हरियाणवी लोक से उठती हर आवाज का एक खास संदर्भ और मकसद हैं । इसलिए सब तरह की आवाजों पर बात होनी चाहिए । लोकगीत,रागिणी और पॉपुलर के भेदभाव से अलग हटकर उनके कटेंट पर बात होनी चाहिए ।
सोमवार, 11 जनवरी 2016
प्रेमपत्र
रविवार, 10 जनवरी 2016
तू होता कौन है
लड़का बोला-ज्यादा बकवास मत कर।
उधर से लड़की पलट कर बोली-चुपकर बे दो कोडी के। तू होता कौन है ?
प्रेम में अँधा होना
प्रेम में अँधा होना
मुझे प्रेम का सबसे लुभाने वाला पक्ष यही लगता है। प्रेम में अँधा हो जाना। जो प्रेम में अँधा नहीं हुआ उसके प्रेम में अधूरापन रहेगा और अंधापन जितना बढ़ता जायेगा प्रेम उतना ही गूढ़ होता जायेगा।
जिसने भी यह टिप्पणी प्रेम पर की है। उसे प्रेम की गहरी समझ है तभी उसने अँधा कहा,बहरा य गूंगा नहीं कहा।
जाति,धर्म,लिंग आदि तमाम धारणाएं हमारी आँखों के जरिये ही पुष्ट होती है और जब हम प्रेम करते है तो इन आँखों को बन्द कर देते है।
कोई कितना भी समझा लें हम नहीं मानते। हम इन तमाम आँखों को बन्द करके अपने आप पर विश्वास करते हुए आगे बढ़ते है।
मन की आँखों पर यकीन हमें सब कुछ दिखाने लगती है।
शुक्रवार, 8 जनवरी 2016
परसाई के वंशज
नास्तिक के पेट का दर्द-परसाई के वंशज
आज नास्तिक कुछ परेशान से बैठा था। मैंने हाल चाल जानना चाहा पर उसकी रोनी सूरत देखकर मेरी ज़बान ने बैक गेर लगा दिया । चुपचाप बैठा नास्तिक उछलते-कूदते आस्तिक से ज्यादा जहरी हो जाता है।
वह किसी आयोजन या समारोह का कार्ड भी हाथ में लिए हुए था। जिस पर उनका नाम भी लिखा था। शायद आयोजन में जाने को लेकर संशय हो । यह पढ़कर मेरी हिम्मत बढ़ गयी । दिमाग को गैरेज में लगाकर मैंने जबान की क्लिच छोड़ दी और पहला गेर लगते ही शब्द निकला-किस संशय में हो महाराज आज ? यूँ उदास होना नास्तिक का लक्षण नहीं है। यह कहते हुए मैंने चुटकी ली ।ताकि गम्भीरता का घड़ा फूटे और नए शब्द जीवन का आगाज हो ।
मौन को जेब में रखते हुए नास्तिक बोला-पूरे अख़बार में आज एक भी ऐसी ख़बर नहीं जो धर्म से जुड़ी हो । क्या इस देश से धर्म की मूर्खताएं खत्म हो गयी है ? ये अख़बार सबसे पहले बिकने को तैयार रहते है। एक भी ऐसी ख़बर नहीं जिसे मैं आज शेयर कर सकूँ । पुराणी खबर तो मैं शेयर कर ही चुका हूँ ।धर्म की मूर्खताओं पर लगातार हमला होते रहना चाहिए । हद है नीचता की एक भी ख़बर नहीं । एक नहीं दोनों अख़बार में नहीं है ।
हाँ ये तो है । आप फेसबुक पर देखिए वहाँ शायद आपको मिल जाये।
हाँ ।अब यही करना पड़ेगा ।अख़बार वाली ख़बर लगाने पर मामला सॉलिड हो जाता है। फेसबुक की कई बार ख़बर झूठी होती है। इसलिए मैं तो अख़बार पर ज्यादा यकीन करता हूँ ।
जनाब नास्तिकों को एकजुटता की सख्त जरूरत है।
गुरुवार, 7 जनवरी 2016
हिंदी टीवी पत्रकारिता का बकवास काल
टीवी पत्रकारिता का यह बकवास काल चल रहा है ।
हिंदी टीवी पत्रकारिता में आज के समय में आप किसी से सहमति और असहमति रख सकते है तो वो अकेले #रवीश_कुमार है । सहमति और असहमति दोनों जरूरी है ।
आप रवीश के साथ-साथ उन सब की, जो आपसे राजनीतिक असहमति रखते है । उन सब की गांड तोड़ देना चाहते है ।
आप #NDTV को बन्द करा देना चाहते है ।जब बन्द करवाने की बात करते हो तो सभी दुकानों को बन्द करने की बात होनी चाहिए ।केवल एक ही क्यों ?
चलिए आपकी बात सही है कि यह कांग्रेसी चैनल है ।मेरा सवाल यह है कि जी न्यूज क्यों नहीं बन्द होना चाहिए ? उसका मालिक तो सरेआम रैली में वोट मांगता है। उसको क्यों नहीं बन्द होना चाहिए ।
जिसकी सरकार आती है दूरदर्शन उसका भोंपू बन जाता है ।उसे भी बन्द होना चाहिए ।क्योंकि वह तो विशुद्ध जनता के पैसे से चलता है ।
अपने विरोधी को आप देखना पसन्द नहीं करते मत देखिये विकल्पहीन नहीं हुआ है टीवी । पर आप तो चाहते है कांग्रेस मुक्त भारत से एक कदम आगे बढ़ते हुए विपक्ष मुक्त भारत ।
क्या यह किसी लोकतन्त्र का लक्षण है ?
क्या यह फासीवादी होना नहीं है ?
हर कोना कुछ कहता हैं
#घर_का_हर_कोना
मकान को जब घर कहा जाता है तो उसके हर कोने का ज़िक्र नहीं होता । सबके घर में हर जगह अलग-अलग कोने अलग-अलग काम के लिए निश्चित होते चले जाते है। जब जहां आप कोई काम करते है तब-तब वो हिस्सा उस घर का कोना बन जाता है ।
हर कोना नागार्जुन की भाषा में कहे तो आबद्ध होता है सम्बद्ध होता है प्रतिबद्ध होता है ।
हर काम के लिए तय कर दी गयी जगह खास होती चली जाती है । यह खास होना ही उसे कोने में बदलता चला जाता है।
पढ़ने,खाने,लेटने,बैठने,सोचने,हंसने और रोने की एक खास जगह हमें अनचाहे तरीके से अपनी ओर खींचती रहती है और हम भी बिना किसी प्रतिरोध के चलते चले जाते है।
वो जगहें रूढ़ होती चली जाती है और हम उन जगहों से एक खास रिश्ता बनाकर गूढ़ होते चले जाते है ।जीवन में चाहे कितनी ही अनिश्चिता हो वहां उस जगह पर हमेशा उस भाव की निश्चिंतता रहती है ।जो तकलीफ़ में होने के बावजूद सुकून देती है ।
ऐसे ही जीवन में हम निश्चित जगह तलाशते रहते है । यह तलाश अनन्त होती है पर निरन्तर सक्रिय भी रहती है ।
इन अलग-अलग जगहों पर पसरे कोनों को समेटकर ही हम जीवन की गति में शामिल होते रहते है।
आपके जीवन में भी कितने ही ऐसे कोने होंगे पर आपने उन पर लिखा या सोचा नहीं होगा ।
हर कोना कुछ कहता है बस सुनना वाला होना चाहिए ।
कलम
उदास कलम शब्दों से प्यार करती है और ख़ुशी की कलम कुरुर होती है।
समालखा3
#समालखा3
समालखा में लाख खामियां हो । मेरे दिल का एक बड़ा हिस्सा हमेशा वहीं रहता है और एक पैर दिल्ली में तो दूसरा समालखा में । इन दो पैरों के बीच में कहीं मैं रहता हूँ । इस आवाजाही की जिंदगी से जीवन में गति का अहसास बना रहता है।
वहां एक हिस्सा बिल्कुल गांव जैसा है जहां मैं रहता हूँ। और एक हिस्सा शहर जैसा है जहां बाज़ार पलता है । इन दोनों ने छोटी-छोटी कलोनियों को अवैध सन्तानों की तरह पैदा किया है और उसी तरह उनका पालन पोषण कर रही है ।
पैसे वालों की अवैध सन्ताने अच्छे से पोषित हो रही है और गरीब वाली खुदा के भरोसे जी रही है।
बन्दर इस रुकी हुई जिंदगियों के बीच अपनी उपस्थिति को बरकरार रखे हुए है। रेलवे स्टेसन और बस स्टैंड को जोड़ने वाली समालखा की लाइफ लाइन कहीं जा सकती है ।जिसके उत्तर में एक विकसित दुनिया है और दक्षिण में कम विकसित। पूर्व में बस स्टैंड है तो पश्चिम में रेलवे स्टेसन ।रेलवे स्टेसन के पीछे एक अजीब किस्म की दुनिया है। जिसे बदनाम या अपराधिक दुनिया के लेबल से नवाजा जाता है और बस स्टैंड के पीछे की दुनिया पंचवटी कहलाती है। समालखा की काफी महंगी होने की पर्ची इसी के नाम कटी है।
पंचवटी से समालखा में प्रॉपर्टी की आधिकारिक और जमीनी शुरुवात मानी जा सकती है ।जहां से इस उद्योग ने पसरना शुरू किया और अब एक माफिया की तरह राजनीति से लेकर व्यापार तक की साठ गांठ तक पहुंच गया है ।
वैसे पंचवटी और लाइन पार में बस एक ही छोटा सा फर्क है.....
लाइन पार लेबल लगे हुए दबंग हैं और पंचवटी में सफेदपोश....
शब्द और पीड़ा
कोई इस गलत फ़हमी में ना रहे कि मैं ज्यादा पढ़ा लिखा हूँ । जिंदगी की थपेड़ खाते-खाते हलक से शब्द निकलने लगे है । जख़्म से कुलबुलाते शब्द रिसने लगे है।
पुरस्कार वापसी
पुरस्कार वापसी--परसाई के वंशज
साधो के बच्चे माधो,
सवाल के बजाय एक तो तुम ये लत्ते (कपड़े) फाड़ने पर मत उतरा करो माधो ।
देखो बात तो तुम्हारी भी सही है कि अखलाक की मौत पर इतना हो हल्ला हुआ था तो अब मालदा के मामले पर चुप्पी क्यों ? सवाल इधर से हो या उधर से । सवाल सवाल ही रहता है । सवाल में अंदर बवाल कितना घुसा है ? यह भी एक सवाल है । क्या तुमने अपने आप से यह सवाल किया । किया नहीं है तो अब कर लो । कोई घणी देर थोड़े ही हुई है ।
मैं एक लेखक हूं और मेरी भी एक राजनीति है । किसी पार्टी का भोंपू नहीं हूं कि गाहेबगाहे बजता फिरूंगा ।
मैं तुम सज्जनों से भी अनुरोध करता हूं कि अपने संघी लेखकोंं की एक बैठक करो और पुरस्कार वापसी का ऐलान करो । तब देखना मैं भी तुम्हारे साथ तुम्हारी आवाज में आवाज मिलाता मिलूंगा ।जिस तरह तुम सब कह रहे थे कि अखलाक के मामले में कि यह सब कांग्रेस के द्वारा प्रायोजित है । जब वो लोग प्रायोजित कर सकते है, तो तुम भी तो कर सकते हो ।
भीड़ चाहे हिंदुओं की हो या मुसलमानों की । वो ससुरी पागल ही होती है । जब तक धर्म की दुकानें बंद नहीं हो जाती माधो ये बवाल यूं ही कटते रहेंगे । कभी इधर से तो कभी उधर से ।
पुरस्कार वापसी- परसाई के वंशज
साधो के बच्चे माधो,
सवाल के बजाय एक तो तुम ये लत्ते (कपड़े) फाड़ने पर मत उतरा करो माधो ।
देखो बात तो तुम्हारी भी सही है कि अखलाक की मौत पर इतना हो हल्ला हुआ था तो अब मालदा के मामले पर चुप्पी क्यों ? सवाल इधर से हो या उधर से । सवाल सवाल ही रहता है । सवाल में अंदर बवाल कितना घुसा है ? यह भी एक सवाल है । क्या तुमने अपने आप से यह सवाल किया । किया नहीं है तो अब कर लो । कोई घणी देर थोड़े ही हुई है ।
मैं एक लेखक हूं और मेरी भी एक राजनीति है । किसी पार्टी का भोंपू नहीं हूं कि गाहेबगाहे बजता फिरूंगा ।
मैं तुम सज्जनों से भी अनुरोध करता हूं कि अपने संघी लेखकोंं की एक बैठक करो और पुरस्कार वापसी का ऐलान करो । तब देखना मैं भी तुम्हारे साथ तुम्हारी आवाज में आवाज मिलाता मिलूंगा ।जिस तरह तुम सब कह रहे थे कि अखलाक के मामले में कि यह सब कांग्रेस के द्वारा प्रायोजित है । जब वो लोग प्रायोजित कर सकते है, तो तुम भी तो कर सकते हो ।
भीड़ चाहे हिंदुओं की हो या मुसलमानों की । वो ससुरी पागल ही होती है । जब तक धर्म की दुकानें बंद नहीं हो जाती माधो ये बवाल यूं ही कटते रहेंगे । कभी इधर से तो कभी उधर से ।
पुरस्कार वापसी- परसाई के वंशज
साधो के बच्चे माधो,
सवाल के बजाय एक तो तुम ये लत्ते (कपड़े) फाड़ने पर मत उतरा करो माधो ।
देखो बात तो तुम्हारी भी सही है कि अखलाक की मौत पर इतना हो हल्ला हुआ था तो अब मालदा के मामले पर चुप्पी क्यों ? सवाल इधर से हो या उधर से । सवाल सवाल ही रहता है । सवाल में अंदर बवाल कितना घुसा है ? यह भी एक सवाल है । क्या तुमने अपने आप से यह सवाल किया । किया नहीं है तो अब कर लो । कोई घणी देर थोड़े ही हुई है ।
मैं एक लेखक हूं और मेरी भी एक राजनीति है । किसी पार्टी का भोंपू नहीं हूं कि गाहेबगाहे बजता फिरूंगा ।
मैं तुम सज्जनों से भी अनुरोध करता हूं कि अपने संघी लेखकोंं की एक बैठक करो और पुरस्कार वापसी का ऐलान करो । तब देखना मैं भी तुम्हारे साथ तुम्हारी आवाज में आवाज मिलाता मिलूंगा ।जिस तरह तुम सब कह रहे थे कि अखलाक के मामले में कि यह सब कांग्रेस के द्वारा प्रायोजित है । जब वो लोग प्रायोजित कर सकते है, तो तुम भी तो कर सकते हो ।
भीड़ चाहे हिंदुओं की हो या मुसलमानों की । वो ससुरी पागल ही होती है । जब तक धर्म की दुकानें बंद नहीं हो जाती माधो ये बवाल यूं ही कटते रहेंगे । कभी इधर से तो कभी उधर से ।
पुरस्कार वापसी- परसाई के वंशज
साधो के बच्चे माधो,
सवाल के बजाय एक तो तुम ये लत्ते (कपड़े) फाड़ने पर मत उतरा करो माधो ।
देखो बात तो तुम्हारी भी सही है कि अखलाक की मौत पर इतना हो हल्ला हुआ था तो अब मालदा के मामले पर चुप्पी क्यों ? सवाल इधर से हो या उधर से । सवाल सवाल ही रहता है । सवाल में अंदर बवाल कितना घुसा है ? यह भी एक सवाल है । क्या तुमने अपने आप से यह सवाल किया । किया नहीं है तो अब कर लो । कोई घणी देर थोड़े ही हुई है ।
मैं एक लेखक हूं और मेरी भी एक राजनीति है । किसी पार्टी का भोंपू नहीं हूं कि गाहेबगाहे बजता फिरूंगा ।
मैं तुम सज्जनों से भी अनुरोध करता हूं कि अपने संघी लेखकोंं की एक बैठक करो और पुरस्कार वापसी का ऐलान करो । तब देखना मैं भी तुम्हारे साथ तुम्हारी आवाज में आवाज मिलाता मिलूंगा ।जिस तरह तुम सब कह रहे थे कि अखलाक के मामले में कि यह सब कांग्रेस के द्वारा प्रायोजित है । जब वो लोग प्रायोजित कर सकते है, तो तुम भी तो कर सकते हो ।
भीड़ चाहे हिंदुओं की हो या मुसलमानों की । वो ससुरी पागल ही होती है । जब तक धर्म की दुकानें बंद नहीं हो जाती माधो ये बवाल यूं ही कटते रहेंगे । कभी इधर से तो कभी उधर से ।
पुरस्कार वापसी- परसाई के वंशज
साधो के बच्चे माधो,
सवाल के बजाय एक तो तुम ये लत्ते (कपड़े) फाड़ने पर मत उतरा करो माधो ।
देखो बात तो तुम्हारी भी सही है कि अखलाक की मौत पर इतना हो हल्ला हुआ था तो अब मालदा के मामले पर चुप्पी क्यों ? सवाल इधर से हो या उधर से । सवाल सवाल ही रहता है । सवाल में अंदर बवाल कितना घुसा है ? यह भी एक सवाल है । क्या तुमने अपने आप से यह सवाल किया । किया नहीं है तो अब कर लो । कोई घणी देर थोड़े ही हुई है ।
मैं एक लेखक हूं और मेरी भी एक राजनीति है । किसी पार्टी का भोंपू नहीं हूं कि गाहेबगाहे बजता फिरूंगा ।
मैं तुम सज्जनों से भी अनुरोध करता हूं कि अपने संघी लेखकोंं की एक बैठक करो और पुरस्कार वापसी का ऐलान करो । तब देखना मैं भी तुम्हारे साथ तुम्हारी आवाज में आवाज मिलाता मिलूंगा ।जिस तरह तुम सब कह रहे थे कि अखलाक के मामले में कि यह सब कांग्रेस के द्वारा प्रायोजित है । जब वो लोग प्रायोजित कर सकते है, तो तुम भी तो कर सकते हो ।
भीड़ चाहे हिंदुओं की हो या मुसलमानों की । वो ससुरी पागल ही होती है । जब तक धर्म की दुकानें बंद नहीं हो जाती माधो ये बवाल यूं ही कटते रहेंगे । कभी इधर से तो कभी उधर से ।
साधो के बच्चे माधो,
सवाल के बजाय एक तो तुम ये लत्ते (कपड़े) फाड़ने पर मत उतरा करो माधो ।
देखो बात तो तुम्हारी भी सही है कि अखलाक की मौत पर इतना हो हल्ला हुआ था तो अब मालदा के मामले पर चुप्पी क्यों ? सवाल इधर से हो या उधर से । सवाल सवाल ही रहता है । सवाल में अंदर बवाल कितना घुसा है ? यह भी एक सवाल है । क्या तुमने अपने आप से यह सवाल किया । किया नहीं है तो अब कर लो । कोई घणी देर थोड़े ही हुई है ।
मैं एक लेखक हूं और मेरी भी एक राजनीति है । किसी पार्टी का भोंपू नहीं हूं कि गाहेबगाहे बजता फिरूंगा ।
मैं तुम सज्जनों से भी अनुरोध करता हूं कि अपने संघी लेखकोंं की एक बैठक करो और पुरस्कार वापसी का ऐलान करो । तब देखना मैं भी तुम्हारे साथ तुम्हारी आवाज में आवाज मिलाता मिलूंगा ।जिस तरह तुम सब कह रहे थे कि अखलाक के मामले में कि यह सब कांग्रेस के द्वारा प्रायोजित है । जब वो लोग प्रायोजित कर सकते है, तो तुम भी तो कर सकते हो ।
भीड़ चाहे हिंदुओं की हो या मुसलमानों की । वो ससुरी पागल ही होती है । जब तक धर्म की दुकानें बंद नहीं हो जाती माधो ये बवाल यूं ही कटते रहेंगे । कभी इधर से तो कभी उधर से ।
पैंतरा-पिटारा-प्रगतिशीलता
प्रगतिशीलता-परसाई के वंशज
उस्ताद-इसमें प्रगतिशीलता के सारे पैंतरे एक साथ रख लिए है.
जमूरा-क्यों ?
उस्ताद-आजकल भीड़ इन्हीं के नाम पर इकट्ठी होती है,इसलिए.न जाने कब कौन-सा पैंतरा फैंकना पड़ जाएं.एक जगह रहने पर सुविधा होती है तथा सामूहिकता वाला पैंतरा भी फिट बैठ जाता है.पॉलिटिकली भी करैक्ट हो जाते है.सर्वगुण सम्पन्न जैसा भाव भी बना रहता है.
जमूरा-पर उस्ताद पिटारे में तो ओर भी बहुत कुछ रखा है आपने.
उस्ताद-चुप रह.इस तरह की बातें खुले आम नहीं कहा करते.समय विचार लेना भी जरूरी होता है.नहीं तो मूरख बनने में देर नहीं लगती.और एक बार जो तुम पिछड़ गए तो फिर पिछड़ों की अगुवाई कैसे करोगे.
जमूरा-उस्ताद पैंतरा क्या होता है ? डॉ.हरदेव बाहरी के शब्दकोश में तो पैंतरा-(पु.)-तलवार आदि चलाने,कुश्ती आदि में पहले वाली मुद्रा से दूसरी ओर अधिक उपयुक्त मुद्रा में आना,चालाकी से भरी हुई कोई चाल या पैर का निशान-बताया गया है.तथा पैंतरेबाज-जो हथियार आदि चलाने की सही ढञंग जानता हो,या जो समयानुसार रंग-ढंग बदलना जानता हो.
उस्ताद-(सोचते हुए-हरदेव बाहरी किस तरफ का है-कुछ याद न आने पर) अरे उसको छोड़ो, यह वह शब्द-खेल है,जो अनेक-अर्थी होने के कारण कभी पकड़ में नहीं आएगा.जैसे ही पकड़ो गे ,यह तुरंत छि-टक कर अपना खोल बदल लेगा.इसमें सबको फिट भी किया जा सकता है और अनफिट भी किया जा सकता है.
जमूरा-फिट-अनफिट से मतलब.
उस्ताद-अपनी तरफ करना या दूसरी तरफ--दुश्मन खेमे में शामिल करना.
जमूरा- पर उस्ताद दुश्मनी करना तो ठीक नहीं होता.
उस्ताद-पागल इसे पक्षधरता कहते है.अपने-पराएं के भेद पर आधारित होती है.जो गरीब,निसहाय,शोषित,कमजोर आदि आदि है उनके पक्ष में.जो इनका पक्ष नहीं धरता-उठाता वहीं अपना दुश्मन है.यानी वो अपना विपक्ष है.उससे ही समाज को मुक्त करना है.ऐसा कहते रहना ही हमारा धरम है.धरम को नहीं छोड़ना चाहिए.
जमूरा-पर उस्ताद धरम से ज्यादा तो महत्वपूर्ण करम है.
उस्ताद-विरोध की संस्कृति को हम जिंदा रख कर उसी धरम के करम में लगे हुए है.और हां तू इस तरह के सवाल अकेले में ही किया कर.सामूहिक मंच पर एकजुटता नजर आनी चाहिए.नहीं तो दुश्मन अपने को कमजोर मानेगा.कमजोर होना हमें बिल्कुल पसंद नहीं है.हमें मजबूत दिखना चाहिए.अपनी कमजोरियों को छुपा कर ऱखना ही समय की मांग है.
जमूरा-उस्ताद फिर इस पिटारे की क्या जरूरत है ?
उस्ताद-पैंतरों को हमेशा पिटारे में ही रखना चाहिए.खुले आम कर देने पर इनमें जर लग सकता है.वैसे भी खुले रखूंगा तो क्या तू मुझे अपना उस्ताद मानेगा.नहीं ना.बस इन्हें पिटारे में रखने से ही हमारी बूझ होती है.नहीं तो हर कोई प्रगतिशील हो जाएगा तो फिर अलग और विशेष क्या रहेगा.हमारी तो अहमियत ही खतम हो जाएगी.हम विशिष्ट कैसे रहेंगे.कौन अगुवाई करेगा.विरोध की संस्कृति को आगे कौन ले कर जाएगा.
जमूरा-तो क्या उस्ताद, मैं हमेशा जमूरा ही बना रहूंगा और आप उस्ताद ही.या कभी आप भी जमूरे बन सकते है और मैं उस्ताद.
उस्ताद-चल भाग यहां से,तुझ पर भी दुश्मनों का रंग चढ़ कर बोलने लग गया.साला अपनी औकात ही भूल गया.मत भूल क्या-क्या नहीं किया मैं ने तेरे लिए.गद्दार कहीं के.कौन तुझे साथ में बैठाना पसंद करता था.पर मैं ने तुझे साथ बैठाया-खिलाया.पर साले तू उस लायक ही था.जहां से उठ कर आया है चला जा वहीं पर.गंदी नाली के कीड़े.
ऐसा मन ही मन सोचता उस्ताद उसे छोड़ कर आगे बढ़ गया.अपने प्रगतिशीलता के पिटारे में पैंतरों को समेट-लपेट कर.किसी दूसरे जमूरे की तलाश में.
बुधवार, 6 जनवरी 2016
बिल्लू का गुल्लक
#बिल्लू_का_गुल्लक
एक बर की बात सै । एक म्हारा दोस्त फेकण तै नहीं हटै था। उसकी बकबक सुण कै सारे भीत हो लिए थे। पर ओ कोणी मान्या ।
म्हारे में था तो वो सब तै सुथरा। इस मारे भी म्हारी सबकी उसनै देख कै जल्या करदी । उसनै छोरी भी घणी लैन दिया करदी ।
या हे मरोड़ उसनै इतना बुलवा री थी ।कहण लाग्या इसा है भाई गुड़ पै तै माखी (मक्खी) आया ए करै सै । एक म्हारा सब तै भुंडा दोस्त भरया पड्या था । ओ बोल्या-माखी तो गू पै भी खूब बैठे । सुथरे आळे का मुंह खुला का खुला रह गया । म्हारे सब के पेट फुटगे हंस हंस कै ।
हजारी जवाबी भी एक बड़ी खूबी मानी जाती है हरियाणे की ।
सब नै राम-राम
धैर्य और साजिश
#धैर्य का बीज बोये हुए कुछ दिन या कुछ घण्टे हुए है और तेज गहराते काले बादल सोच रहे है कि इसने पिछली फसल तो उठा ली पर धैर्य के बीज को डुबो कर मार दूँ । मिट्टी भी अब अपनी सारी सख्त मिज़ाजी पर उतर आई है। आस-पास के पेड़ भी साजिश में लगे हुए है । बसन्त में पतझड़ की तरह सारे पत्ते बीज पर गिरा दिए है और सूरज की रौशनी नहीं पहुंच पा रही बीज तक उतनी जितनी चाहिए उसे अंकुरित होने के लिए। हवा भी कम मिल रही बीज को और उसके अंदर की नमी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और अंकुरित होने की इच्छा शक्ति कठोर होती जा रही है।
तलवार भेदभाव नहीं करती इंसान या व्यवस्था करती है
तलवार फ़िल्म
व्यवस्थाओं को चरमराने में सम्बंधों की कितनी बड़ी भूमिका रही है यह बात बिल्कुल साफ तौर पर कही गयी है ।दूसरा इन सम्बंधों की भेंट चढ़ते है निर्दोष लोग । दोषी आजाद घूमते है।
व्यापक सन्दर्भों में इसको समझने की जरूरत है ।
फ़िल्म में सीबीआई और पुलिस व्यवस्था में सबसे बड़े पद पर बैठे दो अफसरों की दोस्ती के सम्बंधों को उजागर किया गया है। दोनों एक ही बैच के थे। पुलिस ने तलवार दम्पति को दोषी बनाकर कोर्ट में पेश किया और सीबीआई जाँच में पता चलता है कि नौकर और आरुषि की हत्या हस्पताल में काम करने वाले और उसके दोस्त ने किया है। पुलिस की लाज बचाने के लिए सीबीआई अफसर ने केस को कमजोर बना दिया ।
असली लापरवाही तो पुलिस की तरफ से शुरू में ही की गयी थी । जिन पर सीबीआई ने लीपापोती कर दी ।परिणाम यह निकला कि तलवार दम्पति को उम्र कैद की सजा हो गयी।
मौत की किताब
"समर्पण
संस्कृत भाषा के रहस्यमयी शब्द
ऋ
और इस उपन्यास के अंतिम पन्ने के नाम"
मौत की किताब उपन्यास की शुरुवात में समर्पण ही सोचने पर मजबूर कर देता है । हिंदी के जिस स्वर ऋ को हम सब ऋ से ऋषि के रूप जानते आये थे । उसमें कुछ रहस्य जैसा भी है,यह बात न तो पता थी और न किसी ने बताई । जिज्ञासा जागी आखिर इसमें रहस्य जैसा क्या है ?
रहस्य हमेशा से इंसान को अपनी और आकर्षित करते रहे है। जैसे इस उपन्यास का नाम भी एक तरह के रहस्य जैसा ही है। मौत की किताब-ऐसा इसमें क्या होगा ? क्या मौत का जाना जा सकता है ? इसी से जुड़ा दूसरा सवाल क्या जीवन को जाना जा सकता है ? या जो हम यह सोचते है कि हमनें जीवन को जान लिया है । अनुभव क्या काफी है जीवन को जानने के लिए ?
लेखक इस रहस्य की तरफ लेकर चलते है और लिखते है-"अक्सर मैं सच्चे दिल से खुद से ही यह सवाल करता हूँ कि मैं आख़िर लिखता क्यों हूँ ? लिखना और ख़राशें डालना,तकरीबन एक जैसी बातें हैं । संस्कृत की ऋ धातु पर ध्यान दें तो बात और साफ हो जाती है ।पत्थर पर ख़राशें डालना,उसे उधेड़ना,तकलीफ पहुंचाना ।लिखना यही सब तो है। ऋ धातु के अनुसार,लिखना वः है कि लेखक और उसकी रचना में कोई दूई या दूरी बाकी न रहे । ऋ आग के जलने की वैसी आवाज़ है जो लिखने की तमाम गंदगियों को जलाकर राख कर देती है ।इसलिए मुझे अपने जुर्म का अहसास है । मैं जो लिखता हूँ, वह पत्थर पर ख़राशें डालने के बराबर है । मुझे नहीं मालूम कि पत्थर को यक़ीनन कोई तकलीफ़ पहुंचती भी है या नहीं,मगर मेरे नाख़ून तो उखड़-उखड़ जाते हैं ।"
"लिखना एक तकलीफ़देह प्रोसेस है । लिखकर आप दूसरों को तकलीफ़ पहुंचाते हैं और ख़ुद आपके अंदर भी एक गहरा जख़्म उग आता है ।"
#मौत_की_किताब
शोर और सन्नाटा
सन्नाटे से डर नहीं लगता
और न ही शोर से लगता है।
डर तब लगता है जब ये दोनों
आपस में गहरे कहीं घुल मिल जाते है ।
मंगलवार, 5 जनवरी 2016
बचपन और जवानी का संक्रमण
#सन्1995
11 वीं में था,जब पहली बार डाक कावड़ लाया था ।दौड़ना तब मेरा जूनून हुआ करता था ।हर रोज कम से 20 km की दौड़ और बाद में 100 मीटर के फर्राटे या सपाटे लगाकर बदन खुलता था मजा आ जाता था ।ये उन दिनों की बात है जब दिमाग नहीं खुला था,वैसे खुला अब भी नहीं है बस चल पड़ा है ।और आप तो जानते ही है कि जिसका दिमाग चल पड़ता है उससे लोग बाग़ खार खाएं ही रहते है ।बहरहाल भक्त तब नहीं था । 10 बार के करीब डाक कावड़ लाया,जिसमे 7 से लेकर 15 जने तक हरिद्वार से रिले रेस की तरह भागते है । हमारी कावड़ सबसे कम समय में कावड़ लाने के प्रसिद्ध थी । सबसे कम समय था 5 घण्टे 58 मिनट । समालखा से हरिद्वार की दूरी लगभग 170 km बताई जाती थी । पहली बार का समय 14 घण्टे से कुछ मिनट ज्यादा ही था ।समय हर बार घटता गया और जूनून हर बार बढ़ता गया । बम बम भोले बोलना तब भी चुतियापा लगता था और गंगाजल चढ़ाना मूर्खता ।
उस समय मैं अपनी टीम का अच्छा धावक माना जाता था । ये मेरी जिंदगी में बाहर से आई पहली ख़ुशी थी,क्योंकि उससे पहले मुझे इतना मान और सम्मान कभी नहीं मिला था न घर पर और न बाहर ही । मैं तो फिर इसी में जीने लगा ।हर रोज सुबह 4 बजे से दौड़ना शुरू और शाम को तपते रेत पर दौड़ता । दूध और चना हर रोज की खुराक बन गयी ।
मई,जून और जुलाई के तीन महीने जो सबसे गर्म दिन होते है इनमें रेस लगाने का मजा है वो किसी महीनों में नहीं ।इन महीनों में पैर थिरकने लगते है दौड़ने के लिए ।
उन दिनों चांदी के मेडल भी मिले जो बाद में छल्ले बनकर प्रेमिकाओं की उँगलियों में खूब जँचे ।
बिल्लू का गुल्लक
यह फेसबुक और सेल्फ़ी फोबिया का दौर है । दौर बदलते चले गए और बदलते दौर के साथ फोबिया के दोरे भी पलटते रहे।
लुकम-लुकाई(छुपम छुपाई) बचपन का फोबिया रहा । फिर पकड़म-पकड़ाई का दौर आया । गाम की थली (रेत के टीले) पर फ़िल्म बनाने का दौर आया । गोलियां (कंचे) खेलने का दौर आया । घोड़ी आळे घोड़ी आळे कित्थू का दौर आया । बित्ती डंडे का दौर आया । पीठो खेलने का दौर आया । का डंडा खेलने का दौर आया।
क्रिकेट खेलने का जनून सबसे लम्बा चला । कबड्डी का दौर भी खूब चला । ताश नशा बनकर जीवन में उतरा ।
शराब और सिगरेट जीवन का हिस्सा बनती चली गयी । इनके साथ प्रेम और सेक्स के लिए भटकने का दौर जीवन का अंग बनकर साथ चलता-पलता गया ।लड़ाई-झगड़े भी होते ही रहे बचपन से लेकर अब तक ।
प्रेम में डूब जाने के बाद पढ़ने का दौर आया ।
भाषा और बोलियाँ
बोलियाँ भाषा के कान भर रही थी
अनुभव से ज्यादा वजन बढ़ाये हुए हिंदी के प्रोफेसर उस समय सोफे की गोद में आराम फरमा रहे थे। कुछ प्यारी बच्चियां इधर उधर चहल रही थी । कुछ प्यारे बच्चे लाल के जूते पर उँगलियाँ स्पर्श करा रहे थे। बोलियाँ बोखलाई हुई इधर-उधर मटकती फिर रही थी ।एक बोली ने जरूरत से ज्यादा मेकअप किया हुआ था जिसे देखकर रीतिकालीन शिक्षक से टिप्पणी किये बगैर नहीं रहा गया और उसने अपना ऐतिहासिक छोटा वक्तव्य देते हुए कहा- "बिल्कुल तमाशा दिखाने वाली की बन्दरिया लग रही हो ।" इतना कहने भर की देर थी कि उन उपजाऊ शिक्षक के अनुयायी ने तुरन्त इस बिम्ब को अपनी डायरी में तारीख के साथ दर्ज कर लिया ।
वक्तव्य की गूँज ने सूर्य की किरणों की तरह उस हाल को जगमग कर दिया । जिस पर टिप्पणी हुई बस उसकी ऑंखें शर्म झुक गयी। उसके बगल से आई बोली के चेहरे का रंग ख़ुशी से लाल हो गया।
भाषा दूर से सब कुछ भांप रहा था। जी यहां भाषा व्याकरण के नियमों को तोड़कर खुद को स्त्रीलिंग के दायरे से बाहर मानकर पुलिंग जैसा व्यवहार कर रहा था। बोलियाँ आपस में फुसफुसा रही थी । जब जिस बोली का दाव लगता वह गर्दन झुका कर भाषा के सामने अपनी दिक्कते गिनाने लगती और ऊँगली से इशारा करके दूसरी बोली बाबत भाषा के कान भरने लग जाती ।
कान भराई की सरकारी रस्म पर करीब 3 करोड़ का खर्च हुआ । कन्धों पर सबके झोलों से साफ लग रहा था कि भारत के खादी उद्योग का जीडीपी बढ़ गया होगा ।
आवेदन
कृपया वो कवि आवेदन करें
जिनकी कविताओं में उनका समय और समाज न धकड़ता हो और न फड़कता हो । जिनकी कविता कहे से ज्यादा अनकही कहती हो वो कष्ट न करें। यहां उनकी पुकार भी अनसुनी रह जायेगी। जिस कविता में परम्परा से प्रेम हो या परम्परा से विद्रोह वो दोनों आपस में ही कविता भेज लें ।उन दोनों को आपस में सहयोग की ज्यादा जरूरत है।
आपको अगर कविता किसी पुरस्कार के योग्य लगती है तो उसे उन महानुभवों को ही सम्प्रेषित करें । अगर पुरस्कार योग्य आपको भी नहीं लगती तो किसी पत्रिका को भेज दीजिये ताकि उसके खाली स्पेस की शोभा बढ़ सकें ।
प्रेम कहानी
#हमारी_प्रेम_कहानी
पूनम और मैं जब दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से एम.ए.कर रहे थे । पहले साल हम दोनों के बीच कोई परिचय नहीं था। दूसरे यानी अंतिम साल में सभी को एक ऑप्शन खुद चूज करना पड़ता है।
यह बात 2003 की है । उन दिनों रीतिकाल और नाटक के अच्छे दिन चल रहे थे। बाकि के राम भरोसे चल रहे थे । समय और डिमांड के हिसाब से ज्यादातर नाटक और रीतिकाल को चूज करने में अपना भविष्य साफ देख रहे थे ।
हिन्दू कॉलेज के बच्चे रामेश्वर राय जी के आक्रांत वातावरण में आधुनिक कविता की तरफ कदम बढ़ा रहे थे। उन दिनों उनके लिए वो अंधे की लाठी थे । मुझ जैसे भी कई थे जो केवल अपनी पसन्द की वजह से आधुनिक कविता ले रहे थे। फैकल्टी का कोई सेलेब्रेटी टीचर उन दिनों आधुनिक कविता ऑप्शन की क्लास नहीं लेता था। डीयू के कुछ कॉलेज से हमें यदाकदा कुछ टीचर आ जाते थे । आधुनिक कविता ऑप्शन में उन दिनों दिक्कतें भी ज्यादा थी । 1850 से लेकर अद्यतन (वर्तमान)तक की कविता के साथ सभी विचारधाराएँ भी शामिल कर दी गयी थी । न तो मटेरियल मिलता था और न उन दिनों की जीवनबूटी अशोक प्रकाशन इस पर कोई गाइड निकालता था। उन दिनों गूगल बाबा का भी अता-पता नहीं था।
मैंने तो यही ऑप्शन लिया और पूनम ने भी यही ले लिया ।क्योंकि वो हिन्दू कॉलेज से थी । उससे पहली मुलाकात या फॉर्मल बातचीत तभी हुई थी । मेरी दोस्त ने ही हम दोनों के बीच दोस्ती कराई थी । एक महीने के बाद पूनम ने ऑप्शन बदल लिया ।
किस्मत जैसे शब्द पर यकीन नहीं करता हूँ पर इत्तेफाक गजब का था । उस महीने की दोस्ती ने भूमिका बना दी हमारे जीवन की । ऐसा लगता है उसका ऑप्शन केवल मुझसे मिलने का बहाना भर था।
2003 से शुरू हुई दोस्ती आज भी जारी है ।