गुरुवार, 20 नवंबर 2014

लड़की का वो हाथ मिलाना

पढ़ने में शुरू से ही मन कम ही रमता था ।रट्टू शिक्षा तो हद से ज्यादा इरिटेट करती थी । बहुत बार सोचता था कि किस काम आएगी ये पढाई । नौकरी के या जिन्दगी । मम्मी ज्यादातर बीमार रहती थी तो मुझे घर के काम करना पढाई से ज्यादा सुकून देते थे और पढ़ने का मतलब बस परीक्षा पास करना भर था ।12वीं तो साइंस से पास ही नहीं हो पाई ।अंत में आर्ट से पास करनी पड़ी ।पर आगे की पढ़ाई दिल्ली से करने का मन बनाया ।

समालखा से दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लेने का विचार बनाया ।जैसा कि हमेशा से मेरे साथ होता यूँ आया है कि कुछ भी पहली ही बार और बिना किसी दिक्कत के मुक्कमल नहीं होता ।कुछ न कुछ अडंगा लग ही जाता है ।अब तो आदत हो गयी है इस तरह के अवरोधों को झेलने की ।

1994 में 10वीं पास करके 12वीं 1996 में हो जानी थी, हुई 1998 में ।बी ए 2001 में होनी थी हुई 2002 में ।क्या-क्या लोचे हुए वो फिर कभी ।हरियाणा में 12वीं का रिजल्ट तो आ गया ।परन्तु प्राइवेट होने के कारण मार्कशीट डाक विभाग के जरिये आनी थी ।ठीक उसी समय डाक विभाग की हडताल हो गयी ।मुश्किल से मार्कशीट आई तो फिर घूम घूम कर उस कॉलेज को ढूँढना था जिसमें सीट बची हो ।किसी ने अरविंदो सांध्य का नाम सुझाया । कॉलेज शाम का था तो समय से पहले पहुंच गये । इसलिए साकेत चले गये ।पहली बार पी वी आर सिनेमा देखा और ये भी कि एक ही  सिनेमा घर में कई सिनेमा घर ।पर टिकट के रेट सुनकर लगा कि इतना महंगा ।कहाँ हम 20-30 हद से हद 40 तक देखते है ।उस समय वहाँ 100 और 150 रेट था शायद ।खैर इस पर भी फिर कभी । बस एक बात बताता चलू कि 7रु में 'सत्या' फिल्म देखकर हैरान और रोमांचित कर दिया था ।

सिनेमाघर का जिक्र इसलिए आया, क्योंकि यहीं मार्कशीट खो गयी थी, जब उम्मीद बंधी थी कि आखिर यहाँ हो जाएगा दाखिला ।खैर एक घटना जब मार्कशीट लेने भिवानी गये तब भी घटी ।

इन सबके बीच बिना मार्कशीट के ही दाखिला हो गया और वो भी फोटोकॉपी से ही ।एक साथी तो इन चक्करों से चकरा गया और उसने हौसला छोड़ घर बैठना उचित समझा ।मैं भी ये सब तभी कर पाया, जब मुझे ये पता था कि इस घूमा फिरी में केवल शारीरिक मेहनत भर थी ।क्योंकि समालखा से ट्रेन में बिना टिकट आना था और आगे आजाद पुर या पुराणी दिल्ली रेलवे स्टेसन से ब्लू लाइन बस में दिल्ली का सफर ।ब्लू लाइन में स्टाफ चलता था ।उसके लिए एक आई कार्ड बनाया जो हर रूट पर चले ।एंटी क्राइम सेल के नाम से ।इस कारण ये सब सम्भव हो पाया ।

जैसे-कैसे दाखिला हो गया हिंदी ऑनर्स में ले लिया ।बी ए पास में इसलिए नहीं लिया क्योंकि मैथ नहीं था ।

जब मेरा दाखिला हुआ तब तक क्लास लगते काफी दिन हो गये थे ।क्लास मेट आपस में परिचित हो गये थे ।मैं जब टिन की छत वाली क्लास में गया तो सब ने पहले मुझसे मेरा परिचय माँगा ।

सबने बारी-बारी से हाथ मिलाया ।लडकी ने जब हाथ बढ़ाया तो काफी संकोच हुआ ।बड़ी मुश्किल से हाथ बढ़ाया ।कई दिन लगे सहज होने में ।इतेफाक उस लडकी का नाम नवीन ही था ।जो कि मेरी नाम राशि ही थी ।वो मुझे कई बार कहती कि तुम लडकियों की तरह क्यों शरमाते रहते है ?

बुधवार, 19 नवंबर 2014

पास जितना बेहतर उतना

साथ रहने की तलब भी अजीब-सी तलब होती है । इस तलब की कशिश तमाम तरहों के कश से जुदा है । जुदा होने का ख्याल जब भी मन में खोलता है, तो शरीर का रोम-रोम खोलने लगता है और दिल भी तेज गति से बोलने लगता है । जबान तुतलाने लगती है -अभी मत जाओ, थोड़ी देर और रुक जाओ । बस पांच मिनट होर रुक जाओ । ये सारे ख्याल और बोल हर बार प्रथम के दिलो-दिमाग में कोंधने लगते है । जबकि प्रथम को पता है कि ये मुलाकात आखिरी नहीं है ।न ये मिलना पहली बार है और न बिछड़ना ।तब भी न जाने कौन-सा डर गहरे बसा हुआ है । जो अपनी गिरफ्त में प्रथम को हर बार ले लेता है । न रुकने-रोकने का कोई बहाना प्रथम को समझ नहीं आता तो हर बार की तरह वह अंतिम पैतरा आजमा लेता है- चलो लास्ट चाय पी लेते है, फिर चली जाना ।

"तुम भी न प्रथम । तुम्हारा अलग होने का मन बिल्कुल नहीं करता ।"

"तमन्ना ! तुम्हारा करता है अलग होने का ?"

"नहीं यार ! पर हम अलग कहाँ होते है ? तुम मुझे अब मेरे स्टॉप तक छोड़ने चलोगे ।उसके बाद हम फोन पर बात करेंगे। फिर रात को बात करेंगे और सुबह मैं आ ही जाऊंगी ।"

हाँ ।यार ये सब तो ठीक है । फिर भी तुम जब शाम को घर जाती हो तो अजीब-सा हो जाता है ।