रविवार, 24 अप्रैल 2016

बुर्के और घूंघट से चईये आज़ादी

हंगामा सै क्यूं बरपा, बुर्का ही तो हटाया सै

पहली बात तो या सै अक बुर्का, घूंघट आदि को केवल स्त्री की मर्जी और मन-मर्जी का बताना ही दरअसल वह साज़िश सै जिसका हम विरोध कर रहे सै।

स्त्री अपने फ़ैसले ख़ुद ले सकै। या ए तो आज़ादी चाहिए सै। लम्पट किस्म पुरुष जाणै सै अक उनकी नज़र में आजादी के होवै सै। उनकी नज़र में आजादी का मतलब सै किसी भी लड़की से शारीरिक सम्बन्ध बनाना और शादी के बाद भी मनचाही लड़की से सम्बन्ध बनाना। सम्बन्ध भी केवल शारीरिक बनाना।

अब जिनकी नज़र स्त्री के शरीर के आस-पास मंडराती रहती हो वै तो आज़ादी का मतलब यो ए समझेंगे।

इन लम्पटों की तड़प मेरे खूब समझ आ ऋ सै। मेरै आवैगी क्यूं नहीं? मैं भी तो उसी समझ और दौर से गुज़र कर निकला हूँ। तब तो मुझे भी हर मुस्कुराती लड़की निमन्त्रण देती हुई लगती थी। धीरे-धीरे समझ आने लगा कि सामने वाली को मेरे से बात करना अच्छा लगेगा या मेरा उठना-बैठना पसन्द होगा। मेरा पढ़ना-लिखना पसन्द होगा। पर इसका मतलब यो कोनी अक उसनै मेरे साथ सोना या शारीरिक सम्बन्ध ही बनाना हो। यह समझना होगा कि कोई लड़की मेरे पास आवै सै तो इसका मतलब यो कोनी होता कि उसका 'देने' का ही मन हो। जैसा म्हारा हर किसी की 'लेने' का करै सै। जी! हाँ कुछ साल पहले तक यही सोच मेरा भी था। जिसमें लेने-देने के अलावा स्त्री कहीं नहीं थी।

जब हम किसी लड़की से दोस्ती या प्रेम की शुरुवात करै सै तो दोस्तों की पहली जिज्ञासा यही होवै सै अक ली की नहीं। ईमानदारी से सोचकर देखना हम स्त्री को कैसे देखते और सोचते सै?

दरअसल हम सब एक डरपोक समाज की देन सै

समाज ने हमें इतना डराया हुआ सै स्त्री के प्रति कि स्त्री म्हारी नज़र में संसार की सबसे अविश्वनीय प्राणी सै। बस माँ और बहन ही संसार की सबसे पवित्र प्राणी सै बाकि...। बाकि आप ख़ुद समझदार सै।

स्त्री आज़ाद होगी तो ये समाज भी अपनी बन्द गलियों से आगे निकलेगा। आगे निकलेगा तो गालियों से भी मुक्ति मिलेगी। इसलिए बुर्के और घूंघट से आज़ादी हम सब की आज़ादी सै।

दरअसल लड़कियों के चेहरे से तो दो गज का कपड़ा हटेगा और असली पर्दा पुरुषवादी सोच से हटेगा। जिसका हटना दोनों के लिए जरूरी सै।

आइये एक फ़र्जी समाज के फ़र्जी पर्दे से मुक्ति की और बढ़ें।

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

सबका साथ सबका विकास बनाम हिंदू राष्ट्रवाद


आजकल देशभक्ति बनाम देशद्रोही की बहस राजनीति और पब्लिक स्पेयर दोनों जगह अपने चरम पर है, जो मूलतः फासीवादी राजनीति और मीडिया द्वारा प्रायोजित है और बाज़ारवादी शक्तियां इसकी आड़ में अपने खेल खेलती जा रही हैं। वह चाहे बड़ी कंपनियों के कर्ज के माफी का खेल हो या ‘नौ दो  माल्या हो जाना’ हो। पर ‘ई-भक्तों’ के प्यारे लाल उर्फ अच्छे लाल ‘अपने मुंह मियां मोदी’ हुए जा रहे है। संचार क्रांति से पहले राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हुआ करते थे पर जब से सोशल मीडिया(खासकर फेसबुक, ट्वीटर और व्हाटसएप आदि) ने सभी दलों के ‘ई-भक्त’ तैयार कर दिए, जिनमें कुछ मुफ्तलाल है, तो कुछ भाड़े-लाल। और इ-दोनों तरह के लाल वामपंथी लाल से भिड़े रहते हैं। कुल-मिलाकर मामला सहिष्णु-असहिष्णु से बढ़कर अब देशभक्ति-देशद्रोही तक आ पहुंचा है। और यह खास किस्म की देशभक्ति है, जो सामने वाले का धर्म(टारगेट मुस्लिम) सबसे पहले देखती है, उसके बाद उसकी जाति(दलित)। इसलिए इस सारे ताम-झाम को समझने के लिए संघ के चेहरे और भाजपा के मोहरे को गहराई से समझना जरूरी है। संघ को सावरकर और गोवलकर की विचारधारा के माध्यम से बेहतर समझा जा सकता हैं। यह तब और जरूरी हो जाता है जब माधव सदाशिव गोवलकर(1906-2006) को भारत के मसीहा, एक संत, एक नए विवेकानंद,भारत माता के सर्वश्रेष्ठ सपूत और 20वीं सदी के हिंदू समाज को मिले सबसे बड़े उपहार आदि जुमलों से नवाजा जा रहा है, जबकि उनकी विचारधारा लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के एकदम विपरीत थी। ‘भारत माता की जय’ का फंडा भी हिंदू राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग है, क्योंकि संघ के लिए माता हिंदू देवी का प्रतीक है और हिंदू देवी हिंदू धर्म और संस्कृति में शक्ति पूजा का प्रतीक है। शक्ति पूजा हिंदूत्व की राजनीति का प्रमुख अंग रही है और गोवलकर के अनुसार-‘क्रूर शक्ति हमेशा ही पूजनीय होती है।’ इन तमाम संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में भाजपा के पॉपुलर जुमलों और संघ की फासीवादी विचारधारा को मूल गोवलकर की पुस्तक ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ से समझा जा सकता है।
शम्सुल इस्लाम की ‘गोवलकरवाद : एक अध्ययन’ का हिंदी अनुवाद अशोक कुमार पाण्डेय ने किया है। यह किताब संघ के फासीवादी दर्शन में गोवलकर की भूमिका(मूल) की पड़ताल का अवसर  उपलब्ध कराती है। यह एक तरफ गोवलकरवाद(हिंदू राष्ट्रवाद) को धर्मनिरपेक्षता(लोकतंत्र) के परिप्रेक्ष्य में खंगालती है, तो दूसरी तरफ गोवलकर की मूल पुस्तक ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’(1939) के मूल पाठ को भी पढ़ने का अवसर प्रदान करती हैं। जनसंघ के जन्म(1925) से लेकर वर्तमान समय(2016) के बीच ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की मुठभेड़ लगातार लोकतंत्र से होती रही हैं, जिसमें आजादी से पूर्व और आजादी के बाद के बनते भारत में संघ की कार्यप्रणाली और सोच-व्यवहार की गहरी पड़ताल की गई है। इसी पड़ताल में हिंदू राष्ट्रवाद के तीन आधार बिंदुओं को मुख्य रूप से रेखाकिंत किया गया है-जातिवाद, नस्लवाद और सर्वसत्तावाद। जिनकी पीठ पर बैठकर ही सावरकर, गोवलकर आदि ने हिंदू राष्ट्रवाद का मंसूबा पाला था। जिसकी झलक वर्तमान सरकार की कार्य-प्रणाली में गाहे-ब-गाहे मुखर रूप में दिख रही है। यह किताब वर्तमान सरकार के फासीवादी ‘पैटर्न’ को समझने में काफी मदद करती है। जिसमें संघ के ‘देशभक्ति-मॉडल’ को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है, जो अपने मूल रूप में ‘हिंदू राष्ट्रवाद का मॉडल’ है। इस मॉडल के निर्माण में सावरकर और गोवलकर के विचार सबसे अहम् भूमिका निभाते हैं।
गोवलकर के लिए राष्ट्र की परिभाषा में पांच तत्त्व महत्त्वपूर्ण हैं-देश, नस्ल,धर्म,संस्कृति और भाषा। इन पांचों का केंद्रीय तत्त्व है हिंदू धर्म। इसी कारण गोवलकर नस्लवाद का बचाव करते है तथा हिटलर व मुसोलिनी का समर्थन करते है और जातिवाद को हिंदू धर्म का अनिवार्य एवं सकारात्मक तत्त्व मानते है। आजादी के बाद आरएसएस के लिए हिंदू राष्ट्रवाद धर्मसकंट बन जाता है, क्योंकि भारत ने कांग्रेस के नेतृत्व में एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनने का निर्णय लिया। जबकि हिंदुओं की बहुसंख्या और संघ जैसे संघठन हिंदू राष्ट्र की मांग कर रहे थे। जिसकी वजह से संघ को अपनी पूरी रणनीति में बदलाव करना पड़ा और अपने अलोकतांत्रिक चेहरे को ढकने के लिए एक लोकतांत्रिक मुखौटा बनाना पड़ा। लोकतंत्र का दबाव वर्तमान सरकार पर भी साफ झलकता है। 
‘सबका साथ सबका विकास’, यह वर्तमान सरकार का चुनाव के समय का प्रसिद्ध ‘स्लोगन’ था। आज भले ही इसे जुमला कहा जाता हो, पर यह लोकतंत्र और संविधान का ही दबाव था कि जिस पार्टी का सोच एवं कार्य-प्रणाली संघ तय करती हो और वह सबका साथ तथा सबका विकास कहने की बात करें। यह चुनाव का दबाव या रणनीति या दोनों हो सकते हैं। पर संघ जिस हिंदू राष्ट्रवाद का मंसूबा पाले रहता हैं, उसे पूरा करने के लिए लगातार भरसक प्रयास करता हुआ भी नज़र आता है। वह चाहे भारत माता की जय का विवाद हो, या गौ-हत्या, लव-जेहाद या दलित-आदिवासियों के साथ-साथ स्त्रियों के प्रति जो संघ की सोच के अनुरूप रवैया ही क्यों न हो? इस तरह की सोच की नींव रखने में गोवलकर की निर्णायक भूमिका रही है।
यह भारतीय लोकतंत्र का ही दबाव था कि संघ और भाजपा दोनों को गोवलकर की इस किताब बाबत या तो सफाई देनी पड़ती है या इससे पल्ला झाड़ने में ही उन्हें राहत मिलती है। पर किताब से तो कन्नी काट लेते है, पर अपनी सोच और व्यवहार को गोवलकरवाद के अनुरूप ही अमलीजामा पहनाने की लगातार कोशिश करते है। संघ की इस कट्टर सोच के पीछे राष्ट्रवाद की अवधारणा की बड़ी भूमिका रही है। जिसका जन्म पश्चिम में हुआ था। खुद को स्वदेशी कहने वाला संगठन आचार-विचार और अपना ड्रेस कोड तक नकल करता है। पश्चिमी राष्ट्रवाद को नाजी नस्ल सिद्धांत तक विकसित करने में इन सभी की भूमिका रही हैं- फेडरिक वान श्लेगल(1772-1829)जिसने नस्लों को भाषा के आधार पर आलगाया,फ्रांसीसी लेखक हिप्पोलाईट एडोल्फ ताइने(1828-1829), जिन्होंने आर्य जाति(रेस) के मिथक को सबसे पहले सिद्धांतिक रूप दिया। फ्रांसीसी गोब्रिने(1816-1882) ने गोरों की श्रेष्ठता को महत्त्व दिया।1930 के दशक में अल्फरेड रोसेनबर्ग ने नस्ल सिद्धांत को इतिहास दर्शन के रूप में विकसित किया। इन सबके सहयोग से  नाजी नस्ल सिद्धांत विकसित हुआ, जिसके मूल में रक्त शुद्धता और अपनी जमीन मुख्य रूप से है, जिसकी झलक भारतीय परिप्रेक्ष्य में कश्मीर के संदर्भ में साफ झलकती है। कश्मीर की जमीन को अपना मानने वाले संघी वहां के मुस्लिमों को अपना नहीं मानते है। जबकि एक समय हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की विचारधारा एक-दूसरे को पोषित कर रही थी। हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों एक दूसरे की पूरक रही हैं। दो राष्ट्र के सिद्धांत को सबसे ज्यादा महत्त्व इन दोनों ने ही दिया। डॉ. अंबेडकर “यह आश्चर्यजनक लग सकता है लेकिन एक-दूसरे के विरोधी होने बावजूद एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मुद्दे पर जिन्नाह और सावरकर बिल्कुल एकमत हैं।” दरअसल आरएसएस की विचारधारा नस्लीय,अमानवीय,स्त्री विरोधी और समानता विरोधी रही है। यह मूलतः पुरुषवादी ब्राह्मणवादी संगठन है, जिसमें मनु की स्मृतियों को प्रमुखता दी जाती है। इसलिए जातिवाद हिंदुत्व का स्वाभाविक अभिन्न हिस्सा है। जातिवाद हिंदू धर्म और राष्ट्र का पर्याय है। गोवलकर के अनुसार  हिंदू राष्ट्रवाद में मुस्लिम और इसाई दोनों को या तो आश्रय में रहना होगा यह देश छोड़ देना पड़ेगा, क्योंकि ये दोनों कभी भी वफादार नहीं हो सकते। वफादार न होने का कारण यह है कि इनके नायक और आस्था-स्थल भारत में मौजूद नहीं है। सिख, बौद्ध और जैन धर्म हिंदू धर्म की ही शाखाएं हैं। हिंदू धर्म में जो जातिवाद है, जो मूलतः उच्च-नीच पर आधारित है। उसे गोवलकर हिंदू धर्म की शक्ति मानते है और इस व्यवस्था को बनाए रखने में यकीन करते है। खुशवंत सिंह के अनुसार-“गोवलकर पर सावरकर के विचारों की गहरी छाप थी, दोनों जातिवाद के समर्थक थे और हिटलर द्वारा लाखों-लाख यहूदियों के जनसंहार को जायज ठहराते थे। वे यहूदीवादी राज्य इज़राइल के इसलिए समर्थक थे कि इसने अपने पड़ोसी मुसलमान देशों से लगातार युद्ध छेड़ रखे थे। इस प्रकार इस्लाम से घृणा हिंदूत्व का एक अभिन्न अंग बनकर उभरा।” दूसरी तरफ अंग्रेज शासकों ने भी इस पुस्तक पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं लगाया, क्योंकि यह किताब अंग्रेजी रणनीति ‘फूट डालो राज करो’ के अनुकूल थी।
हिंदू राष्ट्रवाद की अवधारणा समाज को जोड़ने के बजाय विभाजित करने में यकीन करती है और भेदभाव,शोषण एवं अत्याचार की व्यवस्था को कायम रखना चाहती हैं। जिसमें ब्राह्मणवादी शक्तियां सत्ता का आनंद लेंगी और बाकी जनता उनकी सेवा में समर्पित रहेगी। दूसरे धर्म के लोगों को यहां रहना है तो दया पर जीवन यापन कर सकते है,अन्यथा दूसरी जगह जा सकते हैं। धर्म और जाति के नाम पर एकाधिकार का नाम हिंदू राष्ट्रवाद है। जो कि साम्राज्यावाद को छोटा संस्करण है।
प्रगतिशील एवं लोकतांत्रिक शक्तियां इन विभाजकारी और फासीवादी शक्तियों के खिलाफ निरंतर संघर्ष करती रही हैं और यह संघर्ष जारी भी रहेगा तथा सभी तरह के विभाजन,शोषण, अत्याचार और भेदभावों को समाप्त करने के लिए प्रतिबद्धता बनी रहेगी। कैफी आज़मी के शब्दों में कहें तो-
“मैं कोई मुल्क नहीं हूं कि जला दोगे मुझे
कोई दीवार नहीं हूं कि गिरा दोगे मुझे
कोई सरहद भी नहीं हूं कि मिटा दोगे मुझे
ये जो दुनिया का पुराना नक्शा
मेज पर तुमने बिछा रखा है
इसमें कावाक(खोखली, निरर्थक) लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं
तुम मुझे इसमें कहां ढूंढते हो
मैं इक अरमान हूं दीवानों का
मैं न मरता हूं न मर सकता हूं
कितने नादान हो तुम।”
जिस तरह हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते है। उसी तरह भारतीय लोकतंत्र में भाजपा और संघ दोनों को समझा जा सकता है। विश्व सूफी सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि- “इस्लाम शांति का धर्म है। आंतकवाद और धर्म में कोई संबंध नहीं है।” जबकि आरएसएस के मोहन भागवत इसके एकदम उलट बोलते है। इन दोनों की करनी और कथनी की कीमत भारत की जनता चुका रही है। दूसरी तरफ शिक्षण संस्थानों पर अपनी विचारधारा थोपने का प्रयास लगातार जारी हैं, जिसकी शुरूवात हैदराबाद से होते हुए जेएनयू और अब इलाहाबाद तक पहुंच गई है। असहिष्णुता के खिलाफ साहित्यकारों ने पुरस्कार वापसी के जरिए सरकार तक संदेश पहुंचाने की कोशिश की थी, तो सरकार की तरफ से उर्दू साहित्यकारों के लिए निर्देश जारी किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि लेखक को यह लिखकर देना होगा कि उसका साहित्य देश और सरकार के खिलाफ नहीं है। ये सब अघोषित एमरजेंसी के लक्षण नहीं है, तो और क्या है?