूढ़ पक्ष से आगे बढ़ते हुए
उसे प्रगतिशील बनाया जा सके। ताकि लड़का और लड़की दोनों एक-दूसरे के महत्त्व को
समझते हुए अपनी-अपनी जिम्मेदारी का एहसास कर सकें। यह प्रक्रिया लोकतंत्र के लिए
भी फायदेमंद हो सकती है, क्योंकि लोकतंत्र को मजबूत बराबरी की मानसिकता से लैस नागरिक
ही कर सकते है।
ये तमाम सवाल केवल अनुराधा के नहीं है बल्कि पूरे भारत की आधी आबादी के हैं।
और आज़ादी का सपना देखना और उसके लिए प्रयास करना आवश्यक है। जिस कड़ी में अनुराधा
लिखती है- “मैं आजाद देश की आज़ाद नागरिक होकर भी खुद को आज़ाद महसूस
क्यों नहीं कर रही थी?क्यों नहीं चलने देते तुम मुझे? क्यों मुझे
रह-रहकर नज़रों से नंगा करते हो? क्या तुम्हें मैं अकेली चलती नहीं सुहाती? मेरे
महान देश के महान नारी पूजको, जवाब दो। मेरी महान संस्कृति के रखवालों जवाब दो!क्यों इतना मुश्किल
है एक लड़की का अकेले घर से निकलकर चल पाना?जो समाज एक लड़की
को अकेले सड़क पर चलना बर्दाश्त नहीं कर सकता, वह समाज सड़ चुका है।वह कल्चर जो एक
अकेली लड़की को सुरक्षित महसूस नहीं करा सकती, वह गोबर कल्चर है। उस पर तुम कितने
ही सोने-चाँदी के वर्क चढ़ाओ, उसकी बास नहीं रोक आओगे, बल्कि और धँसोगे।” संस्कृति गतिशील
विचारों का प्रतिनिधित्व करती हैं। संस्कृति को लेकर भावुक होने से बचना चाहिए।
परिपक्वता ही संस्कृति को सड़ने से बचाती है और विकसित करती है।
अनुराधा का संदेश तमाम उन लड़कियों के लिए जो आज़ादी का सपना देखती हैं और उसे
पूरा करना चाहती हैं। “मेरी यात्रा अभी शुरू हुई है और तुम्हारी भी। तुम चलना।... दुनिया को हमारे
चलने की आदत हो जाएगी।...यह दुनिया तेरे लिए बनी है, इसे देखना जरूर। इसे जानना,
इसे जीना।...अपने गांव में नहीं चल पा रही हो तो अपने शहर में चलना। अपने शहर में
नहीं चल चल पा रही हो तो अपने देश में चलना। अपना देश भी मुश्किल करता है चलना तो
यह दुनिया भी तेरी ही है, अपनी दुनिया में चलना। लेकिन तुम चलना। तुम आज़ाद
बेफ़िक्र,बेपरवाह,बेकाम,बेहया होकर चलना। तुम अपने दुपट्टे जलाकर, अपनी ब्रा साइड
से निकाल कर, खुले फ्रॉक पहनकर चलना। तुम चलना जरूर!”
मेरा दिल और दिमाग तो यह कहता है कि कम-से-कम हरियाणा की सभी लड़के-लड़कियों
को यह किताब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ जरूर पढ़नी चाहिए, पढ़वाई जानी
चाहिए। ख़ासकर लड़कियों को तो जरूर पढ़नी चाहिए। दरअसल पढ़नी तो यह दुनिया की सभी
लड़कियों को चाहिए। यह किताब राजकमल प्रकाशन से इसी साल प्रकाशित हुई है।
नवीन रमण ( 9215181490)
naveen21.com@gmail.com
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