नेता भी चाहिएँ और नागरिक भी--- प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल
हालत कहीं और बदतर न हो जाए.सवाल यह है कि नाकाबिले बर्दाशत को बेहतर या बदतर में कौन-सी चीजें बदल सकती है.क्या करे ?
लेकिन इस सवाल का जवाब देने से पहले एक बहुत ही नाजुक सवाल से टकराना होगा कि अगर चीजों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया तो अंततः हालात किस तरह के होंगे ? अगर आप कुछ न करे,तो यह तो सही है ही कि जो अपने को तटस्थ कहते है,समय उनका अपराध लिखेगा.हमारे कवि हमें बहुत पहले चेतावनी दे गए है.लेकिन वो अपराध लिखा जाएगा या न लिखा जाए.लेकिन हालात जिस तरह के है,उनको अगर उनके हाल पर छोड़ दिया जाए तो,वे किस तरफ जाएंगे.ये चेतावनी लेखक जर्मनी को,सारे यूरोप को दे रहा था.ये चेतावनी जितनी 1939 में थी,उससे कम सार्थक 2013 में नहीं है.केवल भारत के लिए नहीं,बल्कि सारी दुनिया के लिए जिस तरह की स्थितियां बन रही है.जिस तरह की चीजें हो रही है.अगर वो अपने आंतरिक तट से जैसी की तैसी चलती रही तो हम कहां पहुचेंगे,इस पर सोचना चाहिए.
इम्मेनुएल वार्ल्स्टाइन की किताब है,जो 2007 में आई.The end of the world as we
know it.जिस रूप में हम दुनिया को जानते है,उस रूप में
दुनिया समाप्त हो चुकी है.अब नई तरह की व्यवस्था विकसित होगी.सारी जो पुरानी विश्व
प्रचलित व्यवस्थाएं रही है.पँजीवाद,समाजवाद,लोकतंत्र कहिए,राष्ट्रवाद कहिए.सारे
सामाजिक-राजनीतिक संगठन के ढांचे और संरचनाएं है,उनको नोट करते है कि सब की सीमाएं
व दरारें साफ दिखने लगी हैं.वार्ल्स्टाइन पुस्तक का आरंभ करते हुए कहते है कि—अगले
50 साल में व्यवस्था कैसी होगी ? क्या
होगी ? कुछ बी कहना मुश्किल है.चीजे बेहतर होंगी या बदतर
होगी,ठीक वही बात जो हरमन कह रहे है.कहना मुश्किल है.इसीलिए छोटी-से-छोटी बात
का,छोटे-से-छोटे काम काम का विशेष महत्व है.
राम कथा के रूप में सुनी होगी कहानी.गिलहरी की कथा.राम सेतु का निर्माण किया जा रहा है.सुब्रमण्यम वाला राम सेतु नहीं,रामायण वाला राम द्वारा . सेतु का निर्माण किया जा रहा है,सारी सेना वानरों की और सभी लगे हुए है.राम देखते है कि एक गिलहरी समुद्र के किनारे गुलाटी लगाती है और जाकर चट्टानों पर लेट जाती है,फिर जाती है ,फिर चट्टानों पर लेट जाती है.राम पूछते है कि यह क्या तमाशा है ? राम गिलहरी को हथेली पर रखते है और पूछते है कि यह क्या कर रही हो ? तो कहती है कि आप राक्षस के विरूद्ध लड़ने जा रहे हो.मेरी कोई औकात नहीं.आप इतने बड़े यौद्धा हैं.नर-नल जैसे इंजीनियर है,इतने भक्त हैं.मैं आपके लिए कुछ नहीं कर सकती संभवतः.लेकिन जितना मेरे शरीर में रेत समाता है,उतना मैं इन पत्थरों के सेंध में डाल देती हूं.पुल कुछ ज्यादा मजबूत हो जाएगा.जिस पुल पर चल कर आप रावण से लड़ने गए थे,उस पुल के निर्माण में थोड़ी बहुत मेरी रेत,मेरी देह का भी योगदान था.गिलहरी की विन्रमता से कहना चाहता हूं कि मुझे कोई गलत फहमी नहीं है कि मेरे व्याख्यान से कोई भारी अंतर पड़ जाएगा.बड़ा योगदान यही होगा कि जिस पुल पर चढ़ कर गए उस पुल में थोड़ा बहुत योगदान उस गिलहरी का भी था.इस प्रेरणा से थोड़ी बहुत बातें आपसे कहने के लिए खड़ा हुआ हूं.
जिस तरह कासमाज बन रहा है और जिस तरह की स्थितियां बन रही है.हमारा
समाज एक गहरे अविश्वास से ग्रस्त है.यह चिंता का विषय है.The state of conviction में भी
व्यक्ति को नोट किया है कि अविश्वास लगातार बढ़ता जा रहा है.यह अविश्वास जूडीसीयरी
के प्रति भी,लेगीस्लेचर और एचमीसट्रेशन के प्रति भी.ये उनके शब्द है—गहरा अविश्वास
और एक दूसरे के प्रति संदेह.
एक ओर हिन्दी के बड़े लेखक चंद्रधर शर्मा गुलेरी.लोक से वैसा ही संवाद
रखते थे,जैसा पांडित्य से.उन्होंने लेख लिखा-श्रद्धा.श्रद्धा शब्द का मूल अर्थ
रखना होता है.किसी चीज को रखना.मारवाडी में श्रद्धा का अर्थ है फेथ.उस अर्थ में
नहीं डिवोशन.बल्कि परस्पर विश्वास का,हर चीज का.साझेदारी का संबंध है.पति-पत्नी का
संबंध है श्रद्धा का संबंध.नागरिक र समाज का भी यही संबंध होना चाहिए.
मैं एक ऐसे विषय पर बोल रहा हूं,जिससे हम सबका संबंध हैं.हम सब
नागरिकों का संबंध हैं.मैंने जैसा आपको कहा कि दिनकर को देखने का अवसर मुझे नहीं
मिला,लेकिन एक डाक्यूमैंट्री बचपन में देखी थी,जिसमें वह(दिनकर) कविता पढ़ते हुए
दिखते है-“तान-तान फन व्याल के,मैं तुझ पर बांसुरी बजाऊं”. तब मेरे बाल मन में यह इच्छा
प्रकट हुई थी कि काश !
मैं
कभी दिनकर को यूं सामने से कविता पढ़ते हुए देखूं.दिनकर कविता केवल पढ़ नहीं रहे
थे.दिनकर पूरी अपनी मुख मुद्रा से,पूरी भंगिमा से,पूरे शरीर विन्यास से कविता को रच
रहे थे जैसे,अद्भुत था वो कविता पाठ.दिनकर का
एक निबंध जो 9वीं कक्षा में लगा हुआ था.उस निबंध का एक वाक्य मुझे किसी न किसी रूप
में प्रभावित करता रहा है.वाक्य इस रूप में है कि-“सब नेता बन जाएगें जब, जवाहर लाल कि मोटर कौन चलाएगा,नाश्ता कौन बनाएगा”.,इस
रूप में वो वाक्य मुझे हांट करता रहा है और इस निबंध का शीर्षक था-“नेता नहीं,नागरिक चाहिए”.उस निबंध को ही ध्यान में रखते
हुए यह आज का शीर्षक-“नेता
भी चाहिएँ और नागरिक भी” ,विषय चुना.
दिनकर ने वह निबंध 1951 या 52 में लिखा था और उसके वो तीन-चार वाक्य आपके सामने पढ़ना चाहता हूं.और फिर हम देखें कि 1951-52 से आज 2013 तक हम कहां पहुंच गए है और दिनकर जी के साथ वरिष्ठ कवि गुप्त जी कि यह पंक्ति याद करें कि-“हम क्या थे,क्या हो गए और क्या होंगे.” इसे विचारने का समय 1912 में भी था और इसे विचारने का समय 2013 में भी है.दिनकर के वाक्य पढ़ता हूं-“कल्पना कीजिए,कि देश का एक-एक आदमी जवाहरलाल हो गया ,तब एक-एक आदमी सोचेगा,योजनाएं बनाएगा,बहस करेगा,लेकिन जब इन 35 करोड जवाहरलालों को भोजन कौन बनाएगा,उनके लिए कपड़े कौन धोएगा,मुश्किल यह है कि उनकी मोटरें कौन चलाएगा.जवाहरलाल बनने में और सब ठीक है,कठिनाई सिर्फ इतनी है कि जवाहरलाल कुदाल नहीं चला सकता,हथोडे नहीं उठा सकता और ज्यादातर वह अपनी मोटर भी आप नहीं चलाता है” और इसलिए उस निबंध के अंत में उन्होंने लिखा कि दरअसल पूरा निबंध इस बात की वेदना में भरा हुआ है कि “इस समय देश में नेता बहुत अधिक है.यह सन् 1951 की बात है.इस देश में हर आदमी नेता बनना चाहता है,नेता दिखना चाहता है.जाहिर है कि इस समय नेता का जैसा अवमूल्यन नहीं हुआ था,लेकिन अब हो चुका है.अब मौहल्ले के सबसे बदमाश व्यक्ति को,कॉलेज के सबसे दुष्ट छात्र को आजकल नेता जी कहते है.संभवतः यह स्थिति 1951-52 में नहीं थी.इसीलिए दिनकर जी ऑब्जरव कर रहे थे अपने आस-पास कि सभी नेता बनने के लिए उत्सुक है और उस निबंध में अंत में वह कहते है—“और नेता होता कौन है ? अक्सर वह मनुष्य जो अपने मूल्यों को चरित्र व व्यक्तित्व को व्यवाहरिक रूप देता है.जिन मूल्यों की समाज को जरूरत होती है.नेता वो है,जो समाज के लिए जरूरी उन मूल्यों को अपने आचरण में उतारे और ऐसे नेता तभी उत्पन्न हो सकते हैं,जब कि हम सब बतौर नागरिक के ऐसे मूल्यों को अपने आचरण में उतारें”.इसलिए दिनकर जी उस निबंध में स्थापित करते है कि-हमें नेता नहीं,नागरिक चाहिए.
यह बहुत महत्वपूर्ण है मित्रों,कि यह बात एक लेखक,एक कवि,एक साहित्यकार कह रहा हैं.देश का निर्माण आंरभ ही हुआ था.सारे समाज में उत्साह और आशावाद का वातावरण था.जवाहरलाल के नेतृत्व में लोगों कि अगाध आस्था थीं,लेकिन दिनकर जी यह नोट कर रहे थे कि कहीं कुछ गड़बड़ है.कहीं नागरिकता के निर्माण की,नागरिकता की सकंल्पना की समस्याएं उत्पन्न हो रही है.यह बहुत महत्वपूर्ण है.इसी समय हम यह भी याद करे कि एक और कवि ने बरसों बाद यह नोट किया था कि – “अंततः हम एक आलोचनात्मक राष्ट्र का निर्माण करने में असफल रहे हैं”.यह अज्ञेय का वाक्य है.2013 में यह बात सत्य लगती है कि हम एक आलोचनात्मक,एक उल्लेखवान,एक चिंतित राष्ट्र का निर्माण करने में दूर तक असफल रहे है और भावनाएं इस समय कितनी कोमल है.यही वो कारण है कि हर साल मैं केवल एक वक्तव्य करता हूं और करना चाहता हूं.क्योंकि मैं नहीं जानता कब आप में से कौन, कौन से मेरे वाक्य से आपकी भावना आहत हो जाए और कल कौन आप में से अपनी उस आहत भावना के लिए मेरे शरीर को शत-विक्षत और आहत करने के लिए उत्सुक हो.किसी को कुछ नहीं कह सकते.कब किसकी भावना ,किस चीज से आहत हो जाए.किसी फिल्म में किसी गाने से,किसी कहानी से,किसी शब्द से,किसी कविता से,किसी के पात्रो के नाम से,कुछ नहीं कहा जा सकता है.भावनाओं की हमारा समाज इतनी चिंता करता है कि मैंने आज तक पिछले कुछ दिनों में किसी को यह शिकायत करते नहीं सुना कि फंला आदमी की फंला बात से मेरा विवेक आहत हो गया.आपने सुना हो तो कृपया मुझे बताएं ?
और यह उस सभ्यता में,कभी-कभी गर्व होता है इनचीजों को याद करते हुए,तो कभी उसी अनुपात मे लज्जा भी आती है कि उस सभ्यता में जब वेद में यह कथा आती है कि-जब देवता चले गए धरती छोड़ कर और एक-एक करके सभी बुजुर्ग और ऋषि भी मरने लगे तो देवताओं से पूछा गया कि धरती के नरों ने कि अब जब आप चले ही गए हो तो ऋषि भी अब धीरे-धीरे जा रहे है.हमारा नया ऋषि कौन होगा ? ऋषि यानि देखने वाला.हमारे लिए रास्ता कौन देखेगा ? और कौन दिखाएगा ? तो उत्तर देता है कि देवताओं और ऋषियों के जाने के बाद तुम्हारा मार्गदर्शक तप होगा.यह आज से ढाई हजार साल पहले की बात है.उस समाज में,उस परंपरा में स्थिति यह कहती है कि तप और विवेक रचनात्मक अभिव्यक्ति कब किस तरफ से खतरे में आ जाए.इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं है.मैं तो क्या ,कोई प्रोफेशनल अस्ट्रालाजर भी इस बारे में नहीं बता सकता .बड़े से बड़े ज्योतिषी से जाकर पूछ लीजिए जो यह बताने में सक्ष्म हो कि अगले प्रधानमंत्री श्री अलां होंगे या फंला होंगे.वह यह नहीं बता सकेगा कि किस बात से कब किसकी भावना आहत हो जाए.
इस कदर भावुक समाज की रचना हम लोगों ने की है और इसलिए अज्ञेय जी का यह कथन-अंततः हम आलोचनात्मक राष्ट्र के निर्माण में असफल रहे है.दिनकर की यह वेदना की नेता बहुत है लेकिन नागरिक नहीं है.इसीलिए मित्रों,इस स्थिति पर पूरी गहराई,पूरी गंभीरता के साथ विचार करना जरूरी है.आज की स्थिति मुझे याद दिलाती है एक किताब की.Revolution of Nihilism-warning to the west(1939)-author-Rausching Herman.ये अगस्त 1939 में लिखी गई थी.तारीख पर ध्यान दीजिए.यह इसीलिए कह रहा हूं कि अगस्त1939 में यह किताब छपी थी और इसका लेखक नासी पार्टी का भूतपूर्व सदस्य था.1937 तक नासी पार्टी में था और अगस्त 1939 में उसने यह किताब प्रकाशित की थी.और सितंबर 1939 में हिटलर ने हमला कर दिया था.Nihilism-विनाशवाद,हर तरफ विखंडन का दौर.किसी चीज में कोई आस्था नहीं.किसी संस्था,किसी मर्यादा और किसी परंपरा की कोई परवाह नहीं.जो हम कह रहे है,वही सही है.यह है Nihilism का तात्पर्य.यह पुस्तक आंरभ होती है अद्भुत वाक्य से आंरभ होती है- "हमारे समय में लालच है,इस बात का ,कि हम असहनीय को भी नाकाबिले बर्दाशत को भी बर्दाशत कर ले."
दिनकर ने वह निबंध 1951 या 52 में लिखा था और उसके वो तीन-चार वाक्य आपके सामने पढ़ना चाहता हूं.और फिर हम देखें कि 1951-52 से आज 2013 तक हम कहां पहुंच गए है और दिनकर जी के साथ वरिष्ठ कवि गुप्त जी कि यह पंक्ति याद करें कि-“हम क्या थे,क्या हो गए और क्या होंगे.” इसे विचारने का समय 1912 में भी था और इसे विचारने का समय 2013 में भी है.दिनकर के वाक्य पढ़ता हूं-“कल्पना कीजिए,कि देश का एक-एक आदमी जवाहरलाल हो गया ,तब एक-एक आदमी सोचेगा,योजनाएं बनाएगा,बहस करेगा,लेकिन जब इन 35 करोड जवाहरलालों को भोजन कौन बनाएगा,उनके लिए कपड़े कौन धोएगा,मुश्किल यह है कि उनकी मोटरें कौन चलाएगा.जवाहरलाल बनने में और सब ठीक है,कठिनाई सिर्फ इतनी है कि जवाहरलाल कुदाल नहीं चला सकता,हथोडे नहीं उठा सकता और ज्यादातर वह अपनी मोटर भी आप नहीं चलाता है” और इसलिए उस निबंध के अंत में उन्होंने लिखा कि दरअसल पूरा निबंध इस बात की वेदना में भरा हुआ है कि “इस समय देश में नेता बहुत अधिक है.यह सन् 1951 की बात है.इस देश में हर आदमी नेता बनना चाहता है,नेता दिखना चाहता है.जाहिर है कि इस समय नेता का जैसा अवमूल्यन नहीं हुआ था,लेकिन अब हो चुका है.अब मौहल्ले के सबसे बदमाश व्यक्ति को,कॉलेज के सबसे दुष्ट छात्र को आजकल नेता जी कहते है.संभवतः यह स्थिति 1951-52 में नहीं थी.इसीलिए दिनकर जी ऑब्जरव कर रहे थे अपने आस-पास कि सभी नेता बनने के लिए उत्सुक है और उस निबंध में अंत में वह कहते है—“और नेता होता कौन है ? अक्सर वह मनुष्य जो अपने मूल्यों को चरित्र व व्यक्तित्व को व्यवाहरिक रूप देता है.जिन मूल्यों की समाज को जरूरत होती है.नेता वो है,जो समाज के लिए जरूरी उन मूल्यों को अपने आचरण में उतारे और ऐसे नेता तभी उत्पन्न हो सकते हैं,जब कि हम सब बतौर नागरिक के ऐसे मूल्यों को अपने आचरण में उतारें”.इसलिए दिनकर जी उस निबंध में स्थापित करते है कि-हमें नेता नहीं,नागरिक चाहिए.
यह बहुत महत्वपूर्ण है मित्रों,कि यह बात एक लेखक,एक कवि,एक साहित्यकार कह रहा हैं.देश का निर्माण आंरभ ही हुआ था.सारे समाज में उत्साह और आशावाद का वातावरण था.जवाहरलाल के नेतृत्व में लोगों कि अगाध आस्था थीं,लेकिन दिनकर जी यह नोट कर रहे थे कि कहीं कुछ गड़बड़ है.कहीं नागरिकता के निर्माण की,नागरिकता की सकंल्पना की समस्याएं उत्पन्न हो रही है.यह बहुत महत्वपूर्ण है.इसी समय हम यह भी याद करे कि एक और कवि ने बरसों बाद यह नोट किया था कि – “अंततः हम एक आलोचनात्मक राष्ट्र का निर्माण करने में असफल रहे हैं”.यह अज्ञेय का वाक्य है.2013 में यह बात सत्य लगती है कि हम एक आलोचनात्मक,एक उल्लेखवान,एक चिंतित राष्ट्र का निर्माण करने में दूर तक असफल रहे है और भावनाएं इस समय कितनी कोमल है.यही वो कारण है कि हर साल मैं केवल एक वक्तव्य करता हूं और करना चाहता हूं.क्योंकि मैं नहीं जानता कब आप में से कौन, कौन से मेरे वाक्य से आपकी भावना आहत हो जाए और कल कौन आप में से अपनी उस आहत भावना के लिए मेरे शरीर को शत-विक्षत और आहत करने के लिए उत्सुक हो.किसी को कुछ नहीं कह सकते.कब किसकी भावना ,किस चीज से आहत हो जाए.किसी फिल्म में किसी गाने से,किसी कहानी से,किसी शब्द से,किसी कविता से,किसी के पात्रो के नाम से,कुछ नहीं कहा जा सकता है.भावनाओं की हमारा समाज इतनी चिंता करता है कि मैंने आज तक पिछले कुछ दिनों में किसी को यह शिकायत करते नहीं सुना कि फंला आदमी की फंला बात से मेरा विवेक आहत हो गया.आपने सुना हो तो कृपया मुझे बताएं ?
और यह उस सभ्यता में,कभी-कभी गर्व होता है इनचीजों को याद करते हुए,तो कभी उसी अनुपात मे लज्जा भी आती है कि उस सभ्यता में जब वेद में यह कथा आती है कि-जब देवता चले गए धरती छोड़ कर और एक-एक करके सभी बुजुर्ग और ऋषि भी मरने लगे तो देवताओं से पूछा गया कि धरती के नरों ने कि अब जब आप चले ही गए हो तो ऋषि भी अब धीरे-धीरे जा रहे है.हमारा नया ऋषि कौन होगा ? ऋषि यानि देखने वाला.हमारे लिए रास्ता कौन देखेगा ? और कौन दिखाएगा ? तो उत्तर देता है कि देवताओं और ऋषियों के जाने के बाद तुम्हारा मार्गदर्शक तप होगा.यह आज से ढाई हजार साल पहले की बात है.उस समाज में,उस परंपरा में स्थिति यह कहती है कि तप और विवेक रचनात्मक अभिव्यक्ति कब किस तरफ से खतरे में आ जाए.इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं है.मैं तो क्या ,कोई प्रोफेशनल अस्ट्रालाजर भी इस बारे में नहीं बता सकता .बड़े से बड़े ज्योतिषी से जाकर पूछ लीजिए जो यह बताने में सक्ष्म हो कि अगले प्रधानमंत्री श्री अलां होंगे या फंला होंगे.वह यह नहीं बता सकेगा कि किस बात से कब किसकी भावना आहत हो जाए.
इस कदर भावुक समाज की रचना हम लोगों ने की है और इसलिए अज्ञेय जी का यह कथन-अंततः हम आलोचनात्मक राष्ट्र के निर्माण में असफल रहे है.दिनकर की यह वेदना की नेता बहुत है लेकिन नागरिक नहीं है.इसीलिए मित्रों,इस स्थिति पर पूरी गहराई,पूरी गंभीरता के साथ विचार करना जरूरी है.आज की स्थिति मुझे याद दिलाती है एक किताब की.Revolution of Nihilism-warning to the west(1939)-author-Rausching Herman.ये अगस्त 1939 में लिखी गई थी.तारीख पर ध्यान दीजिए.यह इसीलिए कह रहा हूं कि अगस्त1939 में यह किताब छपी थी और इसका लेखक नासी पार्टी का भूतपूर्व सदस्य था.1937 तक नासी पार्टी में था और अगस्त 1939 में उसने यह किताब प्रकाशित की थी.और सितंबर 1939 में हिटलर ने हमला कर दिया था.Nihilism-विनाशवाद,हर तरफ विखंडन का दौर.किसी चीज में कोई आस्था नहीं.किसी संस्था,किसी मर्यादा और किसी परंपरा की कोई परवाह नहीं.जो हम कह रहे है,वही सही है.यह है Nihilism का तात्पर्य.यह पुस्तक आंरभ होती है अद्भुत वाक्य से आंरभ होती है- "हमारे समय में लालच है,इस बात का ,कि हम असहनीय को भी नाकाबिले बर्दाशत को भी बर्दाशत कर ले."
हालत कहीं और बदतर न हो जाए.सवाल यह है कि नाकाबिले बर्दाशत को बेहतर या बदतर में कौन-सी चीजें बदल सकती है.क्या करे ?
लेकिन इस सवाल का जवाब देने से पहले एक बहुत ही नाजुक सवाल से टकराना होगा कि अगर चीजों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया तो अंततः हालात किस तरह के होंगे ? अगर आप कुछ न करे,तो यह तो सही है ही कि जो अपने को तटस्थ कहते है,समय उनका अपराध लिखेगा.हमारे कवि हमें बहुत पहले चेतावनी दे गए है.लेकिन वो अपराध लिखा जाएगा या न लिखा जाए.लेकिन हालात जिस तरह के है,उनको अगर उनके हाल पर छोड़ दिया जाए तो,वे किस तरफ जाएंगे.ये चेतावनी लेखक जर्मनी को,सारे यूरोप को दे रहा था.ये चेतावनी जितनी 1939 में थी,उससे कम सार्थक 2013 में नहीं है.केवल भारत के लिए नहीं,बल्कि सारी दुनिया के लिए जिस तरह की स्थितियां बन रही है.जिस तरह की चीजें हो रही है.अगर वो अपने आंतरिक तट से जैसी की तैसी चलती रही तो हम कहां पहुचेंगे,इस पर सोचना चाहिए.
राम कथा के रूप में सुनी होगी कहानी.गिलहरी की कथा.राम सेतु का निर्माण किया जा रहा है.सुब्रमण्यम वाला राम सेतु नहीं,रामायण वाला राम द्वारा . सेतु का निर्माण किया जा रहा है,सारी सेना वानरों की और सभी लगे हुए है.राम देखते है कि एक गिलहरी समुद्र के किनारे गुलाटी लगाती है और जाकर चट्टानों पर लेट जाती है,फिर जाती है ,फिर चट्टानों पर लेट जाती है.राम पूछते है कि यह क्या तमाशा है ? राम गिलहरी को हथेली पर रखते है और पूछते है कि यह क्या कर रही हो ? तो कहती है कि आप राक्षस के विरूद्ध लड़ने जा रहे हो.मेरी कोई औकात नहीं.आप इतने बड़े यौद्धा हैं.नर-नल जैसे इंजीनियर है,इतने भक्त हैं.मैं आपके लिए कुछ नहीं कर सकती संभवतः.लेकिन जितना मेरे शरीर में रेत समाता है,उतना मैं इन पत्थरों के सेंध में डाल देती हूं.पुल कुछ ज्यादा मजबूत हो जाएगा.जिस पुल पर चल कर आप रावण से लड़ने गए थे,उस पुल के निर्माण में थोड़ी बहुत मेरी रेत,मेरी देह का भी योगदान था.गिलहरी की विन्रमता से कहना चाहता हूं कि मुझे कोई गलत फहमी नहीं है कि मेरे व्याख्यान से कोई भारी अंतर पड़ जाएगा.बड़ा योगदान यही होगा कि जिस पुल पर चढ़ कर गए उस पुल में थोड़ा बहुत योगदान उस गिलहरी का भी था.इस प्रेरणा से थोड़ी बहुत बातें आपसे कहने के लिए खड़ा हुआ हूं.
मित्रों,क्या स्थिति है ? मैं
10-12 साल पहले अपने एक छात्र के बुलाने पर अलीगढ़ गया था.उनके बुलाने पर जब उनके
घर खाना खाने गया तो मैं उनके घर में लगी तस्वीरों को देखकर हैरान हो गया.उनमें
राजनेताओं के साथ तस्वीरें खीचवाई गई थी.पूछे जाने पर छात्र ने जवाब दिया कि –सर
,आप रहते है दिल्ली में और वो भी जेएनयू में.आप को पता नहीं है कि अगर हिंदुस्तान
के किसी भी छोटे शहर में आपको मध्यवर्गीय सम्मान और सुरक्षा के साथ जीवित रहना है
तो पति-पत्नी में से किसी एक नेता होना या
अफसर होना जरूरी है,वरना आप मध्यवर्गीय समम्न के साथ जीवित नहीं रह सकते.कब कौन आए
और मेरे घर में से क्या उठाले जाए और मेरी शिकायत सुनी नहीं जाएगी.कब मेरा बच्चा
स्कूल से नहीं लौटेगा और मेरी एफ आई आर लिखी नहीं जाएगी.वो तभी लिखी जाएगी जब
मुझमें या मेरी पत्नी में से एक या तो अफसर हो या नेता हो.और इसलिए मैं तो
यूनीवर्सीटि में पढ़ाता हूं.मैं न तो अफसर हूं और न नेता हो सकता हूं.इसलिए मैंने
इनको लगा दिया है लाइन पर और वो बन गई है नेताइसलिए अब उन्हें पूर्ण सुरक्षा का
अहसास प्राप्त है.
जब हमारे संविधान का निर्माण करने वाले बहसें कर रहे थे,चर्चा कर रहे
थे.असल में वो यही कर रहे थे.औपनिवेशिक सत्ता के विपरीत राज्य और नागरिक का संबंध
क्या हो ? नागरिक और राज्य का संबंध श्रद्धा का हो.संविधान
निर्माताओं की और संविधान लागू करने का दायित्व जिन पर आया उनकी जिम्मेदारियां
बनती थी.लेकिन जिसकी बी विफलताएं हो,पर आज स्थिति ये है कि हमारे संबंध श्रद्धा के
संबंध नहीं है.हमारे संबंध संवेदी सूचकांक की तरह ऊपर-नीचे होने से बहुतो का ब्लड
प्रेशर भी ऊपर-नीचे होता है.क्या हमने समाज की संवेदना का कोई सूचकांक तय किया है ?
मुझे याद है मित्रों ! बच्चे
थे हम ग्वालियर में.खबर छपती थी कि आगरे में बलात्कार की घटना हुई.हमारे पेरेंट
चिंतित हो जाते थे.हमारे आस-पास का सारा समाज विचलित हो जाता था.मगर ज हत्या तो
हत्या,करूरता के साथ की गी हत्या भी हमें विचलित नहीं करती. कि अपने आप को
क्रांतिकारी कहने वाले लोग मृतकों के शवों के शरीर के बीतर बम रख देते है,ताकि उन
को उटाने भी मर जाए.सैंसक्स की चिंता बहुत है,हमारे नीति निर्माताओं को,हमारे
नेताओं को.संवेदनशीलता की कोई चिंता समाज में बाकी बची है,ऐसा बहुत कम देखने को
मिलता है.
कभी-कभी वो संवेदनीशीलता जोर मारती है.दिल्ली में दिसंबर की कुख्यात
घटना और प्रसिद्ध प्रतिरोध ने जोर मारा.लेकिन आमतौर से संवेदनीशीलता लगातार नीचे
और नीचे लगातार नीचे चले जा रही है.कहां गड़बड़ है ?
मित्रो ! मैं याद करना चाहता
हूं संविधान सभा में 4 नवंबर 1949 को बोलते हुए और संविधान के प्रारुप पर हुई बहस
का जवाब देते हुए डॉ. अंबेडकर ने बहुत महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक व्याख्यान दिया
था और उस व्याख्यान में संविधान को डिफेंड करते हुए,जाहिर है संविधान पर सवाल उठाए
गए होंगे.उनका जवाब डॉ. अंबेडकर ने प्रारुप समिति के अध्यक्ष होने के नाते दिया था.The great speeches of modern
india नाम से जिन्हे मुखर्जी ने संपादित किया है. आपको पढ़नी
चाहिए.
बहरहाल उस भाषण में अंबेडकर ने कहा—दो टूक कहा-कि उत्तर भारत में
अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह हो रहा था और सिख हिंदू दूर खड़े देख रहे थे.1857 के
विद्रोह दि पर बोलने के बाद.जो सवाल उन्होंने संविधान सभा के सामने रखा कि—मेरी
चिंता ये है कि, क्या इतिहास स्वयं को
दोहराएगा? चिंता और अधिक गहरी हो जाती है, क्योंकि हमारे अपने पुराने दुश्मन धर्म
और विभिन्न परंपराओं.कभी-कभी चिंता अधिक होती है कि ये पार्टियां अपने स्वार्थों को कितना अधिक महत्व देती है.भारतीय गणराज्य पर तव्वज्जों न दिए जाने से ये हालात
हुए है.आज यह चिंता ओर गहरी हो जाती है,क्योंकि हमारे अपने आप के दुश्मन हर्ट ड
बिट्स ,धर्म और विभिन्न प्रकार की मान्यताओं,आस्थाओं पर आधारित परंपराओं को आपस
में लड़ा रहे हैं.तो हमारे समाज में मौजूद विभिन्न मतो वाली राजनीतिक पार्टियां भी
इस देश में रही है.स्वाधीन बारत में गांव भी हो,संप्रदाय बी हो,धार्मिक विचार आदि
भी हो.ऐसे विचार थे.अंततः मैं प्रसन्न हूं कि प्रारूप समिति ने व्यक्ति को ही
लोकतंत्र की इकाई के रूप में स्वीकार किया.अंबेडकर की चिंता का संदर्भ यह है.उनकी
चिंता आज कितनी प्रासंगिक है,यह मैं आप पर छोड़ता हूं.
उसी व्याख्यान में अंबेडकर ने इसी बात पर बल दिया कि बहुत सारे लोग यह
चाहते थे कि स्वाधीन भारत में लोकतंत्र की बेसिक रिलेट गांव हो,या समुदाय हो या
मौहल्ला हो. बहुत से तथ्य थे,ऐसे विचार थे.अंबेडकर ने इस बात का पुरजोर विरोध किया था और
अंततः इस बात पर प्रारूप समिति तैयार हो गई.उन्होंने कहा कि मैं बहुत प्रसन्न हूं
कि प्रारूप समिति ने व्यक्ति को ही लोकतंत्र की इकाई के रूप में स्वीकार किया. किसी
गाँव ,जाति आदि को नहीं.
मित्रों! क्या यह आपको रोचक
नहीं लगता .इस देश में जाति-व्यवस्था पर प्रहार करने वाले दो नेता डॉ. अंबेडकर और
डॉ. लोहिया और इसी के साथ हम यह भी याद कर सकते है कि दोनों नेताओं के अपने आपको
अनुयायी कहने वाले लोगों में होड़ लगी हुई है जाति सम्मेलन करने की.फंलानी जाति का
सम्मेलन ,फंलानी ने कर दिया.तो उससे जोरदार सम्मेलन दूसरे ने कर दिया.अंबेडकर का
सपना था तथा संविधान सभा के सदस्यों का सपना था कि भारत क लोकतंत्र बनें.इसमें
राज्यों के साथ संबंध व्यक्तिक हो.और अंततःएक व्यवस्था तामील की है,जिसमें राज्य
का संबंध व्यक्ति के साथ बाद में होता है,पहले उसके समुदाय का,जाति का होता है,तब
उस इकाई का होता है.व्यक्ति पर आधारित लोकतंत्र की बजाय जातियों के लोकतंत्र की ओर
चले गए.
इसलिए मित्रों,यह चिंता का विषय है.आज स्थिति यह है कि पिछले 20 सालों
में चीजें बदली है.मुझे 1995 की घटना याद है.आगरे के पास एक गाँव में एक जाति विशेष
के व्यक्ति की हत्या कर दी गई.क्यो कर दी
गई इसकी कल्पना आप कर सकते है ? एक नेता
जो उसी बिरादरी के है,उन्होंने पब्लिक पोजिशन ली थी और कंडम्ट किया था कि उस गाँव
में जाकर सभा की थी.यह 1995 में हुआ था.उसके बाद की कुछ घटनाएं,मैं नाम नहीं लेना
चाहता.
एक चित्रकार को देश से हकाल दिया जाता है,क्योंकि कुछ लोगों की
भावनाएं आहत हो गई थी.कलाकार,चित्रकार ,नेता देश के गृहमंत्री से मिलते हैं र उनसे
कहते है कि आपको कुछ हस्तक्षेप करना चाहिए.गृहमंत्री कहते है कि वो चित्रकार अपने
चित्र वापस ले ले तो इसमें कौन-सी आफत आ जाएगी.यह स्थिति है.एक लेखिका जिनके
विचारों के खिलाफ फतवें जारी होते है और सरकार के एक जिम्मेदार मंत्री कहते है कि
माफी मांगने में क्या हर्ज है .माफी मांग लेना काफी नहीं,उसे तो घुटनों के बल आकर
माफी मांगनी चाहिए.नेताओं से माफी मांगनी चाहिए.एक गाँव में पंचायत फरमान जारी कर
देती है 40 साल से कम कोई स्त्री मोबाइल का इस्तेमाल नहीं करेगी.प्रदेश के
मुख्यमंत्री
के नोटिस में यह खबर लाई जाती है,तो मुख्यमंत्री जो लोहियावादी
थे,बिना पलक झपकाएं ,वह कहते है कि यह तो उसके समाज का मामला है,इसमें सरकार क्या
कर सकती है ? समाज का मामला यह भ हो सकता कि मैं अपनी पत्नी के
साथ जैसा चाहे व्यवहार करबं और बेटी के साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार करूं.और मॉडरन
स्टेट इसलिए कहा मित्रों,आधुनिक लोकतंत्र की कल्पना से आरंभ करते हुए कभी-कभी
सचमुच डर लगता है कि हम आधुनिक लोकतंत्र के नाम पर कहीं एक जातियों का गणतंत्र
बनाने की कोशिश तो नहीं कर रहे.
दिनकर जी की बात याद करे—नेता उसे कहते है ,जो मूल्यों को अपने जीवन
में उतार दे.इस अर्थ में क्या हमारे देश में नेता बचा है ? नेता और प्रतिनिधि में अंतर करना चाहिए.प्रतिनिधि
का काम सैद्धांतिक है.प्रतिनिधि केवल अपनी constituncey की बात पहंचाता है और प्रतिनिधि नेता तबी बनता है,जब वह con. की बात पहंचाने तक सीमित न हो.con. से बात करके अनेक दिमाग और उसके मिजाज को बदलने
की कोशिश करे.खाप पंचायतों के फैसले होते है.प्रांत के सांसद टीवी पर खाप पंचायत
के पैसलों की पैरवी करते है और यह संसद सदस्य लोकतांत्रिक पारटी के सदस्य
है.राजीनित का वो मुहावरा,राजनीति की वो बाषा ही भूल गए है हम.वो केवल
राजनीति.बिरादरी के चौधरियों की राजनीति.ऐसी राजनीति मित्रों,नागरिकता को समाप्त
करती है.नागरिकता केवल एक कानूनी अधारणा नहीं है.नागरिकता मूलतः सामाजिक,राजनैतिक
और नैतिक अवधारणा है.नागरिकता का अर्थ केवल यह नहीं है कि आप जाकर वोट दे आते
है.आपके घर में यदि एमसीडी के लोग डेंगु की जांच के लिए आते है,तो आप उन्हें धक्का
देकर भगा देते है.और वैसे हम सब सरकार की बहुत इज्जत करते है.कारण क्या है ? कारण मूलतः यह है कि नागरिकता की अवधारमा को ही
हमने संदिग्ध बना दिया है.हमने नागरिकता की अवधारणा को अपने पॉलिटिकल डिसकोर्स में
जगह दी और न अपने एकाडमिक में.और अंततः इस बात पर गौर करे इतिहास बोध, मैनेजमैंट
और सामाजिक,राजनैतिक दोनों अलग-अलग चीजें है.मैनेजमैंट की प्रतिज्ञाएं अलग-अलग
है.मैनेजमैंट का नेतृत्व और समाज परिवर्तन का,समाज के लोकतांत्रिकरण का मुहावरा
अलग-अलग है.भारतीय नेता,हमारे नेता मनोरंजन के लिहाज से जबरदस्त है.
जब मैं पढ़ता हूं कि हम गाँदी जी की ब्रांडिग ठीक से नहीं कर पाएं.यह
एक बड़े नेता ने हाल-पिलहाल में ही कहा है.गाँधी को बेच नहीं पाए.हर चीज बिकने के
लिए है.एक तरफ ऐसे नेता है,जो गाँधी जी की ब्रांडिग के लिए बेचैन है,दूसरी तरफ ऐसे
नेता है.
आपके नेता को बिल्कुल अटपटा नहीं लगता कि जब वह अपने इलाके में जाता
है तो बिसलेरी की दो-चार बोतलें साथ लेकर जाता है और उसे कोई संकोच नहीं होता.एक
जमाने में संकोच होता था.लिहाज रखना पड़ता था,क्योंकि अब वह जनता के बीच केवल और
केवल जनता के बीच जाता है.उस जनता के बीच नहीं जाता,जिसे नागरिक कहा जाता है.हाँ
स्थिति यह है कि नागरिकों की नहीं हमारी कृपा पर पलने वाली प्रजा.
निजी पहलकदमी को ताकत देने वाले कदम नहीं है.निरंतर सरकार पर निर्भर
बनाए रखे.इलिए मैं ने आप से कहा मित्रों,कि आपको नागरिकों की नहीं ,आपकी कृपा पर
पलने वाली प्रजा की जरूरत है.इसीलिए ऐसे लोगों को नेता कहा जाना...इसलिए मेरे इस
व्याख्यान की मूल प्रतिज्ञा थी कि केवल नागरिक नहीं चाहिए,नेता भी चाहिए.आज नेता
गायब हो गए है.इसीलिए नेतचा भी चाहिए और नागरिक भी.हम सब समाज की बात कर रहे
है.गाँधी की बात कर रहे है,लेकिन स्वराज की बात क्यों नहीं कर रहे .किसी तरह
वैचारिकता से हम स्वराज ला सकेंगे.यह सवाल जितना 1920 में महत्वपूर्ण था,उतना ही
आज भी महत्वपूर्ण है.किस तरह के विचारों से,किस तरह की चीजों से मुझे नहीं पता
मित्रों,लेकिन अगर कोई मुझसे पूछे मैं एक
ही बात कहूंगा.कि अस्मिता की राजनीति चाहे वह जाति भी हो,धर्म की अस्मिता
हो,चाहे वह भाषा की अस्मिता हो,उसकी राजनीति के खतरे अब सामने दिख रहे है.अंग्रेजी
मुहावरे का प्रयोग करे तो—दीवार पर लिखावट इस, तरह से दिख रही है कि अगर अब भी आप
देखने से मना कर दे,तो मान लेना चाहिए कि
आप देखना ही नहीं चाहते.ऐसा नहीं है कि आप पढ़ना नहीं जानते.मान लेना चाहिए कि आप
पढ़ना नहीं चाहते.मान लेना चाहिए कि हमारा समाज एक तरह से अपने आत्म विनाश की ओर
बढ़ रहा है.इसीलिए मैंने कहा कि हम एक क्रांतिकारी दौर से गुजर रहे है,लेकिन वह
क्रांति किसी निर्माण की क्रांति नहीं,वो एक तररह से उन सारे मूल्यों,सारी
परंपराओं और विनाश की ओर बढ़ रही है.ओर इसीलिए मित्रों,क्या होगा,सब जगह की अपनी –अपनी
मान्यताएं हैं,ऐसा कुछ नहीं होता.आज कल एकाडमिक जगत में उत्तर-आधुनिकता की खूब
चर्चा है.रिलेटिविटी की,कई जगह की अपनी-अपनी मान्यताएं होती,अपनी-अपनी संस्कृति
होती है,लेकिन कुछ सार्वभौम मूल्य होते हैं.अगर मनुष्य की चेतना में कुछ भी
सार्वभौम न हो तो अनुवाद संभव नहीं होगा.सार्वभौम मानवीय मूल्यों की दृष्टि से मैं
उन मूलभूत प्रतिमानों की दृष्टि से सोच रहा हूं और उस आधार पर ...एक बार फिर से
हमने नागरिकता का सूचकांक मैं पिर से परंपरा की बात करूं.मुझे कई बार यह रोचक लगता
है कि इस देश की स्थिति यह है,जिनका परंपरा के वास्तविक रूप से कोई लेना-देना नहीं
है.आजकल वह परंपरा के सबसे बड़े ठेकेदार ब्रांड मैनेजर बने बैठे है और जिनका
परंपरा से लेना-देना होना चाहिए.उन्हें परंपरा के नाम मात्र से बेचैनी होने लगती
है.विचित्र विडंबना है मित्रों,मैं याद करते हुए पढ़ना चाहता हूं,मैं जिस परंपरा
में अपने आप को स्थित पाता हूं,उस परंपरा में वेद सत्य का अंतिम कथन नहीं है.उस
परंपरा में वेद खोज का प्रस्थान है.अब यह बात आज के संस्थापक दयानंद सरस्वती को एक
पारपंरिक पंडित मानते है.जैसा आप जानते है कि यह मूर्ति
पूजा,फंलाना-डिमकाना,क्योंकि यह सब वेद में नहीं है,इसीलिए इन्हें नहीं माना जाना
चाहिए.दयानंद जी का मानना था कि जो वेद में है,वही माना जाना चाहिए या माना जाएगा.
और वेद में भी वह नहीं मानते है,जो स्वयं मानते थे.वेद की केवल एक ही व्याख्या
दयानंद जी को स्वीकार थी.उनके यहां बहुलता का या विविध व्याख्याओं का कोई स्थान न
था.ताराचंद तर्क शास्त्री से उनकी बहस हो रही थी,तो उन्होंने पूछा कि आप मूर्ति
पूजा का विरोध क्यों करते है.तो उन्होंने कहा कि वेद में नहीं है.और बोले जो कुछ
वेद में नहीं है,वह अवमान्य है.तो मित्रों,ध्यान दीजिए ताराचंद तर्कवादी है.और
कहा-जो कुछ वेद में नहीं है,वह अवमान्य नहीं हैं.यह वेद का कथन है कि
आपका(सरस्वती).वेद यह नहीं कहता –जो कुछ यहां नहीं है,वह मान्य नहीं है.वेद does nor final authority.परंपरा के इस बोध को पुनः अर्जित करने की,पुनः
प्राप्त करने की जरूरत है,ताकि हम सचमुच आलोचनात्मक समाज का निर्माण कर सकें.