शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

बिदेसी धरती पै हरयाणवी का दूत रेडियो कसूत


धरती की सारी बोली जो बची सै तो आपणी संस्कृति अर आपणी ज़बान के कारण बची सै। बची के सै आगे बढ़ी सै तो जबे बढ़ी सै जब उस बोली में जीणा-खाणा, मरणा, ओढ़णा-पहरणा बचया रहया हो। जुणसे माणसा नै आपणी बोली छोड्डी सै, उनकी बोली बी मरगी सै। अर जुणसे माणस आपणी बोली तै प्यार नी करते वै तै सबतै पहल्या आपणी मादरी ज़बान नै मारै सै। अर आपणा मां-भासा नै मारण तै भूंडा ओर के हो सकै सै।
अर या बात बी किसे नै सही कही सै अक सीखण नै तो कितना-ए सीख ल्यो, अर कितनी-ए भासा सीख ल्यो। पर आपणी धरती तै दूर नहीं जाणा चहिए माणस नै। घणे माणसा कै तो यो बी बहम रै सै अक हरयाणवी मैं राग-रागिणी अर बोलण-चालण तक तो ठीक सै पर इस मैं भविष्य कोनी बण सकता, अर ना हरयाणवी बोलण आळे माणस की कदर सै। जब माणस आपणी नज़र मैं, आपणी बोली की कदर नी करता हो, तो दूसरे नै के पड़ी सै। या बात तो सही सै अक किसे बी बोली की इस तै बढ़िया बात नी हो सकती, जो माणस नै उसमैं दो टैम की रोटी बी मिलण लाग ज्या या आपणी बोली मैं वो इंजीनियर बण ज्यां डाक्टर बण ज्यां। यो टैम बी आवैगा। अर जरूर आवैगा। टैम लाग सकै सै। वा-ए बात सै अक देर सै अंधेर कोनी।
पहल्या मन्नै सोची थी अक यो पेपर मैं हिंदी मैं लिखूं। पर जब लिखण लाग ग्या तो भीत्तर तै आवाज़ आई अक हरयाणवी मैं क्यूं नी लिखता। जब हाम इसे पेपर बी लिखण लाग्गैंगे जबे तो कुछ बात बणैगी। बात तो बणते-बणते बण्या करै। इब ताही हाम आपणी बोली नै बस बोलते आए थे। इब तही हाम नै ना तो समार कै लिखण की आदत पड़ी सै अर ना लिखी होई हरयाणवी नै पढ़ण की आदत पड़ी सै। पर शुरूवात तो होए गई। या तो बात होगी बोली अर उसके भविष्य की। इब बात करै सै काम की।
जमाना सै तकनीक का अर तकनीक तै मुंह फेरे कै किसे का काम नहीं चाल्या आज तही अर ना चालै। अर जिसनै हाम संस्कृति कहवै सै। वैं कदे भी कोरी भूंडी अर सुथरी नी होया करदी। उसमैं दोनूं बात सदा तै होती आई सै अर सदा रहवैंगी। अर धरती की सारी संस्कृतियां अर बोलियां आपस मैं बाहण की तरिया हो सै। कदे आपस मैं मिलैंगी बी अर कदे लड़ैंगी बी। इब यो माणस-माणस पै सै अक वो के सीखै सै। आच्छा सीखै सै अक भूंडा सीखै सै। दूसरी बात या सै अक यो बी नी करणा चहिए अक आपणा तै सब कुछ बढ़िया अर दूसरे का सब कुछ घटिया। ऊं बी हरयाणे मैं कहावत सै अक आपणी लास्सी नै कोए नी खांटी बताता। बस या आदत छोड्डे पाछै देखोगे तो सीखण नै बहोत कुछ मिलैगा। सीखण आले माणस नै सारी जगाह तै सीखण नै मिलै सै।
किसे बी संस्कृति की आत्मा हो सै उसकी ज़बान जिसनै हाम भासा या बोली कहवै। भासा या बोली जितनी बढ़ैगी संस्कृति उसकी गेल बढ़ती चली जागी। हरयाणा सरकारों नै बोली खात्तर जितना काम करै उसतै फालतू काम लोग आपणे आप करण लाग रे सै। यो हो सै असली प्यार आपणी मां-बोली तै। अर यो काम माणस बिदेसी धरती पै जाकै करै तो इस तै कसूत्ती बात कोए नी हो सकती। इसे काम करण आळी टीम अर माणसा तै आपनै मिलवाऊंगा। जुणसे बिदेसी धरती पै हरयाणवी के दूत बणकै काम करण लाग रे सै। वा टीम सै-रोडियो कसूत। बिदेसी धरती का नाम सै आस्ट्रेलिया। जड़े तै चाल्लै सै रडियो कसूत। इबै तो एप पै चालण लाग रहया सै। इसका स्टूडियो सै मेलबर्न अर ब्रिसबेन(आस्ट्रेलिया), यूके(इंग्लैड), हिसार(भारत) अर न्यूजीलैंड मैं।
टीम सै- अरूण मलिक, मनु पराशर, जोगिंद्र बराक, भगत, रितु, सुशील, रवी, पवन दहिया, पवन टोकस, विनय सेहरावत, सोनिया दहिया, नीतू मलिक, राहुल और मनीष।
जब यै इतना बढ़िया काम करते हो अर कोए अख़बार आळा जब न्यू लिखै अक 'आस्ट्रेलिया से हरियाणवी संस्कृति को बचाने की मुहिम' इसका मतलब यो होवै अक म्हारी संस्कृति मरण लाग री हो। जो भासा अर संस्कृति माणस-माणस के भीतर हो वा न्यूए मर ज्यागी के। यो खामखां का डर सै अक मर ज्यागी। उस दन मर ज्यागी जब हाम बोलणा-रोणा, खाणा-पीणा आपणा बाणा छोड़ देंगे। पर इसा कदे होता नी लागता मन्नै। बचाने की मुहिम तै बढ़िया तो न्यू कहणा चहिए अक आपणी संस्कृति नै फैलाण लाग रे। हरयाणवी इब हरयाणा के गाम-राम मैं तै आग्गै लिकड़ कै इंटरनेट के जरिए सारे देसा मैं फैलण-पसरण लाग री सै। यो इंटरनेट ही सै जो म्हारी भासा नै दुनिया तै मिलवावैगा अर मिलवाण लाग रया सै। पाकिस्तान आळे तो घणे राजी होकै म्हारी भासा गेल जुड़न लाग रे सै। नेता बेसक तै हामनै तोड़ते हो म्हारी बोली/भासा तो जोड़न का काम करण लाग री सै। देखण मैं ये छोटे-छोटे काम लागते हो पर सारे काम मिल कै बड़ा काम करैंगे।
रेडियो कसूत[i] अर उनकी टीम नै या धारणा बी तोड़ दी कर बिदेस मैं जाका माणस बदल ज्या सै। धरती तै जुड़े होए माणस कदे नी बदल्या करते। बदलण आळे तो थोथे माणस हो सै। एक रेडियो कसुत नै सारे देसा मैं बैठे हरयाणवी अर हरियाणवी नै पसंद करण आले सब एक जगाह जोड़ दिए। अर जब इतने माणस एक जगह जुड़ रे हो तो इस बरगी के ठाढ हो सै। या ठाढ बणाई सै हरयाणे के छोरे अर छोरियो नै। जुणसे आपस मैं जाणै नहीं थे। सबकी सांझली बस एक बात थी वा थी हरयाणवी। बस फेर के था जुड़ते चले गए। खुद जुड़ते गए अब जोड़ते जाण लाग रे सै। सारे मिलकै मनोरंजन बी करैंगे अर ज्ञान की बात बी करैंगे। ज्यूकर बड़े-बूढया धोरै बैठ कै सदा तै सीखते आए सै। बड़े-बूडया का ज्ञान एक जगाह तै सब धौरै जाया करैगा। जुकर पहल्या रामफल दिया करता रोहतक रेडियो पै। यै आज के टैम के रामफल सै।मनोरंजन अर ज्ञान दोनूं कट्ठे हो तो इस बढ़िया बात नी हो सकती।अर
ज्ञान किसे भासा का मोहताज नी होया करता अर सीखण-बतलाण आळी भासा दूसरी भाषा तै बी सीखती रही सै। इब अंगरेजी का टोरा जिननै लाग्गै सै। उनका तै कुछ नी हो सकता। ज्ञान के मामले में फूको का घणा बड़ा नाम सै। अर दुनिया भर मैं नाम सै। उसनै एक बात कही अक ज्ञान सत्ता और पावर का खेल सै। याए बात हाम बचपन तै सुणते आए सै अक हांगे अर ठाढ का सारा रोळा सै। पर इसे बात नै अंगरेजी में कहोगे तो ज्ञानी कहवैंगे अर हरयाणवी मैं कहवैंगे तो इसनै कहावत कहवैंगे। बात दोनू बराबर सै।
रेडियो कसूत और उसकी टीम
रेडियो कसूत-" रेडियो कसूत हरियाणवी सभ्यता, हरियाणवी संगीत, हरियाणवी बोली के साथ साथ हरियाणवी कला, इंटरव्यूज, सामान्य ज्ञान और संस्कृति का मंच है जो इन सबनै एक साथ जोडकै सबनै एक साथ लेकै चाल सकै है ! सम्भावना बहोत घणी है ! एक बै सुण कै तो देखो !"[ii] गूगल प्ले एप पै तै यो  डाउनलोड करया जा सकै सै।[iii] जै फोन एंडरायड सै तो। अर जै एप्पल के ले रे सो तो[iv] और जो यू-टयूब पै इसके वीडियो देखणे हो तो[v]
सोशल मीडिया पर  फेसबुक पेज[vi] से लेकर वेबसाइट, ई-मेल आई डी[vii] लाइव चैट आदि सभी माध्यमों पर रेडियो कसुत की टीम अपनी दस्तक दे रही है और हरियाणवी के विकास में निर्णायक भूमिका निभा रही है।
रेडियो कसूत की टीम ने मेल के माध्यम से अपने विचार साझा किए-"हरियाणा के कल्चर को सिर्फ एग्रीकल्चर तक सीमित समझने वाले लोग शायद अब सोचने पर मजबूर हो जाएंगे क्योंकि आधुनिक काल के कंधे से कन्धा मिला के चलते हुए हरियाणा के कुछ साथी कड़ी मेहनत से हरयाणवी सभ्यता और संस्कृति को बचाने की मुहीम में लगे हुए है।  जिसके चलते उमरा गाव के अरुण मालिक ने रेडियो कसूत एप्प को बनाया जिसकी मदद से पूरी दुनिया में हरयाणवी बोली की गूँज सुनी जा सकती है और दुनिया के किसी कोने में भी हरयाणा के लोग अपनी माटी की खुशबू से जुड़े रह सकते है।  अरुन पेशे से सॉफ्टवेर इंजीनियर है और जब वह अपने गाव से ऑट्रेलिया का सफर तय करके ब्रिस्बेन पहुचे तो उन्हें  गानो की बहुत कमी खिली और बस जभी उन्होंने ठान लिया की कुछ ऐसा करना चाहिए जिस से वह खुद और सभी हरियाणा वासी हरयाणवी गांव व रागनी का आनंद उठा सके तो उन्होंने रेडियो कसूत की एप्प बना डाली।  दिलचस्पी की बात यह है की इस एप्प के  बनते ही जन समूह का जो प्यार और प्रोत्साहन उमड़ा वह सराहनीय था। गौरतलब है की रेडियो कसूत के स्टूडियो अब तक चार अलग अलग देशो में स्थित हो चुके है और रेडियो के श्रोताओ की तादाद दिन पर दिन बढ़ रही है।  चार देश जहा से कार्येक्रम प्रसारित हो रहे  है वह देश  है ऑस्ट्रेलिया , भारत , न्यूज़ीलैण्ड और यूनाइटेड किंगडम जबकि रेडियो का सर्वर ऑस्ट्रेलिया में लगाया गया है ।"[viii]

अरूण मलिक[ix]--रेडियो कसूत एप को बनाने वाले इंजीनियर अरूण मलिक। पेशे से इंजीनियर है। उमरा गांव के निवासी हैं।
मनु पराशर[x] -- मनु पाराशर जो कि मेलबोर्न सिटी कॉउंसिल में कार्यरत्त है और शुरुआत से रेडियो कसूत से जुड़े हुए है ।  रेडियो कसूत में मीडिया संचालन संबंधी सभी कार्यो में अपने अनुभव से अपना योगदान देते हुए दिशा निर्देशन का काम कर रहे है।
जोगिंद्र बराक[xi]-- जोगिन्दर बड़क जो ब्रिस्बेन के एक सफल बिजनेसमैन है वह अपना सहयोग भी बढ़ चढ़ कर दे रहे है।  जोगिन्दर अपनी प्रेरक सोच के जरिये  रेडियो की वर्तमान व् भविष्य की कार्येप्रणाली पर काम करते हुए टीम में एक अहम् भूमिका में नज़र आते है। जोगिन्दर सनपेड़ा गाव, जिला सोनीपत निवासी है ।
भगत-- भगत खटकड़ जो की अरुण के साथ ब्रिस्बेन में रहते है उनका  देश और हरियाणा से प्रेम उन्हें रेडियो कसूत की तरफ खींच लाया। रेडियो में वह सहायक कलाकार के रूप में कई वीडियो में देखे जा सकते है व् साथ ही भगत और अरुण लाइव प्रोग्राम भी करते है।
रितु - रेडियो कसुत टीम में आर्ट एवं क्रिएटिव सर्विस के जरिए सहयोग कर रही है।
सुशील-- सुशील कुमार जो की मेलबोर्न में रहते है व् हर हफ्ते रेडियो पर लाइव प्रोग्राम करते है , रेडियो पर सुशिल का कार्येक्रम  ख़ास तोर पर हँसी-मजाक पर होता है जो की अपने श्रोताओ को ठहाके लगाने पर मजबूर कर देते है।  इस कार्येक्रम की शुरुआत करने वाले खुद सुशिल ही है जिनका मकसद है की आज की भाग दौड़ वाली जिंदगी में हमें हँसने को महत्व देना चाहिए।
रवि[xii] -- रवि माथुर जो की न्यूज़ीलैण्ड में रहकर रेडियो के प्रचार के लिए काम कर रहे है व् साथ साथ रेडियो कसूत के सोशल अकाउंट संभाल रहे है| रवि पूरी दुनिया में रेडियो कसूत के व्हाट्सएप्प ग्रुप संभाल रहे है
पवन दहिया-- पवन दहिया जो की दिल्ली पुलिस में कार्यरत्त है भी रेडियो में अहम भूमिका अदा कर रहे है, भारत में फील्ड से सबंधित काम इन्ही ने संभाला हुआ है एवं अपने व्यस्त रहने के बावजूद कड़ी मेहनत कर रहे है।  इनकी हँसी भरी बातो की वजह से यह अपनी टीम के बीच काफी चर्चित है।
पवन टोकस -- पवन टोकस जो की दिल्ली के मुनिरका गाँव में रहते है और पेशे से सॉफ्टवेर इंजीनियर है। मैनेजमेंट में अपने लंबे अनुभव के जरिये रेडियो के लिए तत्पर काम कर रहे है 
विनय सेहरावत-- विनय सेहरावत भी दिल्ली पुलिस में अपनी सेवा दे रहे है व् साथ ही साथ रेडियो कसूत में सोशल मीडिया एनालिस्ट का कार्येभार संभाले हुए है और इस काम में उनका साथ देती है उनकी धर्म पत्नी सोनिया सेहरावत। रेडियो में  विनय और सोनिया की कार्येप्रणाली व्  तालमेल देखते ही बनती है।  सोनिया पेशे से हिंदी की अध्यापिका है जो कि रेडियो के लिए काम करने के साथ साथ हमारे देश के भविष्य को सही दिशा की और ले जाने में अपना योगदान भी दे रही है।  
सोनिया दहिया- सोनिया राणा यूके के इंग्लैंड में स्तिथ रहकर रेडियो अलग अलग कार्येक्रमो में लगातार अपना सहयोग दे रही है।  सोनिया एक लंबे समय से हरियाणा की लोक संस्कृति से जुडी हुई है और अब अपने अनुभव से रेडियो कसूत  की कार्येप्रणाली में चार चाँद लगाने का काम कर रही है
 नीतू मलिक-- नीतू सिंह मलिक सुहाग जो ब्रिस्बेन में रहती है और ऑस्ट्रेलिया में हुए नमस्ते वर्ल्ड कार्येक्रम में हरियाणा का प्रतिनिधित्व कर चुकी है। नीतू एक राष्ट्रीय और आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी स्पोर्ट्स लेवल  खिलाडी भी रह चुकी है और अब रेडियो कसूत के जरिये हरयाणवी बोली का प्रचार कर रही है व् रेडियो के विभिन्न प्रकार के कार्यो में सहायक का काम बखूबी निभा रही है।   
राहुल- राहुल जो हरियाणा में स्तिथ है , इनकी जिम्मेवारी सोशल मीडिया को संभालने की व् साथ ही रेडियो के प्रचार की है।  राहुल एक छात्र है और पढाई के साथ साथ रेडियो कसूत में महत्वपूर्ण भूमिका अदा  कर रहे है
 हरविंदर ढांडा भी हरियाणा में रहकर रेडियो के प्रचार व् साथ ही सोशल मीडिया संबंधी कार्यो में अपना योगदान दे रहे है।
सभी सदस्य अलग अलग क्षेत्र से है और एक साथ मिलजुलकर सिर्फ एक मकसद के लिए काम कर रहे है जो हरयाणवी संस्कृति को संजोए रखने का है जो आज लुप्त होने की कगार पर है।

आजकल फेसबुक पेज और रेडियो के जरए मेरी बेटी प्रोग्राम और प्रतियोगिता शुरू की हुई है, जिसका मुख्य उद्देश्य है हरयाणा में बेटियों के प्रति जागरूकता फैलाना और भ्रूण हत्या को खत्म करना। बेटा-बेटी के भेदभाव को मिटाकर एक बेहतर समाज की नींव रखने में रेडियो कसूत टीम अपनी भूमिका निभा रही है।
भविष्य की योजनाएं[xiii]

१. रेडियो कसूत के माध्यम से हरयाणवी बोली को हरयाणा और आस पास के प्रदेशो में घर घर तक  पहुँचाना
२. जल्दी ही हरयाणा सरकार से मिलकर रेडियो की फ्रीक्वेंसी लेना
३. अगले एक साल तक लाइव रेडियो के साथ साथ पेर्सोनालिसेड रेडियो भी शुरू करना
४. हरयाणवी संस्कृति से जुड़े प्रोग्राम रेडियो के द्वारा लाइव प्रस्तुत करना
५. देश विदेश में जहाँ हरयाणा के लोग है, समय समय पर सांस्कृतिक प्रोग्राम करना
निष्कर्ष- अतः रेडियो कसूत की पूरी टीम हरियाणवी संस्कृति और भाषा के प्रचार-प्रसार को देश-विदेश दोनों जगह समृद्ध करती हुई विश्वपटल पर और इंटरनेट के माध्यम से उस स्पेस में जगह बना रही है। जहां हरियाणवी को लेकर अनेक तरह के पूर्वग्रह से ग्रस्त लोग मौजूद है। यहां इस नए प्लेटफार्म पर हरियाणवी का विकास तो होगा ही साथ में इस तरह की नकारात्मक धारणाओं को तोड़ने में भी सहायक होगा। इस तरह के प्रयासों से यह कहा जा सकता है कि हरियाणवी का आने वाला भविष्य आर्थिक तौर पर भी समृद्ध होगा। कोई भी भाषा अपने आर्थिक तंत्र के बिना ज्यादा लंबे समय तक जीवित नहीं रह पाती। उसे बदलते समाज और तकनीक के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना पड़ता है। आज हरियाणवी भी अपने आप को जकड़बंदियों से मुक्त करके आगे बढ़ रही है और धारणाओं को तोड़ रही है साथ में बदल भी रही है। यह बदलाव हरियाणवी जनता और बाहर दोनों तरफ हो रहे हैं। इसलिए हरियाणवी की भविष्य ओर बेहतर लग रहा है, क्योंकि बदलाव बाहर और भीतर दोनों तरफ हो रहे हैं। इस बदलाव में रेडियो कसूत की भूमिका काफी निर्णायक है और होगी। भाषा और संस्कृति के लिए यह एक अमूल्य योगदान है।



संदर्भ सूची
[i] http://radiokasoot.com
[ii] http://radiokasoot.com
[iii] https://play.google.com/store/apps/details?id=com.radiokasoot.www&hl=hi
[iv] https://itunes.apple.com/in/app/radio-kasoot/id1086344819?mt=8
[v] https://www.youtube.com/channel/UCvTBpYLoUl0nyoZ5yTeWWnQ
[vi] https://www.facebook.com/radiokasoot/
[vii] radiokasoot@gmail.com
[viii] रेडियो कसूत की टीम द्वारा भेजा गया मेल
[ix] https://www.facebook.com/malikarun?ref=br_rs
[x] https://www.facebook.com/warbirdz?fref=pb&hc_location=friends_tab
[xi] https://www.facebook.com/jogi.barak?fref=pb&hc_location=friends_tab
[xii] https://www.facebook.com/neetu.s.malik?fref=pb&hc_location=friends_tab
[xiii] रेडियो कसूत से मेल के जरिए मिली जानकारी

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

खेल सिर्फ खेल नहीं होता

पढ़ना-लिखना जैसे आज जिंदगी का सबसे बड़ा हिस्सा है। कभी खेल हुआ करता था। जिंदगी में बहुत कुछ खेल से भी सीखा है। आज एक ऐसी ही घटना का बताता हूँ। वैसे तो रेस करना और कबड्डी खेलना मेरे सबसे प्रिय और हुनर के खेल थे पर क्रिकेट भी कम नहीं था।
एक बार आपस में खेल रहे थे मैच। टेनिस बॉल से। मैच आखिरी ऑवर में पहुंच गया था। आखिरी ऑवर की बी 2 गेंद बची थी और छः रन चाहिए थे। सेकंड लास्ट बॉल खाली निकल गयी और अंतिम गेंद पर छः रन चाहिए थे। मैं बैटिंग कर रहा था और मुझे ऐसा लगा कि मैं दबाव महसूस कर रहा हूँ।

दबाव में खेलना मुश्किल काम होता है और यह कमजोरी मेरी आज भी है। दबाव मुझे कमजोर बनाता है और मैं अपना बेस्ट नहीं दे पाता। पर बौद्धिक रूप से उस क्षण में मैं कमजोर नहीं होता और निर्णय लेते वक्त ज्यादा व्यावहारिक हो जाता हूँ। निर्णय और विश्वास का क्षण था तो

मैंने निर्णय लिया कि अंतिम गेंद दूसरा खिलाडी खेलेगा। उसको बैट पकड़ाते हुए मैंने उसे सिर्फ इतना कहा खुलकर खेलना। हार-जीत की मत सोचना। तुम छक्का मार दोगे। मुझे पता है। क्योंकि
बॉलर को अति आत्म-विश्वास हो जायेगा और वो इस विचार से बाहर ही नहीं निकल पायेगा कि बिल्लू मुझसे डर कर बैट छोड़ गया। बॉलर वैसे भी मुझसे मन ही मन खार खाये रहता था। क्योंकि मैं सम्बंधों से ज्यादा हुनर का कायल रहा हूँ। हुनर हो तो मुझे दुश्मन भी पसन्द होता है बल्कि फ़ैन की सीमा तक होता है। बॉलर के चेहरे पर विजेता के भाव थे जो मुझे हमारी जीत का संकेत दे रहे थे। ठीक वैसा ही हुआ जैसा मैंने सोचा था। उसने फूल लेंथ गेंद फेंकी और उस पर सन्दीप उर्फ़ कालिया ने छक्का जड़ दिया। हालाँकि

मैं मारता तो बॉलर को ज्यादा टीस होती पर उसमें खतरा भी था हारने का। मेरा मकसद उसे टीस पहुंचाना नहीं था बल्कि अपनी नेतृत्व क्षमता को बढ़ाना था। इस तरह की घटनाओं ने मुझमें नेतृत्व की क्षमता बढ़ाई भी। जब मैं नेतृत्व कर रहा होता हूँ तो मेरी व्यक्तिगत कुंठाएं कहीं गहरे दब जाती है उस समय मैं केवल प्रतिनिधित्व कर रहा होता हूँ। जिसकी वजह से आज भी मेरे पान्ने के खिलाडी मेरा सम्मान करते हैं। जो मुझे और अधिक जिम्मेदार बनने के लिए प्रेरित करता है।


जिंदगी सीखने का नाम है और हर पल और हर जगह से सीखते चलिए।

बुधवार, 27 जुलाई 2016

रंगमंच और पारंपरिक कलाएं

भारतीय समाज में पारंपरिकता का विशेष स्‍थान है । परंपरा एक सहज प्रवाह है । निश्‍चय ही, पारंपरिक कलाएं समाज की जिजीविषा, संकल्‍पना, भावना, संवेदना तथा ऐतिहासिकता को अभिव्‍यक्‍त करती हैं । नाटक अपने आप में संपूर्ण विधा है, जिसमें अभिनय, संवाद, कविता, संगीत इत्‍यादि एक साथ उपस्थित रहते हैं । परंपरा में नाटक्‍ एक कला की तरह है । लोकजीवन में गेयता एक प्रमुख तत्‍व है । सभी पारंपरिक भारतीय नाट्यशैलियों में गायन की प्रमुखता है । यह जातीय संवेदना का प्रकटीकरण है ।

पारंपरिक रूप से लोक की भाषा में सृजनात्‍मकता सूत्रबद्ध रूप में या शास्‍त्रीय तरीके से नहीं, अपितु बिखरे, छितराये, दैनिक जीवन की आवश्‍यकताओं के अनुरूप होती है । जीवन के सघन अनुभवों से जो सहज लय उत्‍पन्‍न होती है, वही अंतत: लोकनाटक बन जाती है । उसमें दु:ख, सुख, हताशा, घृणा, प्रेम आदि मानवीय प्रसंग आते हैं ।

भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों में तीज-त्‍यौहार, मेले, समारोह, अनुष्‍ठान, पूजा-अर्चना आदि होते रहते हैं, उन अवसरों पर ये प्रस्‍तुतियां भी होती हैं । इसलिए इनमें जनता का सामाजिक दृष्टिकोण प्रकट होता है । इस सामाजिकता में गहरी वैयक्तिकता भी     होती है ।

पारंपरिक नाट्य में लोकरुचि के अलावा क्‍लासिक तत्‍त्‍व भी उपस्थित होते हैं, लेकिन क्‍लासिक अंदाज़ अने क्षेत्रीय, स्‍थानीय एवं लोरूप में होते हैं । संस्‍कृत रंगमंच के निष्क्रिय होने पर उससे जुड़े लोग प्रदेशों में जांकर वहां के रंगकर्म से जुड़े होंगे । इस प्रकार लेन-देन की प्रक्रिया अनेक रूपों में संभव हुई । वस्‍तुत: इसके कई स्‍तर थे- लिखित, मौखिक, शास्‍त्रीय-तात्‍कालिक, राष्‍ट्रीय- स्‍थानीय ।

विभिन्‍न पारंपरिक नाट्यों में प्रवेश-नृत्‍य, कथन नृत्‍य और दृश्‍य नृत्‍य की प्रस्‍तुति किसी न किसी रूप में होती है । दृश्‍य नृत्‍य का श्रेष्‍ठ उदाहरण बिदापत नाच नामक नाट्य शैली में भी मिलता है । इसकी महत्‍ता किसी प्रकार के कलात्‍मक सौंदर्य में नहीं, अपितु नाट्य में है तथा नृत्‍य के दृश्‍य पक्ष की स्‍थापना करने में है । कथन नृत्‍य पारंपरिक नाट्य का आधार है । इसका अच्‍छा उपयोग गुजरात की भवाई में देखने को मिलता है । इसमें पदक्षेप की क्षिप्र अथवा मंथर गति से कथन की पुष्टि होती है । प्रवेश नृत्‍य का उदाहरण है- कश्‍मीर का भांडजश्‍न नृत्‍य । प्रत्‍येक पात्र की गति और चलने की भंगिमा उसके चरित्र को व्‍यक्‍त करती है । कुटियाट्टम तथा अंकिआनाट में प्रेवश नृत्‍य जटिल तथा कलात्‍मक होते हैं । दोनों ही लोकनाट्य शै‍लियों में गति व भंगिमा से स्‍वभावगत वैशिष्‍ट्य को दर्शक तक पहुँचाते हैं ।

पारंपरिक नाट्य में परंपरागत निर्देशों तथा तुरंत उत्‍पन्‍न मति को मिश्रण होता है । परंपरागत निर्देशों का पालन गंभीर प्रसंगों पर होता है, लेकिन समसामयिक प्रसंगों में अभिनेता या अभिनेत्री अपनी आवश्‍यकता से भी संवाद की सृष्टि कर लेता है । भिखारी ठाकुर के बिदेसियामें ये दोनों स्‍तर पर कार्य करते हैं ।

.पारंपरिक नाट्यों में कुछ विशिष्‍ट प्रदर्शन रुढियां होती हैं । ये रंगमंच के रूप, आकार तथा अन्‍य परिस्थितियों से जन्‍म लेती हैं । पात्रों के प्रवेश तथा प्रस्‍थान का कोई औपचारिक रूप नहीं होता । नाटकीय स्थिति के अनुसार बिना किसी भूमिका के पात्र रंगमंच पर आकर अपनी प्रस्‍तुति करते हैं । किसी प्रसंग और खास दृश्‍य के पात्रों के एक साथ रंगमंच को छोड़कर चले जाने अथवा पीछे हटकर बैठ जाने से नाटक में दृश्‍यांतर बता दिया जाता है ।
पारंपरिक नाट्यों में सुसंबद्ध दृश्‍यों के बदले नाटकीय व्‍यापार की पूर्ण इकाइयां होती हैं । इसका गठन बहुत शिथिल होता है, इसलिए नए-नए प्रसंग जोड़ते हुए कथा-विस्‍तार के लिए काफी संभावना रहती है । अभिनेताओं तथा दर्शकों के बीच संप्रेषण सीधा व सरल होता है ।

नाट्य परंपरा पर औद्योगिक सभ्‍यता, औद्यो‍गीकरण तथा नगरीकरण का असर भी पड़ा है । इसकी सामाजिक-सांस्‍कृतिक पड़ताल करनी चाहिए । कानपुर शहर नौटंकी का प्रमुख केन्‍द्र बन गया था । नर्तकों, अभिनेताओं, गायकों इत्‍यादि ने इस स्थिति का उपयोग कर स्‍थानीय रूप को प्रमुखता से उभारा ।पारंपरिक नाट्य की विशिष्‍टता उसकी सहजता है । आखिर क्‍या बात है कि शताब्दियों से पारंपरिक नाट्य जीवित रहने तथा सादगी बनाए रखने में समर्थ सिद्ध हुए हैं ? सच तो यह है कि दर्शक जितना शीघ्र, सीधा, वास्‍तविक तथा लयपूर्ण संबंध पारंपरिक नाट्य से स्‍थापित कर पाता है, उतना अन्‍य कला रूपों से नहीं । दर्शकों की ताली, वाह-वाही उनके संबंध को दर्शाती है ।

वस्‍तुत: पारंपरिक नाट्यशैलियों का विकास ऐसी स्‍थानीय या क्षेत्रीय विशिष्‍टता के आधार पर हुआ, जो सामाजिक, आर्थिक स्‍तरबद्धता की सीमाओं से बँधी हुई नहीं थीं । पारंपरिक कलाओं ने शास्‍त्रीय कलाओं को प्रभावित किया, साथ ही, शास्‍त्रीय कलाओं ने पारंपरिक कलाओं को प्रभावित किया । यह एक सांस्‍कृतिक अन्‍तर्यात्रा है ।

पारंपरिक लोकनाट्यों में स्थितियों में प्रभावोत्‍पादकता उत्‍पन्‍न करने के लिए पात्र मंच पर अपनी जगह बदलते रहते हैं । इससे एकरसता भी दूर होती है । अभिनय के दौरान अभिनेता व अभिनेत्री प्राय: उच्‍च स्‍वर में संवाद करते हैं । शायद इसकी वजह दर्शकों तक अपनी आवाज़ सुविधाजनक तरीके से पहुँचानी है । अभिनेता अपने माध्‍यम से भी कुछ न कुछ जोड़ते चलते हैं । जो आशु शैली में जोड़ा जाता है, वह दर्शकों को भाव-विभोर कर देता है, साथ ही, दर्शकों से सीधा संबंध भी बनाने में सक्षम होता है । बीच-बीच में विदूषक भी यही कार्य करते हैं । वे हल्‍के-फुल्‍के ढंग से बड़ी बात कह जाते हैं । इसी बहाने वे व्‍यवस्‍था, समाज, सत्‍ता, प‍रिस्थितियों पर गहरी टिप्‍पणी करते हैं । विदूषक को विभिन्‍न पारंपरिक नाट्यों में अलग-अलग नाम से पुकारते हैं । संवाद की शैली कुछ इस तरह होती है कि राजा ने कोई बात कही, जो जनता के हित में नही है तो विदूषक अचानक उपस्थित होकर जनता का पक्ष ले लेगा और ऐसी बात कहेगा, जिससे हँसी तो छूटे ही, राजा के जन-विरोधी होने की कलई भी खुले ।


विविध पारंपरिक नाट्य शैलियां

भांड-पाथर, कश्‍मीर का पारंपरिक नाट्य है । यह नृत्‍य, संगीत और नाट्यकला का अनूठा संगम है । व्‍यंगय मज़ाक और नकल उतारने हेतु इसमें हँसने और हँसाने को प्राथमिकता दी गयी है । संगीत के लिए सुरनाई, नगाड़ा और ढोल इत्‍यादि का प्रयोग किया जाता है । मूलत: भांड कृषक वर्ग के हैं, इसलिए इस नाट्यकला पर कृषि-संवेदना का गहरा प्रभाव है ।

 स्‍वांग, मूलत: स्‍वांग में पहले संगीत का विधान रहता था, परन्‍तु बाद में गद्य का भी समावेश हुआ । इसमें भावों की कोमलता, रससिद्धि के साथ-साथ चरित्र का विकास भी होता है । स्‍वांग को दो शैलियां (रोहतक तथा हाथरस) उल्‍लेखनीय हैं । रोहतक शैली में हरियाणवी (बांगरू) भाषा तथा हाथरसी शैली में ब्रजभाषा की प्रधानता है ।

नौटंकी प्राय: उत्‍तर प्रदेश से सम्‍बंधित है । इसकी कानपुर, लखनऊ तथा हाथरस शैलियां प्रसिद्ध हैं । इसमें प्राय: दोहा, चौबोला, छप्‍पय, बहर-ए-तबील छंदों का प्रयोग किया जाता है । पहले नौटंकी में पुरुष ही स्‍त्री पात्रों का अभिनय करते थे, अब स्त्रियां भी काफी मात्रा में इसमें भाग लेने लगी हैं । कानपुर की गुलाब बाई ने इसमें जान डाल दी । उन्‍होंने नौटंकी के क्षेत्र में नये कीर्तिमान स्‍थापित किए ।

रासलीला में कृष्‍ण की लीलाओं का अभिनय होता है । ऐसे मान्‍यता है कि रासलीला सम्‍बंधी नाटक सर्वप्रथम नंददास द्वारा रचित हुए इसमें गद्य-संवाद, गेय पद और लीला दृश्‍य का उचित योग है । इसमें तत्‍सम के बदले तद्भव शब्‍दों का अधिक प्रयोग होता है ।

भवाई, गुजरात और राजस्‍थान की पारंपरिक नाट्यशैली है । इसका विशेष स्‍थान कच्‍छ-काठियावाड़ माना जाता है । इसमें भुंगल, तबला, ढोलक, बांसुरी, पखावज, रबाब, सारंगी, मंजीरा इत्‍यादि वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है । भवाई में भक्ति और रूमान का उद्भुत मेल देखने को मिलता है ।



जात्रा, देवपूजा के निमित्‍त आयोजित मेलों, अनुष्‍ठानों आदि से जुड़े नाट्यगीतों को जात्राकहा जाता है । यह मूल रूप से बंगाल में पला-बढ़ा है । वस्‍तुत: श्री चैतन्‍य के प्रभाव से कृष्‍ण-जात्रा बहुत लो‍कप्रिय हो गयी थी । बाद में इसमें लौकिक प्रेम प्रसंग भी जोड़े गए । इसका प्रारंभिक रूप संगीतपरक रहा है । इसमसेंस कहीं-कहीं संवादों को भी संयोजित किया गया । दृश्‍य, स्‍थान आदि के बदलाव के बारे में पात्र स्‍वयं बता देते हैं ।

माच, मध्‍य प्रदेश का पारंपरिक नाट्य है । माचशब्‍द मंच और खेल दोनों अर्थों में इस्‍तेमाल किया जाता है । माच में पद्य की अधिकता होती है । इसके संवादों को बोल तथा छंद योजना को वणग कहते हैं । इसकी धुनों को रंगत के नाम से जाना जाता है ।

 भाओना, असम के अंकिआ नाट की प्रस्‍तुति है । इस शैली में असम, बंगाल, उड़ीसा, वृंदावन-मथुरा आदि की सांस्‍कृतिक झलक मिलती है ।  इसका सूत्रधार दो भाषाओं में अपने को प्रकट करता है- पहले संस्‍कृत, बाद में ब्रजबोली अथवा असमिया में ।

तमाशा महाराष्‍ट्र की पारंपरिक नाट्यशैली है । इसके पूर्ववर्ती रूप गोंधल, जागरण व कीर्तन रहे होंगे । तमाशा लोकनाट्य में नृत्‍य क्रिया की प्रमुख प्रतिपादिका स्‍त्री कलाकार होती है । वह मुरकीके नाम से जानी जाती है । नृत्‍य के माध्‍यम से शास्‍त्रीय संगीत, वैद्युतिक गति के पदचाप, विविध मुद्राओं द्वारा सभी भावनाएं दर्शाई जा सकती हैं ।

दशावतार कोंकण व गोवा क्षेत्र का अत्‍यंत विकसित नाट्य रूप है । प्रस्‍तोता पालन व सृजन के देवता-भगवान विष्‍णु के दस अवतारों को प्रस्‍तुत करते हैं । दस अवतार हैं- मत्‍स्‍य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्‍ण (या बलराम), बुद्ध व कल्कि । शैलीगत साजसिंगार से परे दशावतार का प्रदर्शन करने वाले लकड़ी व पेपरमेशे का मुखौटा पहनते हैं ।
केरल का लोकनाट्य कृष्‍णाट्टम 17वीं शताब्‍दी के मध्‍य कालीकट के महाराज मनवेदा के शासन के अधीन अस्तित्‍व में आया । कृष्‍णाट्टम आठ नाटकों का वृत्‍त है, जो क्रमागत रुप में आठ दिन प्रस्‍तुत किया जाता है । नाटक हैं-अवतारम्, कालियमर्दन, रासक्रीड़ा, कंसवधाम् स्‍वयंवरम्, वाणयुद्धम्, विविधविधम्, स्‍वर्गारोहण । वृत्‍तांत भगवान कृष्‍ण को थीम पर आधारित हैं- श्रीकृष्‍ण जन्‍म, बाल्‍यकाल तथा बुराई पर अच्‍छाई के विजय को चित्रित करते विविध कार्य ।

 केरल के पारंपरिक लोकनाट्य मुडियेट्टु का उत्‍सव वृश्चिकम् (नवम्‍बर-दिसम्‍बर) मास में मनाया जाता है । यह प्राय: देवी के सम्‍मान में केरल के केवल काली मंदिरों में प्रदर्शित किया जाता है । यह असुर दारिका पर देवी भद्रकाली की विजय को चित्रित करता है । गहरे साज-सिंगार के आधार पर सात चरित्रों का निरूपण होता है- शिव, नारद, दारिका, दानवेन्‍द्र, भद्रकाली, कूलि, कोइम्बिदार (नंदिकेश्‍वर) ।
 कुटियाट्टम, जो कि केरल का सर्वाधिक प्राचीन पारंपरिक लोक नाट्य रुप है, संस्‍कृत नाटकों की परंपरा पर आधारित है । इसमें ये चरित्र होते हैं- चाक्‍यार या अभिनेता, नांब्‍यार या वादक तथा नांग्‍यार या स्‍त्रीपात्र । सूत्रधार और विदूषक भभ्‍ कुटियाट्टम् के विशेष पात्र हैं । सिर्फ विदूषक को ही बोलने की स्‍वंतत्रता है । हस्‍तमुद्राओं तथा आंखों के संचलन पर बल देने के कारण यह नृत्‍य एवं नाट्य रूप विशिष्‍ट बन जाता है ।

 कर्नाटक का पारंपरिक नाट्य रूप यक्षगान मिथकीय कथाओं तथा पुराणों पर आधारित है । मुख्‍य लोकप्रिय कथानक, जो महाभारत से लिये गये हैं, इस प्रकार हैं : द्रौपदी स्‍वयंवर, सुभद्रा विवाह, अभिमन्‍युवध, कर्ण-अर्जुन युद्ध तथा रामायण के कथानक हैं : वलकुश युद्ध, बालिसुग्रीव युद्ध और पंचवटी ।
 तमिलनाडु की पारंपरिक लोकनाट्य कलाओं में तेरुक्‍कुत्‍तु अत्‍यंत जनप्रिय माना जाता है । इसका सामान्‍य शाब्दिक अर्थ है- सड़क पर किया जाने वाला नाट्य । यह मुख्‍यत: मारियम्‍मन और द्रोपदी अम्‍मा के वार्षिक मंदिर उत्‍सव के समय प्रस्‍तुत किया जाता है । इस प्रकार, तेरुक्‍कुत्‍तु के माध्‍यम से संतान की प्राप्ति और अच्‍छी फसल के लिए दोनों देवियों की आराधना की जाती है । तेरुक्‍कुत्‍तु के विस्‍तृत विषय-वस्‍तु के रुप में मूलत: द्रौपदी के जीवन-चरित्र से सम्‍बंधित आठ नाटकों का यह चक्र होता है । काट्टियकारन सूत्रधार की भूमिका निभाते हुए नाटक का परिचय देता है तथा अपने मसखरेपन से श्रोताओं का मनोरंजन करता है । 

स्रोत--http://ccrtindia.gov.in/hn/theatreforms.php





बुधवार, 20 जुलाई 2016

इब ज़ुल्म सहा नै जावैगा प्रतिकार म्हार नारा सै

ज़िंदा गां थारी सै
सारा दूध थारा सै
देबी सै मां सै
गोरक्षा का नारा सै
बाछड़ा हांडै गली गली
बछिया माल थारा सै
खुरपी थराती हाम खींचै
चिकणी खाल थारी सै
खून पसीना म्हारा सै
हल अर बैल थारे सै
दान दक्षिणा तम लूटो
कर्ज़े हाम पै सारे सैं
सीता राम थारे सैं
गंदे काम म्हारे सै
फटी बिवाई म्हारी सै
चिकने हाथ थारे सै
कोर्ट कचहरी मैं तम सो
फैक्ट्री अर मिल थारी सै
दोनूं मिल कै मारै सींटी सै
मंदर मस्ज़द पंडत सयद
सारे ठाठ थारे सै
तो ल्यो यैं लाश थारी सै
यै मरी होई मां सै
ले जाओ पूजा पाठ करो
सारी हाड्डी खाल थारी सै
हाम कलम चलावैंगे इब तो
संसद में जावैंगे इब तो
तम करो धर्म की रक्षा भाई
हाम देश बचावैंगे इब तो।
इब ज़ुल्म सहा नै जावैगा
प्रतिकार म्हार नारा सै
सन्देश भीम का ल्याए सैं
यो हिन्दुस्तान म्हारा सै।

(गुजरात के बहादुर दलित कार्यकर्ताओं को समर्पित)
अशोक पांडे की हिंदी कविता का हरियाणवी अनुवाद

रविवार, 17 जुलाई 2016

प्रधानमंत्री मोदी को किसान-हित भी याद रहते सिख शहीद बन्दा सिंह बहादुर की शहादत पर


प्रधानमंत्री मोदी ने सिख सैन्य कमांडर बंदा सिंह बहादुर को रविवार को एक महान योद्धा करार दिया और कहा कि उनके प्रयासों के कारण किसानों को पहली बार अपना हक मिला और आम आदमी ने सशक्त महसूस किया। काश! प्रधानमंत्री मोदी को यह भी याद रहता है कि हाल ही में उनकी केंद्र सरकार और हरियाणा की भाजपा सरकार ने किसान हितों की अनदेखी करते हुए स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने से मना कर दिया है।  फसलों की सही कीमत न मिलने के कारण देशभर के किसान लगातार आत्महत्याएं कर रहे हैं और दूसरी तरफ सरकार किसानों से मुंह फेर रही है, जबकि चुनाव के समय मोदी जी ने स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने का वादा किया था। मोदी ने यहां सिख सैन्य कमांडर के 300वें शहीदी दिवस पर आयोजित एक समारोह में कहा कि बाबा बंदा सिंह बहादुर जी सिर्फ एक महान योद्धा नहीं थे, बल्कि आम जनता के प्रति वह काफी संवेदनशील भी थे। गुरु गोबिंद सिंह से प्रेरणा पाने के बाद उन्होंने एक योद्धा के मूल्यों को आत्मसात किया और सामाजिक विकास की एक नई यात्रा शुरू की।सिख शहीद बंदा बहादुर को असली शहादत तब मिलती जब सरकार उनके जीवन-मूल्यों पर अमल करती और संवेदनशीलता के साथ-साथ किसानों के हितों में काम करती।
बंदा बहादुर की नीयत और नीतियां किसानों और आमजन के हितों में

बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के राजौरी क्षेत्र में 1670 ई. तदनुसार विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 को हुआ था। बन्दा सिंह बहादुर एक सिख सेनानायक थे। उन्हें बन्दा बहादुर, लक्ष्मन दास और माधो दास भी कहते हैं। वे पहले ऐसे सिख सेनापति हुए, जिन्होंने मुगलों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा; छोटे साहबजादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्ता सम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ की नीव रक्खी।
मरने से पूर्व बन्दा बैरागी ने अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा कृषकों को बड़े-बड़े जागीरदारों और जमींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था। वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से परे था। मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया था। पाँच हजार मुसलमान भी उसकी सेना में थे। बन्दासिंह ने पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगा और वे सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ और खुतवा पढ़ने में पूरी तरह स्वतन्त्र होंगे।
किसानों के खिलाफ नीतियां बनाकर और देश में सांप्रदायिकता का माहौल खड़ा करके कैसे सिख शहीद बंदा बहादुर को श्रद्धाजंलि दी जा सकती है? जबकि सरकार की नीयत और नीतियां किसानों और आम जनता के खिलाफ हैं।

सरकार और निजी विद्यालयों के बीच पीसते गरीब छात्र

साथ ही स्कूल संचालक 134 ए के तहत एडमिशन देने में भी आनाकानी करते थे। इस कारण कई बार बच्चों का भविष्य खतरे में पड़ जाता था। लेकिन शनिवार को स्कूल संचालकों के साथ हुई बैठक के दौरान जिले सिंह अत्री ने स्पष्ट कर दिया कि स्कूल संचालकों को 134 ए के तहत बच्चों को दाखिला देना ही होगा।

स्कूल नहीं जमा कराते फार्म नं. 6 :हर साल की तरह निजी स्कूलों ने अभी तक फार्म नं. 6 नहीं जमा कराए हैं। पिछले वर्ष भी स्कूलों ने फार्म नं. 6 को भरने में आनाकानी दिखाई थी लेकिन जिला शिक्षा अिधकारी के सख्त रवैए के चलते अब की बार फार्म नं. 6 जमा न कराने पर गाज गिरना तय माना जा रहा है।
चयनित दुकान पर मिलता है बुक सेट
प्राइवेट स्कूल बुक्स-कापी के अलावा वर्दी की स्लिप पेरेंट्स को थमा देते हैं। निजी स्कूल संचालक शिक्षा अिधकारी के आदेशों के बावजूद स्कूलों में यूनिफार्म व बुक्स धड़ल्ले से बेच रहे हैं। हाल ही में कैंट के काॅन्वेंट ऑफ सेक्रेड हार्ट में किताबें बेचने का मामला सामने आया था। जिसे लेकर जिला शिक्षा अिधकारी जल्द ही स्कूल प्रशासन को नोटिस देने की तैयारी कर रहे हैं। इसके बाद तय माना जा रहा है कि स्कूल पर सख्त कार्रवाई हो सकती है।
10 गुणा महंगे प्राइवेट पब्लिशर्स
प्राइवेट पब्लिशर्स की बुक्स एनसीईआरटी से दस गुणा ज्यादा महंगी हैं, एनसीईआरटी का फर्स्ट व सेकंड क्लास का सेट महज 230 रुपए का है जबकि प्राइवेट पब्लिशर्स की नर्सरी, एलकेजी व फर्स्ट स्टैंडर्ड की बुक्स का सेट ही 3400 से 4000 रुपए का है।
निजीस्कूलों में अगर बच्चों को नियम 134ए के तहत नि:शुल्क पढ़ाना है तो प्रदेश सरकार को उसके बदले में स्कूलों को तय राशि देनी ही होगी। अगर ऐसा नहीं होता है तो निजी स्कूल किसी भी हालत में बच्चों को नि:शुल्क नहीं पढ़ाएंगे। चाहे इसके लिए स्कूलों को बंद ही क्यों करना पड़ जाए। हम कोर्ट में जाने को भी तैयार हैं।

यह दो टूक बात हरियाणा संयुक्त विद्यालय संघ के प्रधान विजेंद्र मान ने कही है। शुक्रवार को यहां पत्रकारों से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि पिछले साल कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया था कि वे स्कूलों को बच्चे पढ़ाने के बदले तय राशि देगी, लेकिन दिया कुछ नहीं। जो बच्चे अभी स्कूल जा रहे हैं आगे अगर फीस नहीं दी तो उन्हें भी स्कूल छोड़ना होगा। सरकार को चाहिए कि वे हर पात्र विद्यार्थी को एजुकेशन वाउचर दे, जिससे वह अपने पसंदीदा स्कूल में दाखिला ले सके।

जिला प्रधान अजमेर सिंह ने कहा कि सरकार की लापरवाही के कारण बच्चों का भविष्य प्रभावित हो रहा है। सरकार ने एक तो ऐन मौके पर ड्रा घोषित नहीं किया। उपर से लोग गुमराह हो रहे हैं। उस पर विद्यार्थियों को परेशानी होगी, क्योंकि सरकार द्वारा मेधावी की योग्यता जानने के लिए एडीसी की अध्यक्षता में एक टैस्ट आयोजित किया जाएगा। इसमें कम से कम 55 प्रतिशत अंकों वालों को ही ड्रा में शामिल किया जाएगा।
नियम 158 : इस नियम के तहत प्रत्येक प्राइवेट स्कूल को वर्ष की शुरूआत में फॉर्म नंबर छह भरना होता है। फॉर्म नंबर छह में प्राइवेट स्कूलों को यह जानकारी शिक्षा विभाग को उपलब्ध करानी होती हैं कि वह क्या सुविधाएं उपलब्ध करा रहा है।
केंद्र सरकार के शिक्षा अधिकार कानून यानी आरटीई-२००९ के मुताबिक, हर स्कूल 25 फीसदी गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देगा और अन्य जरूरी सुविधाओं का भी ध्यान रखेगा। इसके लिए केंद्र सरकार बजट देगी। लेकिन बजट का प्रावधान केवल सरकारी स्कूलों के लिए किया गया।
हरियाणा एजुकेशन एक्ट-2003 की धारा-134ए- हरियाणा सरकार के इस नियम के अंतर्गत 25 फीसदी गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देंगे। यह हर स्कूल के लिए अनिवार्य होगा । लेकिन इस कानून में बजट का प्रावधान नहीं दिया गया इसलिए इसका निजी स्कूल संचालक विरोध कर रहे हैं।


आरके आनंद के दावों में हैं कितना दम