मंगलवार, 11 मार्च 2014

नेता भी चाहिएँ और नागरिक भी--- प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल

नेता भी चाहिएँ  और नागरिक भी--- प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल
मैं एक ऐसे विषय पर बोल रहा हूं,जिससे हम सबका संबंध हैं.हम सब नागरिकों का संबंध हैं.मैंने जैसा आपको कहा कि दिनकर को देखने का अवसर मुझे नहीं मिला,लेकिन एक डाक्यूमैंट्री  बचपन में देखी थी,जिसमें वह(दिनकर) कविता पढ़ते हुए दिखते है-तान-तान फन व्याल के,मैं तुझ पर बांसुरी बजाऊं. तब मेरे बाल मन में यह इच्छा प्रकट हुई थी कि काश ! मैं कभी दिनकर को यूं सामने से कविता पढ़ते हुए देखूं.दिनकर कविता केवल पढ़ नहीं रहे थे.दिनकर पूरी अपनी मुख मुद्रा से,पूरी भंगिमा से,पूरे शरीर विन्यास से कविता को रच रहे थे जैसे,अद्भुत था वो कविता पाठ.दिनकर का एक निबंध जो 9वीं कक्षा में लगा हुआ था.उस निबंध का एक वाक्य मुझे किसी न किसी रूप में प्रभावित करता रहा है.वाक्य इस रूप में है कि-सब नेता बन जाएगें जब, जवाहर लाल कि मोटर कौन चलाएगा,नाश्ता कौन बनाएगा.,इस रूप में वो वाक्य मुझे हांट करता रहा है और इस निबंध का शीर्षक था-नेता नहीं,नागरिक चाहिए.उस निबंध को ही ध्यान में रखते हुए यह आज का शीर्षक-नेता भी चाहिएँ और नागरिक भी ,विषय चुना.

दिनकर ने वह निबंध 1951 या 52 में लिखा था और उसके वो तीन-चार वाक्य आपके सामने पढ़ना चाहता हूं.और फिर हम देखें कि 1951-52 से आज 2013 तक हम कहां पहुंच गए है और दिनकर जी के साथ वरिष्ठ कवि गुप्त जी कि यह पंक्ति याद करें कि-हम क्या थे,क्या हो गए और क्या होंगे.”  इसे विचारने का समय 1912 में भी था और इसे विचारने का समय 2013 में भी है.दिनकर के वाक्य पढ़ता हूं-कल्पना कीजिए,कि देश का एक-एक आदमी जवाहरलाल हो गया ,तब एक-एक आदमी सोचेगा,योजनाएं बनाएगा,बहस करेगा,लेकिन जब इन 35 करोड जवाहरलालों को भोजन कौन बनाएगा,उनके लिए कपड़े कौन धोएगा,मुश्किल यह है कि उनकी मोटरें कौन चलाएगा.जवाहरलाल बनने में और सब ठीक है,कठिनाई सिर्फ इतनी है कि जवाहरलाल कुदाल नहीं चला सकता,हथोडे नहीं उठा सकता और ज्यादातर वह अपनी मोटर भी आप नहीं चलाता है और इसलिए उस निबंध के अंत में उन्होंने लिखा कि दरअसल पूरा निबंध इस बात की वेदना में भरा हुआ है कि इस समय देश में नेता बहुत अधिक है.यह सन् 1951 की बात है.इस देश में हर आदमी नेता बनना चाहता है,नेता दिखना चाहता है.जाहिर है कि इस समय नेता का जैसा अवमूल्यन नहीं हुआ था,लेकिन अब हो चुका है.अब मौहल्ले के सबसे बदमाश व्यक्ति को,कॉलेज के सबसे दुष्ट छात्र को आजकल नेता जी कहते है.संभवतः यह स्थिति 1951-52 में नहीं थी.इसीलिए दिनकर जी ऑब्जरव कर रहे थे अपने आस-पास कि सभी नेता बनने के लिए उत्सुक है और उस निबंध में अंत में वह कहते हैऔर नेता होता कौन है ? अक्सर वह मनुष्य जो अपने मूल्यों को चरित्र व व्यक्तित्व को व्यवाहरिक रूप देता है.जिन मूल्यों की समाज को जरूरत होती है.नेता वो है,जो समाज के लिए जरूरी उन मूल्यों को अपने आचरण में उतारे और ऐसे नेता तभी उत्पन्न हो सकते हैं,जब कि हम सब बतौर नागरिक के ऐसे मूल्यों को अपने आचरण में उतारें.इसलिए दिनकर जी उस निबंध में स्थापित करते है कि-हमें नेता नहीं,नागरिक चाहिए.


यह बहुत महत्वपूर्ण है मित्रों,कि यह बात एक लेखक,एक कवि,एक साहित्यकार कह रहा हैं.देश का निर्माण आंरभ ही हुआ था.सारे समाज में उत्साह और आशावाद का वातावरण था.जवाहरलाल के नेतृत्व में लोगों कि अगाध आस्था थीं,लेकिन दिनकर जी यह नोट कर रहे थे कि कहीं कुछ गड़बड़ है.कहीं नागरिकता के निर्माण की,नागरिकता की सकंल्पना की समस्याएं उत्पन्न हो रही है.यह बहुत महत्वपूर्ण है.इसी समय हम यह भी याद करे कि एक और कवि ने बरसों बाद यह नोट किया था कि अंततः हम एक आलोचनात्मक राष्ट्र का निर्माण करने में असफल रहे हैं.यह अज्ञेय का वाक्य है.2013 में यह बात सत्य लगती है कि हम एक आलोचनात्मक,एक उल्लेखवान,एक चिंतित राष्ट्र का निर्माण करने में दूर तक असफल रहे है और भावनाएं इस समय कितनी कोमल है.यही वो कारण है कि हर साल मैं केवल एक वक्तव्य करता हूं और करना चाहता हूं.क्योंकि मैं नहीं जानता कब आप में से कौन, कौन से मेरे वाक्य से आपकी भावना आहत हो जाए और कल कौन आप में से अपनी उस आहत भावना के लिए मेरे शरीर को शत-विक्षत और आहत करने के लिए उत्सुक हो.किसी को कुछ नहीं कह सकते.कब किसकी भावना ,किस  चीज से आहत हो जाए.किसी फिल्म में किसी गाने से,किसी कहानी से,किसी शब्द से,किसी कविता से,किसी के पात्रो के नाम से,कुछ नहीं कहा जा सकता है.भावनाओं की हमारा समाज इतनी चिंता करता है कि मैंने आज तक पिछले कुछ दिनों में किसी को यह शिकायत करते नहीं सुना कि फंला आदमी की फंला बात से मेरा विवेक आहत हो गया.आपने सुना हो तो कृपया मुझे बताएं ?


और यह उस सभ्यता में,कभी-कभी गर्व होता है इनचीजों को याद करते हुए,तो कभी उसी अनुपात मे लज्जा भी आती है कि उस सभ्यता में जब वेद में यह कथा आती है कि-जब देवता चले गए धरती छोड़ कर और एक-एक करके सभी बुजुर्ग और ऋषि भी मरने लगे तो देवताओं से पूछा गया कि धरती के नरों ने कि अब जब आप चले ही गए हो तो ऋषि भी अब धीरे-धीरे जा रहे है.हमारा नया ऋषि कौन होगा ? ऋषि यानि देखने वाला.हमारे लिए रास्ता कौन देखेगा ? और कौन दिखाएगा ? तो  उत्तर देता है कि देवताओं और ऋषियों के जाने के बाद तुम्हारा मार्गदर्शक तप होगा.यह आज से ढाई हजार साल पहले की बात है.उस समाज में,उस परंपरा में स्थिति यह कहती है कि तप और विवेक रचनात्मक अभिव्यक्ति कब किस तरफ से खतरे में आ जाए.इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं है.मैं तो क्या ,कोई प्रोफेशनल अस्ट्रालाजर भी इस बारे में नहीं बता सकता .बड़े से बड़े ज्योतिषी से जाकर पूछ लीजिए जो यह बताने में सक्ष्म हो कि अगले प्रधानमंत्री श्री अलां होंगे या फंला होंगे.वह यह नहीं बता सकेगा कि किस बात से कब किसकी भावना आहत हो जाए.


इस कदर भावुक समाज की रचना हम लोगों ने की है और इसलिए अज्ञेय जी का यह कथन-अंततः हम आलोचनात्मक राष्ट्र के निर्माण में असफल रहे है.दिनकर की यह वेदना की नेता बहुत है लेकिन नागरिक नहीं है.इसीलिए मित्रों,इस स्थिति पर पूरी गहराई,पूरी गंभीरता के साथ विचार करना जरूरी है.आज की स्थिति मुझे याद दिलाती है एक किताब की.Revolution of Nihilism-warning to the west(1939)-author-Rausching Herman.ये अगस्त 1939 में लिखी गई थी.तारीख पर ध्यान दीजिए.यह इसीलिए कह रहा हूं कि अगस्त1939 में यह किताब छपी थी और इसका लेखक नासी पार्टी का भूतपूर्व सदस्य था.1937 तक नासी पार्टी में था और अगस्त 1939 में उसने यह किताब प्रकाशित की थी.और सितंबर 1939 में हिटलर ने हमला कर दिया था.Nihilism-विनाशवाद,हर तरफ विखंडन का दौर.किसी चीज में कोई आस्था नहीं.किसी संस्था,किसी मर्यादा और किसी परंपरा की कोई परवाह नहीं.जो हम कह रहे है,वही सही है.यह है Nihilism का तात्पर्य.यह पुस्तक आंरभ होती है अद्भुत वाक्य से आंरभ होती है- "हमारे समय में लालच है,इस बात का ,कि हम असहनीय को भी नाकाबिले बर्दाशत को भी बर्दाशत कर ले."



हालत कहीं और बदतर न हो जाए.सवाल यह है कि नाकाबिले बर्दाशत को बेहतर या बदतर में कौन-सी चीजें बदल सकती है.क्या करे ?


लेकिन इस सवाल का जवाब देने से पहले एक बहुत ही नाजुक सवाल से टकराना होगा कि  अगर चीजों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया तो अंततः हालात किस तरह के होंगे ? अगर आप कुछ न करे,तो यह तो सही है ही कि जो अपने को तटस्थ कहते है,समय उनका अपराध लिखेगा.हमारे कवि हमें बहुत पहले चेतावनी दे गए है.लेकिन वो अपराध लिखा जाएगा या न लिखा जाए.लेकिन हालात जिस तरह के है,उनको अगर उनके हाल पर छोड़ दिया जाए तो,वे किस तरफ जाएंगे.ये चेतावनी लेखक  जर्मनी को,सारे यूरोप को दे रहा था.ये चेतावनी जितनी 1939 में थी,उससे कम सार्थक 2013 में नहीं है.केवल भारत के लिए नहीं,बल्कि सारी दुनिया के लिए जिस तरह की स्थितियां बन रही है.जिस तरह की चीजें हो रही है.अगर वो अपने आंतरिक तट से जैसी की तैसी चलती रही तो हम कहां पहुचेंगे,इस पर सोचना चाहिए.
इम्मेनुएल वार्ल्स्टाइन की किताब है,जो 2007 में आई.The end of the world as we know it.जिस रूप में हम दुनिया को जानते है,उस रूप में दुनिया समाप्त हो चुकी है.अब नई तरह की व्यवस्था विकसित होगी.सारी जो पुरानी विश्व प्रचलित व्यवस्थाएं रही है.पँजीवाद,समाजवाद,लोकतंत्र कहिए,राष्ट्रवाद कहिए.सारे सामाजिक-राजनीतिक संगठन के ढांचे और संरचनाएं है,उनको नोट करते है कि सब की सीमाएं व दरारें साफ दिखने लगी हैं.वार्ल्स्टाइन पुस्तक का आरंभ करते हुए कहते है कि—अगले 50 साल में व्यवस्था कैसी होगी ? क्या होगी ? कुछ बी कहना मुश्किल है.चीजे बेहतर होंगी या बदतर होगी,ठीक वही बात जो हरमन कह रहे है.कहना मुश्किल है.इसीलिए छोटी-से-छोटी बात का,छोटे-से-छोटे काम काम का विशेष महत्व है.
राम कथा के रूप में सुनी होगी कहानी.गिलहरी की कथा.राम सेतु का निर्माण किया जा रहा है.सुब्रमण्यम वाला राम सेतु नहीं,रामायण वाला राम द्वारा . सेतु का निर्माण किया जा रहा है,सारी सेना वानरों की और सभी  लगे हुए है.राम देखते है कि एक गिलहरी समुद्र के किनारे गुलाटी लगाती है और जाकर चट्टानों पर लेट जाती है,फिर जाती है ,फिर चट्टानों पर लेट जाती है.राम पूछते है कि यह क्या तमाशा है ? राम गिलहरी को हथेली पर रखते है और पूछते है कि यह क्या कर रही हो ? तो कहती है कि आप राक्षस के विरूद्ध लड़ने जा रहे हो.मेरी कोई औकात नहीं.आप इतने बड़े यौद्धा हैं.नर-नल जैसे इंजीनियर है,इतने भक्त हैं.मैं आपके लिए कुछ नहीं कर सकती संभवतः.लेकिन जितना मेरे शरीर में रेत समाता है,उतना मैं इन पत्थरों के सेंध में डाल देती हूं.पुल कुछ ज्यादा मजबूत हो जाएगा.जिस पुल पर चल कर आप रावण से लड़ने गए थे,उस पुल के निर्माण में थोड़ी बहुत मेरी रेत,मेरी देह का भी योगदान था.गिलहरी की विन्रमता से कहना चाहता हूं कि मुझे कोई गलत फहमी नहीं है कि मेरे व्याख्यान से कोई भारी अंतर पड़ जाएगा.बड़ा योगदान यही होगा कि जिस पुल पर चढ़ कर गए उस पुल में थोड़ा बहुत योगदान उस गिलहरी का भी था.इस प्रेरणा से थोड़ी बहुत बातें आपसे कहने के लिए खड़ा हुआ हूं.

मित्रों,क्या स्थिति है ? मैं 10-12 साल पहले अपने एक छात्र के बुलाने पर अलीगढ़ गया था.उनके बुलाने पर जब उनके घर खाना खाने गया तो मैं उनके घर में लगी तस्वीरों को देखकर हैरान हो गया.उनमें राजनेताओं के साथ तस्वीरें खीचवाई गई थी.पूछे जाने पर छात्र ने जवाब दिया कि –सर ,आप रहते है दिल्ली में और वो भी जेएनयू में.आप को पता नहीं है कि अगर हिंदुस्तान के किसी भी छोटे शहर में आपको मध्यवर्गीय सम्मान और सुरक्षा के साथ जीवित रहना है तो पति-पत्नी में से किसी एक  नेता होना या अफसर होना जरूरी है,वरना आप मध्यवर्गीय समम्न के साथ जीवित नहीं रह सकते.कब कौन आए और मेरे घर में से क्या उठाले जाए और मेरी शिकायत सुनी नहीं जाएगी.कब मेरा बच्चा स्कूल से नहीं लौटेगा और मेरी एफ आई आर लिखी नहीं जाएगी.वो तभी लिखी जाएगी जब मुझमें या मेरी पत्नी में से एक या तो अफसर हो या नेता हो.और इसलिए मैं तो यूनीवर्सीटि में पढ़ाता हूं.मैं न तो अफसर हूं और न नेता हो सकता हूं.इसलिए मैंने इनको लगा दिया है लाइन पर और वो बन गई है नेताइसलिए अब उन्हें पूर्ण सुरक्षा का अहसास प्राप्त है.

 जिस तरह कासमाज बन रहा है और जिस तरह की स्थितियां बन रही है.हमारा समाज एक गहरे अविश्वास से ग्रस्त है.यह चिंता का विषय है.The state of conviction  में भी व्यक्ति को नोट किया है कि अविश्वास लगातार बढ़ता जा रहा है.यह अविश्वास जूडीसीयरी के प्रति भी,लेगीस्लेचर और एचमीसट्रेशन के प्रति भी.ये उनके शब्द है—गहरा अविश्वास और एक दूसरे के प्रति संदेह.
एक ओर हिन्दी के बड़े लेखक चंद्रधर शर्मा गुलेरी.लोक से वैसा ही संवाद रखते थे,जैसा पांडित्य से.उन्होंने लेख लिखा-श्रद्धा.श्रद्धा शब्द का मूल अर्थ रखना होता है.किसी चीज को रखना.मारवाडी में श्रद्धा का अर्थ है फेथ.उस अर्थ में नहीं डिवोशन.बल्कि परस्पर विश्वास का,हर चीज का.साझेदारी का संबंध है.पति-पत्नी का संबंध है श्रद्धा का संबंध.नागरिक र समाज का भी यही संबंध होना चाहिए.

जब हमारे संविधान का निर्माण करने वाले बहसें कर रहे थे,चर्चा कर रहे थे.असल में वो यही कर रहे थे.औपनिवेशिक सत्ता के विपरीत राज्य और नागरिक का संबंध क्या हो ? नागरिक और राज्य का संबंध श्रद्धा का हो.संविधान निर्माताओं की और संविधान लागू करने का दायित्व जिन पर आया उनकी जिम्मेदारियां बनती थी.लेकिन जिसकी बी विफलताएं हो,पर आज स्थिति ये है कि हमारे संबंध श्रद्धा के संबंध नहीं है.हमारे संबंध संवेदी सूचकांक की तरह ऊपर-नीचे होने से बहुतो का ब्लड प्रेशर भी ऊपर-नीचे होता है.क्या हमने समाज की संवेदना का कोई सूचकांक तय किया है ?
मुझे याद है मित्रों ! बच्चे थे हम ग्वालियर में.खबर छपती थी कि आगरे में बलात्कार की घटना हुई.हमारे पेरेंट चिंतित हो जाते थे.हमारे आस-पास का सारा समाज विचलित हो जाता था.मगर ज हत्या तो हत्या,करूरता के साथ की गी हत्या भी हमें विचलित नहीं करती. कि अपने आप को क्रांतिकारी कहने वाले लोग मृतकों के शवों के शरीर के बीतर बम रख देते है,ताकि उन को उटाने भी मर जाए.सैंसक्स की चिंता बहुत है,हमारे नीति निर्माताओं को,हमारे नेताओं को.संवेदनशीलता की कोई चिंता समाज में बाकी बची है,ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है.

कभी-कभी वो संवेदनीशीलता जोर मारती है.दिल्ली में दिसंबर की कुख्यात घटना और प्रसिद्ध प्रतिरोध ने जोर मारा.लेकिन आमतौर से संवेदनीशीलता लगातार नीचे और नीचे लगातार नीचे चले जा रही है.कहां गड़बड़ है ?

मित्रो ! मैं याद करना चाहता हूं संविधान सभा में 4 नवंबर 1949 को बोलते हुए और संविधान के प्रारुप पर हुई बहस का जवाब देते हुए डॉ. अंबेडकर ने बहुत महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक व्याख्यान दिया था और उस व्याख्यान में संविधान को डिफेंड करते हुए,जाहिर है संविधान पर सवाल उठाए गए होंगे.उनका जवाब डॉ. अंबेडकर ने प्रारुप समिति के अध्यक्ष होने के नाते दिया था.The great speeches of modern india  नाम से जिन्हे मुखर्जी ने संपादित किया है. आपको पढ़नी चाहिए.
बहरहाल उस भाषण में अंबेडकर ने कहा—दो टूक कहा-कि उत्तर भारत में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह हो रहा था और सिख हिंदू दूर खड़े देख रहे थे.1857 के विद्रोह दि पर बोलने के बाद.जो सवाल उन्होंने संविधान सभा के सामने रखा कि—मेरी चिंता ये है कि,  क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा?  चिंता और अधिक गहरी हो जाती है, क्योंकि हमारे अपने पुराने दुश्मन धर्म और विभिन्न परंपराओं.कभी-कभी चिंता अधिक होती है कि ये पार्टियां अपने स्वार्थों को कितना अधिक महत्व देती है.भारतीय गणराज्य पर तव्वज्जों न दिए जाने से ये हालात हुए है.आज यह चिंता ओर गहरी हो जाती है,क्योंकि हमारे अपने आप के दुश्मन हर्ट ड बिट्स ,धर्म और विभिन्न प्रकार की मान्यताओं,आस्थाओं पर आधारित परंपराओं को आपस में लड़ा रहे हैं.तो हमारे समाज में मौजूद विभिन्न मतो वाली राजनीतिक पार्टियां भी इस देश में रही है.स्वाधीन बारत में गांव भी हो,संप्रदाय बी हो,धार्मिक विचार आदि भी हो.ऐसे विचार थे.अंततः मैं प्रसन्न हूं कि प्रारूप समिति ने व्यक्ति को ही लोकतंत्र की इकाई के रूप में स्वीकार किया.अंबेडकर की चिंता का संदर्भ यह है.उनकी चिंता आज कितनी प्रासंगिक है,यह मैं आप पर छोड़ता हूं.

उसी व्याख्यान में अंबेडकर ने इसी बात पर बल दिया कि बहुत सारे लोग यह चाहते थे कि स्वाधीन भारत में लोकतंत्र की बेसिक रिलेट गांव हो,या समुदाय हो या मौहल्ला हो. बहुत से तथ्य थे,ऐसे विचार थे.अंबेडकर ने इस बात का पुरजोर विरोध किया था और अंततः इस बात पर प्रारूप समिति तैयार हो गई.उन्होंने कहा कि मैं बहुत प्रसन्न हूं कि प्रारूप समिति ने व्यक्ति को ही लोकतंत्र की इकाई के रूप में स्वीकार किया. किसी गाँव ,जाति आदि को नहीं.

मित्रों! क्या यह आपको रोचक नहीं लगता .इस देश में जाति-व्यवस्था पर प्रहार करने वाले दो नेता डॉ. अंबेडकर और डॉ. लोहिया और इसी के साथ हम यह भी याद कर सकते है कि दोनों नेताओं के अपने आपको अनुयायी कहने वाले लोगों में होड़ लगी हुई है जाति सम्मेलन करने की.फंलानी जाति का सम्मेलन ,फंलानी ने कर दिया.तो उससे जोरदार सम्मेलन दूसरे ने कर दिया.अंबेडकर का सपना था तथा संविधान सभा के सदस्यों का सपना था कि भारत क लोकतंत्र बनें.इसमें राज्यों के साथ संबंध व्यक्तिक हो.और अंततःएक व्यवस्था तामील की है,जिसमें राज्य का संबंध व्यक्ति के साथ बाद में होता है,पहले उसके समुदाय का,जाति का होता है,तब उस इकाई का होता है.व्यक्ति पर आधारित लोकतंत्र की बजाय जातियों के लोकतंत्र की ओर चले गए.

इसलिए मित्रों,यह चिंता का विषय है.आज स्थिति यह है कि पिछले 20 सालों में चीजें बदली है.मुझे 1995 की घटना याद है.आगरे के पास एक गाँव में एक जाति विशेष के व्यक्ति  की हत्या कर दी गई.क्यो कर दी गई इसकी कल्पना आप कर सकते है ? एक नेता जो उसी बिरादरी के है,उन्होंने पब्लिक पोजिशन ली थी और कंडम्ट किया था कि उस गाँव में जाकर सभा की थी.यह 1995 में हुआ था.उसके बाद की कुछ घटनाएं,मैं नाम नहीं लेना चाहता.

एक चित्रकार को देश से हकाल दिया जाता है,क्योंकि कुछ लोगों की भावनाएं आहत हो गई थी.कलाकार,चित्रकार ,नेता देश के गृहमंत्री से मिलते हैं र उनसे कहते है कि आपको कुछ हस्तक्षेप करना चाहिए.गृहमंत्री कहते है कि वो चित्रकार अपने चित्र वापस ले ले तो इसमें कौन-सी आफत आ जाएगी.यह स्थिति है.एक लेखिका जिनके विचारों के खिलाफ फतवें जारी होते है और सरकार के एक जिम्मेदार मंत्री कहते है कि माफी मांगने में क्या हर्ज है .माफी मांग लेना काफी नहीं,उसे तो घुटनों के बल आकर माफी मांगनी चाहिए.नेताओं से माफी मांगनी चाहिए.एक गाँव में पंचायत फरमान जारी कर देती है 40 साल से कम कोई स्त्री मोबाइल का इस्तेमाल नहीं करेगी.प्रदेश के मुख्यमंत्री

के नोटिस में यह खबर लाई जाती है,तो मुख्यमंत्री जो लोहियावादी थे,बिना पलक झपकाएं ,वह कहते है कि यह तो उसके समाज का मामला है,इसमें सरकार क्या कर सकती है ? समाज का मामला यह भ हो सकता कि मैं अपनी पत्नी के साथ जैसा चाहे व्यवहार करबं और बेटी के साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार करूं.और मॉडरन स्टेट इसलिए कहा मित्रों,आधुनिक लोकतंत्र की कल्पना से आरंभ करते हुए कभी-कभी सचमुच डर लगता है कि हम आधुनिक लोकतंत्र के नाम पर कहीं एक जातियों का गणतंत्र बनाने की कोशिश तो नहीं कर रहे.

दिनकर जी की बात याद करे—नेता उसे कहते है ,जो मूल्यों को अपने जीवन में उतार दे.इस अर्थ में क्या हमारे देश में नेता बचा है ? नेता और प्रतिनिधि में अंतर करना चाहिए.प्रतिनिधि का काम सैद्धांतिक है.प्रतिनिधि केवल अपनी constituncey की बात पहंचाता है और प्रतिनिधि नेता तबी बनता है,जब वह con. की बात पहंचाने तक सीमित न हो.con. से बात करके अनेक दिमाग और उसके मिजाज को बदलने की कोशिश करे.खाप पंचायतों के फैसले होते है.प्रांत के सांसद टीवी पर खाप पंचायत के पैसलों की पैरवी करते है और यह संसद सदस्य लोकतांत्रिक पारटी के सदस्य है.राजीनित का वो मुहावरा,राजनीति की वो बाषा ही भूल गए है हम.वो केवल राजनीति.बिरादरी के चौधरियों की राजनीति.ऐसी राजनीति मित्रों,नागरिकता को समाप्त करती है.नागरिकता केवल एक कानूनी अधारणा नहीं है.नागरिकता मूलतः सामाजिक,राजनैतिक और नैतिक अवधारणा है.नागरिकता का अर्थ केवल यह नहीं है कि आप जाकर वोट दे आते है.आपके घर में यदि एमसीडी के लोग डेंगु की जांच के लिए आते है,तो आप उन्हें धक्का देकर भगा देते है.और वैसे हम सब सरकार की बहुत इज्जत करते है.कारण क्या है ? कारण मूलतः यह है कि नागरिकता की अवधारमा को ही हमने संदिग्ध बना दिया है.हमने नागरिकता की अवधारणा को अपने पॉलिटिकल डिसकोर्स में जगह दी और न अपने एकाडमिक में.और अंततः इस बात पर गौर करे इतिहास बोध, मैनेजमैंट और सामाजिक,राजनैतिक दोनों अलग-अलग चीजें है.मैनेजमैंट की प्रतिज्ञाएं अलग-अलग है.मैनेजमैंट का नेतृत्व और समाज परिवर्तन का,समाज के लोकतांत्रिकरण का मुहावरा अलग-अलग है.भारतीय नेता,हमारे नेता मनोरंजन के लिहाज से जबरदस्त है.

जब मैं पढ़ता हूं कि हम गाँदी जी की ब्रांडिग ठीक से नहीं कर पाएं.यह एक बड़े नेता ने हाल-पिलहाल में ही कहा है.गाँधी को बेच नहीं पाए.हर चीज बिकने के लिए है.एक तरफ ऐसे नेता है,जो गाँधी जी की ब्रांडिग के लिए बेचैन है,दूसरी तरफ ऐसे नेता है.

आपके नेता को बिल्कुल अटपटा नहीं लगता कि जब वह अपने इलाके में जाता है तो बिसलेरी की दो-चार बोतलें साथ लेकर जाता है और उसे कोई संकोच नहीं होता.एक जमाने में संकोच होता था.लिहाज रखना पड़ता था,क्योंकि अब वह जनता के बीच केवल और केवल जनता के बीच जाता है.उस जनता के बीच नहीं जाता,जिसे नागरिक कहा जाता है.हाँ स्थिति यह है कि नागरिकों की नहीं हमारी कृपा पर पलने वाली प्रजा.

निजी पहलकदमी को ताकत देने वाले कदम नहीं है.निरंतर सरकार पर निर्भर बनाए रखे.इलिए मैं ने आप से कहा मित्रों,कि आपको नागरिकों की नहीं ,आपकी कृपा पर पलने वाली प्रजा की जरूरत है.इसीलिए ऐसे लोगों को नेता कहा जाना...इसलिए मेरे इस व्याख्यान की मूल प्रतिज्ञा थी कि केवल नागरिक नहीं चाहिए,नेता भी चाहिए.आज नेता गायब हो गए है.इसीलिए नेतचा भी चाहिए और नागरिक भी.हम सब समाज की बात कर रहे है.गाँधी की बात कर रहे है,लेकिन स्वराज की बात क्यों नहीं कर रहे .किसी तरह वैचारिकता से हम स्वराज ला सकेंगे.यह सवाल जितना 1920 में महत्वपूर्ण था,उतना ही आज भी महत्वपूर्ण है.किस तरह के विचारों से,किस तरह की चीजों से मुझे नहीं पता मित्रों,लेकिन अगर कोई मुझसे पूछे मैं एक   ही बात कहूंगा.कि अस्मिता की राजनीति चाहे वह जाति भी हो,धर्म की अस्मिता हो,चाहे वह भाषा की अस्मिता हो,उसकी राजनीति के खतरे अब सामने दिख रहे है.अंग्रेजी मुहावरे का प्रयोग करे तो—दीवार पर लिखावट इस, तरह से दिख रही है कि अगर अब भी आप देखने से मना  कर दे,तो मान लेना चाहिए कि आप देखना ही नहीं चाहते.ऐसा नहीं है कि आप पढ़ना नहीं जानते.मान लेना चाहिए कि आप पढ़ना नहीं चाहते.मान लेना चाहिए कि हमारा समाज एक तरह से अपने आत्म विनाश की ओर बढ़ रहा है.इसीलिए मैंने कहा कि हम एक क्रांतिकारी दौर से गुजर रहे है,लेकिन वह क्रांति किसी निर्माण की क्रांति नहीं,वो एक तररह से उन सारे मूल्यों,सारी परंपराओं और विनाश की ओर बढ़ रही है.ओर इसीलिए मित्रों,क्या होगा,सब जगह की अपनी –अपनी मान्यताएं हैं,ऐसा कुछ नहीं होता.आज कल एकाडमिक जगत में उत्तर-आधुनिकता की खूब चर्चा है.रिलेटिविटी की,कई जगह की अपनी-अपनी मान्यताएं होती,अपनी-अपनी संस्कृति होती है,लेकिन कुछ सार्वभौम मूल्य होते हैं.अगर मनुष्य की चेतना में कुछ भी सार्वभौम न हो तो अनुवाद संभव नहीं होगा.सार्वभौम मानवीय मूल्यों की दृष्टि से मैं उन मूलभूत प्रतिमानों की दृष्टि से सोच रहा हूं और उस आधार पर ...एक बार फिर से हमने नागरिकता का सूचकांक मैं पिर से परंपरा की बात करूं.मुझे कई बार यह रोचक लगता है कि इस देश की स्थिति यह है,जिनका परंपरा के वास्तविक रूप से कोई लेना-देना नहीं है.आजकल वह परंपरा के सबसे बड़े ठेकेदार ब्रांड मैनेजर बने बैठे है और जिनका परंपरा से लेना-देना होना चाहिए.उन्हें परंपरा के नाम मात्र से बेचैनी होने लगती है.विचित्र विडंबना है मित्रों,मैं याद करते हुए पढ़ना चाहता हूं,मैं जिस परंपरा में अपने आप को स्थित पाता हूं,उस परंपरा में वेद सत्य का अंतिम कथन नहीं है.उस परंपरा में वेद खोज का प्रस्थान है.अब यह बात आज के संस्थापक दयानंद सरस्वती को एक पारपंरिक पंडित मानते है.जैसा आप जानते है कि यह मूर्ति पूजा,फंलाना-डिमकाना,क्योंकि यह सब वेद में नहीं है,इसीलिए इन्हें नहीं माना जाना चाहिए.दयानंद जी का मानना था कि जो वेद में है,वही माना जाना चाहिए या माना जाएगा. और वेद में भी वह नहीं मानते है,जो स्वयं मानते थे.वेद की केवल एक ही व्याख्या दयानंद जी को स्वीकार थी.उनके यहां बहुलता का या विविध व्याख्याओं का कोई स्थान न था.ताराचंद तर्क शास्त्री से उनकी बहस हो रही थी,तो उन्होंने पूछा कि आप मूर्ति पूजा का विरोध क्यों करते है.तो उन्होंने कहा कि वेद में नहीं है.और बोले जो कुछ वेद में नहीं है,वह अवमान्य है.तो मित्रों,ध्यान दीजिए ताराचंद तर्कवादी है.और कहा-जो कुछ वेद में नहीं है,वह अवमान्य नहीं हैं.यह वेद का कथन है कि आपका(सरस्वती).वेद यह नहीं कहता –जो कुछ यहां नहीं है,वह मान्य नहीं है.वेद does nor final authority.परंपरा के इस बोध को पुनः अर्जित करने की,पुनः प्राप्त करने की जरूरत है,ताकि हम सचमुच आलोचनात्मक समाज का निर्माण कर सकें.

सोमवार, 10 मार्च 2014

सोशल मीडिया और लोकतंत्र---नवीन रमन


                          सोशल मीडिया और लोकतंत्र

                      ( नवीन रमन –  शोधार्थी--कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में )

    क्या हम अपने आस-पास  घट रही घटनाओं, आक्रोश, विरोध, हिंसा, नफरत, विचारों, तरंगों आदि से बदलते हुए समाज को अनदेखा कर सकते हैं.भले ही यह बदलाव नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह का ही क्यों न हो.इस बदलाव की प्रक्रिया में अनेक तत्व शामिल है.जिनमें से एक सोशल मीडिया भी है.कई बार यह ख्याल मन में आता है कि हमारी मानसिक सरंचना की बनावट में अतीत, वर्तमान और भविष्य इतने गढ़मढ़ रहते हैं कि परत-दर-परत इनको समझना काफी कठिन हो जाता है.पर फिर भी हम लगातार जद्दोजहद करते हुए अपने आप से और अपने आस-पास के माहौल से टकराते रहते है.भिड़ते रहते है.आखिर यह टकराना क्या है ? इस टकराने के भी अनेक स्तर है.इसमें विरोध और सहमति दोनों का मिलाजुला सहयोग रहता है.यही लोकतंत्र की खासियत है कि इसमें ये सारी प्रक्रियाएं एक साथ चलती-घटती रहती है. इन्हीं प्रक्रियाओं में लोकतंत्र की पड़ताल और अध्ययन संभव हो पाता है.किसी भी लोकतंत्र को मजबूत करने में व्यक्तियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है.यह राष्ट्र का दायित्व बनता है कि वह एक आलोचनात्मक व्यक्तित्व का निर्माण करें.ताकि आलोचनात्मक राष्ट्र का निर्माण किया जा सकें.

      जहन में पहला सवाल यही उठता है कि क्या हम एक आलोचनात्मक राष्ट्र के निर्माण में सफल हुए है ? यदि नहीं तो उसका स्वरूप कैसा है ?  अज्ञेय के शब्दों में कहे तो अंततः हम एक आलोचनात्मक राष्ट्र का निर्माण करने में असफल रहे हैं.हालात देखते हुए अज्ञेय का वक्तव्य बिल्कुल सटीक लगता है.प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों में कहें तो- हम एक आलोचनात्मक, एक उल्लेखवान, एक चिंतित राष्ट्र का निर्माण करने में दूर तक असफल रहे है और वर्तमान समय में भावनाएं कितनी कोमल हो गई है. किसकी भावनाएं न जाने किसकी, किस बात से आहत हो जाएं,इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है.इन भावनाओं के उफान को ही आप लगातार बढ़ रही हिंसक घटनाओं, तोड़फोड़ में देख सकते है.भावनाओं की हमारा समाज बहुत चिंता करता है.  मैंने आज तक किसी को यह शिकायत करते नहीं सुना कि फंला आदमी की फंला बात से मेरा विवेक आहत हो गया.आपने सुना हो तो कृपया मुझे बताएं ?” 1 आलोचनात्मक विवेक के बजाय भावना प्रधान होना लोकतंत्र के लिए हर रोज नई चुनौती और नई समस्याएं पैदा करता रहेगा.अलोकतांत्रिक शक्तियां इन्हीं भावनाओं को खास-रणनीति  और प्रचार माध्यमों के जरिए अमलीजामा पहना कर समाज में हिंसा और नफरत के बीज बोने में सफल रही हैं.जिसकी साफ झलक आप मुजफ्फरनगर में देख सकते है और अन्य जगहों पर भी.यह चुनौती समाज और सोशल मीडिया दोनों जगह हैं.कैसे निपटना है यह तय करना होगा.

मन में यह सवाल भी बार-बार उठता है कि हमारी कंडिशनिंग क्या इस तरह हुई है कि हम हर एक चीज को सफेद और स्याह रंग में देखने के आदी हो गए है.बचपन में विज्ञान पर लिखा जाने वाला निबंध-विज्ञान वरदान या अभिशाप.क्या हम आज भी इसी मानसिकता से चीजों को,घटनाओं को विश्लेषित करने का प्रयास करते है.उन तमाम प्रक्रियाओं को अनदेखा करते हुए.जिन प्रक्रियाओं को हम बदल भी रहे है और जिनके कारण हम बदल भी रहे है.इन प्रक्रियाओं को समझना काफी जटिल और धैर्य भरा काम है,पर आज के दौर में धैर्य की सबसे ज्यादा कमी नजर आती है.क्या यह भी एक कारण नहीं हो सकता है,जो हमें लोकतंत्र से भीड़तंत्र में बदल दे रहा है.कहने का मतलब यह है कि हम विवेक को विकसित करने में कहां तक सफल हुए है ? हुए भी हैं कि नहीं.बदलती परिस्थितियों और समाज को समझने के लिए तैयार हैं कि नहीं.नहीं है तो क्यों नहीं है ?  

  क्या इन बदलती परिस्थितियों को समझने के लिए हमारे पास कोई पैमाना है ? या हम पुराने पैमानों से इन परिस्थितियों को समझ सकते हैं. इम्मेनुएल वार्ल्स्टाइन ने अपनी किताब --The end of the world as we know it  में  कहा है कि -जिस रूप में हम दुनिया को जानते है, उस रूप में दुनिया समाप्त हो चुकी है. अब नई तरह की व्यवस्था विकसित होगी.सारी जो पुरानी विश्व प्रचलित व्यवस्थाएं रही है.पँजीवाद, समाजवाद, लोकतंत्र, राष्ट्रवाद आदि. सारे सामाजिक - राजनीतिक संगठन के ढांचे और संरचनाएं है, उन सब की सीमाएं व दरारें साफ दिखने लगी हैं.2  अब यह हम पर है कि हम इनसे नजरे चुराते है या इनसे जद्दोजहद करते हुए आगे बढ़ते है.निर्णय हमारे हाथ में है.

वैसे भारत में हर माध्यम को सबसे पहले उपेक्षा का शिकार होना पड़ा है और यह प्रक्रिया आज भी निरंतर उसी तरह जारी है.प्रक्रियाओं की जांच-पड़ताल करते हुए मैं ने महसूस किया कि इसमें हर चीज की भूमिका होती है,वह चाहे नकारात्मक हो या सकारात्मक.पर इनसे मुँह नहीं मोड़ा जा सकता.हाँ इन्हें एक निश्चित दिशा जरूर दी जा सकती है.अपने-अपने स्तर पर, अपने-अपने तरीके से.वो तरीके सबके एक जैसे ही हो ये जरूरी नहीं.क्योंकि विश्व में सूचना व तकनीकी क्रांति के कारण संवाद का स्वरूप बदल गया है.इन बदले हुए स्वरूपों में से एक माध्यम सोशल मीडिया है.यह माध्यम या कोई भी माध्यम हमें बाजार की बढ़ती हुई शक्ति के कारण उपभोक्ता में बदल रहा है,पर हम प्रयास कर रहे हैं नागरिक बनने के.सारी जद्दोजहद यहीं आकर सिमट जाती है.इन दोनों स्थितियों के बीच में हमें अपनी भूमिका निर्धारित करनी होगी.तभी हम लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने से रोक सकते है.जाहिर है यह काम मात्र उपेक्षा से नहीं चल सकता.हमें इस माध्यम की शक्ति को पहचानना होगा और सक्रिय हो कर एक निर्णायक भूमिका वहन भी करनी होगी.माध्यम में आलोचनात्मक सक्रिय हस्तक्षेप ही विरोध की संस्कृति को जिंदा रखते हुए आलोचनात्मक राष्ट्र के निर्माण में अहम भूमिका निभाई जा सकती है.अन्यथा नहीं.

हमें सोशल मीडिया और इलैक्ट्रानिक मीडिया के अंतर को भी समझना होगा. मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के अनुसार- यह एक ऐसा दौर है जहाँ मीडिया के साथ दो शब्द हमेशा जुड़े रहते हैं-एंटरटेनमेंट और इडस्ट्री.चाहे फिक्की की रिपोर्ट हो, बीएसई (बॉम्बे स्टॉक एक्सजेंज), सेबी (भारतीय प्रतिभूति विनिमय बोर्ड) की वेबसाइट या फिर कोई और जगह,मीडिया शुरू से अंत तक उद्योग है.लेकिन ऐसे श्रद्धालुओं की संख्या भी अपार है जो पूरी आस्था के साथ इसे सामाजिक सरोकार का माध्यम मानते हैं ! सरकार और मीडिया से संबंद्ध संस्थान भले ही उसे एक व्यवस्थित उद्योग की शक्ल देने में लगे हों लेकिन उसके ऊपर सरोकार का ऐसा मुलम्मा चढ़ा है जो सैकड़ों बार उद्योग शब्द घिस देने पर भी नहीं उतरता.मीडिया के उद्योग होने के यथार्थ के बावजूद उसकी छवि से जुड़ा सरोकार का यह यूटोपिया एक विरोधाभास पैदा करता है.एक ऐसा भ्रम जहाँ लोकतंत्र का कोई चौथा खंभा नहीं है,न संविधान में ऐसा कुछ लिखा है,पर वह है.उसके होने का मिथक इतना मजबूत है कि वह एक भरे-पूरे बाजार को उठा के खड़ा कर देता है.लेकिन सूचना औऱ तकनीक के वर्चस्व वाली इस सदी में मीडिया को समझने के प्रस्थान बिंदु लोकतंत्र नहीं विज्ञापन और शेयर बाजार से शुरू होते हैं.3 अतः इलैक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया दोनों के चरित्र के मूलभूल अंतर इन्हें अलग-अलग माध्यम के रूप में समझने और विश्लेषित करने पर जोर देते हैं.

रवीश कुमार के अनुसार- टीवी का विस्तार गाँवों और झुग्गियों में तेज़ी से हो रहा है. मुंबई दिल्ली की झुग्गियाँ हों या सड़क किनारे बनी मड़ई आप देखेंगे कि उनकी छतों पर डिश टीवी का तवाकार एंटिना बजबजा रहा है. ठेले पर फल बेचने वाले एक जवान ने हाथ मिलाते हुए कहा कि आप नेताओं को सही से नंगा करते हो. इतनी मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा टीवी पर . केबल पर . यह वो तबक़ा है जिसे मल्टीप्लेक्स सिनेमा हाल ने खदेड़ दिया है . मैं दिल्ली कई इलाक़ों में ऐसे अनेक लोगों से मिलता हूँ जो दिल्ली में रहते हुए बीस साल से सिनेमा हाल नहीं गए हैं . इनमें से कई ऐसे हैं जो कभी सिंगल सिनेमा में फ़्रंट स्टाल का टिकट लेकर देखते थे . इस तबके लिए टीवी सिनेमा है . मनोरंजन का माध्यम है . टीवी के दर्शक का सत्तर फ़ीसदी हिस्सा यही है जिसे नेता नव मध्यमवर्ग कहते हैं . ग़रीबी के सागर में रेखा से ऊपर डूबता उतराता तबक़ा . इसी तबके तक पहुँच की ज़िद में न्यूज़ चैनल भी सिनेमा का विस्तार बन गए . रिपोर्टिंग की जगह किस्सागो बन गए.  अब यह समाज धीरे धीरे राजनीतिक तौर से रूपांतरित हो रहा है . राजनीतिक पहले भी था मगर इसकी सक्रियता मीडिया के स्पेस में भी बढ़ रही है . यही प्रवृत्ति इसके ऊपर के तबके में हैं . इस तबके में पेपर भले न आता हो मगर टीवी आता है .“ 4 टीवी का विश्लेषण करते हुए आगे लिखते हैं कि— सीलिए आप देखेंगे कि टीवी सिर्फ बोलने लगा है. दिखाना छोड़ दिया है. जनमत के नाम पर हताशा का समोसा तला जा रहा है. बातों और तथ्यों का कोई परीक्षण नहीं है. इंटरनेट स्पेस में पहले से मौजूद तथ्यों के आधार पर सवाल बनते हैं और पूरा संदर्भ एक सीमित दायरे में बनता चला जाता है. हर टीवी पर एक ही टापिक और जानकारी का एक ही सोर्स गूगल. किसी चैनल के पास अपनी रिपोर्टिंग के ज़रिये नई जानकारी नहीं है. चैनल सिर्फ लोगों में मौजूद मिथकों, अवधारणाओं, अधकचरी जानकारियों और बेचैनियां का छेना फाड़ कर पनीर बना रहे हैं. यह जनमत नहीं भगदड़ है. जहाँ सब चिल्ला रहे हैं और सुनने वाले को लगता है कि उसकी बात हो रही है. " आप सही करते हो नेताओं को धो डालते हो " ऐसी प्रतिक्रिया इसी की अभिव्यक्ति है.इसीलिए कहता हूँ कि मीडिया समाज की सक्रियता का मतलब जागरूकता ही हो यह ज़रूरी नहीं है. उसकी जानकारी का सोर्स मीडिया है और मीडिया की जानकारी का सोर्स भी मीडिया है. घूम घूम के वही बात. धीरे धीरे मीडिया नागरिक चंद अवधारणाओं के गिरफ़्त में जीने लगता है. यह उसका आरामगाह यानी कंफर्टज़ोन बन जाता है. एक किस्म की कृत्रिम जागरूकता और भागीदारी बनती है. अवधारणाओं की विविधता समाप्त हो जाती है.”5

टीवी की सीमाओं के बाद अब बात करते है सोशल मीडिया की.सोशल मीडिया को लेकर पहली शंका यही उठती है कि क्या यह हमारे पूरे समाज को अपने दायरे में लेता है या उसका प्रतिनिधित्व करता है ? हां,यह सही है कि यह नहीं करता, यह अधूरा या एक हिस्से का सच है,पर झूठ भी नहीं है.वैसे पूरा समाज और पूरा सच है कहां.कहीं हो तो बता दीजिए.पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि हमें प्रयास ही नहीं करने चाहिए.इसमें जो कुछ भी है वो आभासी है, पर सच भी है. आभासी सच. इसी आभासी सच की बुनियाद पर सपनों की एक और दुनिया रची गई है,और रची जा रही है.  सोशल नेटवर्किंग की दुनिया जो ऑरकुट, ब्लॉगिंग,फेसबुक,ट्वीटर और छोटे- छोटे तिनकों से तैयार हुआ है .इन तिनको ने सूचनाओं को गंभीर और व्यापक रूप दिया.इसके साथ-साथ सतही रूप को भी बढ़ावा दिया है.रवीश कुमार के शब्दों में कहें तो- हम एक मीडिया समाज में रहते हैं. नागरिकता कई प्रकार की होती है लेकिन लगातार कई माध्यमों के असर में हम 'मीडिया नागरिक' बन रहे हैं. हम पहले से कहीं ज़्यादा मीडिया के अलग अलग माध्यमों से अपनी अपेक्षाएँ पाल रहे हैं और ये माध्यम हमें प्रभावित कर रहे हैं. जो काम विज्ञापन अपने असर में हमसे साबुन से लेकर जीन्स तक का सक्रिय उपभोक्ता बनाने में करता है वही काम मीडिया हमें 'दलीय उपभोक्ता' बनाने में कर रहा है. ट्वीटर पर कई लोग अपने हैंडल नाम के लिए नमो फ़ैन्स या रागा फ़ैन्स या केजरी फ़ैन्स लिखते हैं. फ़ैन्स राजनीति का नया उपभोक्ता वर्ग है जिसे सतत प्रचार के ज़रिये पैदा किया जाता है. मीडिया और सोशल मीडिया के स्पेस में. यही वो मीडिया नागरिक है जो सोशल मीडिया के अपने स्पेस में 'नान रेसिडेंट सिटिज़न' की तरह मुख्यधारा की मीडिया को देखता है जैसे एक एन आर आई इंडिया को ताकता है. यह मीडिया को भी एक राज्य और उसमें ख़ुद को नागरिक की तरह देखता है.6

  हाँ, इतना जरूर है कि सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति को बाढ़ में तब्दील कर दिया है. अब हम हर समय सूचनाओं से घिरे रहते हैं और इन सूचनाओं में शामिल भी रहते है.अतः हम सूचना समाज का अंग बन चुके है.इससे इंकार करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता.सोशल नेटवर्किंग को शुरुआत में इंटरनेट पर जवान हो रही नई पीढ़ी के नए शगल के रूप में ही लिया गया. इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया और आज भी कईं स्तरों पर नहीं लिया जाता. लेकिन जब धीरे-धीरे नई तकनीक और संप्रेषण के नए माध्यमों को लेकर जिज्ञासु बौद्धिक वर्ग ने इससे जुड़ना चालू किया तो सोशल नेटवर्किंग ने अचानक नई करवट ली. हर कोई इस मंच पर आकर अपनी बात कहने को उतावला हो गया. इस मंच की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यहाँ जिसे जो मर्जी है वो कह सकता है. ये जनसंचार के परंपरागत संपादित माध्यमों से बिलकुल अलग है. काट-छाँट का कोई डर नहीं, अपनी रचना कूड़े में फैंके जाने का कोई ख़तरा नहीं. ... और सबसे बड़ी बात छप जाने का कभी ना ख़त्म होने वाला इंतजार भी नहीं।

दरअसल यह एक 'वर्च्युअल क्लास रूम' की तरह है.एक तरह की तकनीकी पाठशाला है.अब यह आप पर है कि आप इसमें शामिल होना चाहते है,हस्तक्षेप करना चाहते है,साझेदारी रखना चाहते,संवाद करना चाहते है या उपेक्षा करना चाहते है.यह एक नए तरह का स्पेस है. जिससे  जुड़े रहने के एहसास को जिंदा रखने के लिए नया तरीका मिल गया है.यह नई तरह की दुनियादारी है. जिसमें भ्रम भी है और यथार्थ भी है.इसी से जुड़ा एक सवाल यह भी उठता है कि सोशल मीडिया जनमत तैयार करता है या भ्रममत ? दरअसल जहां तक मुझे लगता है यह दोनों काम करता है.तथ्यों, छवियों, सूचनाओं आदि के साथ छेड़छाड़ या मनमुताबिक दिशा देकर उनमें धार्मिक, सांस्कृतिक एंव राष्ट्रवादी विचारों को उत्पाद में बदल कर चूं-चूं का मुरब्बा तैयार करता है, जिससे समाज में भय, शंकाएं और अविश्वास को बढ़ावा मिलता है.इसे हम भ्रम कह सकते है.इस भ्रम को प्रचार-प्रसार के माध्यमों द्वारा खास रणनीति के तहत जनमत में तब्दील किया जाता है.तमाम पहचानों को आक्रामकता के साथ प्रस्तुतिकरण की प्रक्रिया में शामिल करके दुविधाग्रस्त और अपरिपक्व युवाओं को बरगलाने में अहम भूमिका निभाते है.इस रणनीति को सोशल मीडिया के माध्यम से ही काउंटर किया जा सकता है, क्योंकि इस तरह का प्रचार इसी माध्यम पर सबसे ज्यादा होता है.पाबंदी लगा देने से समाधान नहीं निकलते.जिसकी तरफदारी कुछ विद्वान करते नजर आते है.माध्यम-शिक्षा और आलोचनात्मक काउंटर ही मेरे हिसाब से सही रणनीति होगी.  

इसमें  सबसे ज्यादा युवा शामिल है और जिस वजह से यह बाजार की भी पहली पसंद बनता जा रहा है.बस इसमें लोकतांत्रिक आंदोलनकर्मी भी शामिल हो जाएं तो बाजारवादी शक्तियों और अलोकतांत्रिक शक्तियों से भी लड़ा जा सकता है.लड़ाई अब हर स्तर पर लड़नी पड़ेगी.केवल आंदोलनों से काम नहीं चल सकता है.पर इसक मतलब यह नहीं है कि इससे आंदोलन की भूमिका को नजर अंदाज किया जा रहा है.भौतिक और मानसिक दोनों स्तरों पर संघर्ष जरूरी है,इसलिए इस माध्यम की शक्ति को पहचान कर उसका सकारात्मक इस्तेमाल करना होगा.उपेक्षा से काम नहीं चलेगा.क्योंकि अलोकतांत्रिक शक्तियां इस पर हावी होती जा रही है और बाजार ने इसे अपने ग्राहक ढूंढने का नया जरिया बना लिया है.

सोशल मीडिया ने परंपरागत मीडिया पर निर्भरता को कम किया है. लोगों की अभिव्यक्ति मुखर हुई.चंद लोगों के नापाक इरादे इस नए मीडिया को बर्बाद ना कर पाएँ. यहीं पर हमें अपनी निर्णायक भूमिका निभानी है.इसे ऑपन स्पेस में सृजनात्मक हस्तक्षेप कह सकते है.जिसका स्वरूप लोकतांत्रिक होगा.क्योंकि संपादित माध्यमों के ख़रीदे जा सकने वाले सरोकारों के बीच सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का पहरुआ बनकर सच को सामने लाता रहे और लोकतंत्र को मजबूत करता रहे.यही प्रयास हमें करना हैं.

एक सवाल यह भी उठता है कि क्या यह सामूहिक आवाजों का माध्यम है ? किसी स्तर तक यह सामूहिक आवाजों का माध्यम है भी,पर व्यक्तिक स्तर पर ज्यादा है.सोशल मीडिया शिक्षा, परिवार, समाज, सरकार आदि सारे सरोकारों को प्रभावित कर रहा है. उसकी यह ताकत लोकतंत्र को मजबूत तो कर रही है, पर हमें इसके खतरों का भी ख्याल रखना होगा.लोकतंत्र हमें फैसले लेने की ताकत देता है. यह आम आदमी को आवाज देता है, ऐसे में सोशल मीडिया का आना इस ताकत को और बढ़ा देता है.सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता का सवाल आज लोगों तक पहुंचा तो इसके पीछे सोशल मीडिया की एक बड़ी ताकत है. एक जीवंत लोकतंत्र के लिए एक सक्रिय मीडिया जरूरी है.जिसकी भरपाई सोशल मीडिया करता है. इसे अंबानी के पुत्र द्वारा कार से मारे गए लोगों की खबर से बेहतर समझा जा सकता है,जिसे इलैक्ट्रानिक मीडिया ने नजर अंदाज कर दिया था.उसे सोशल मीडिया ने उठाया.

 

 

क्या लोकतंत्र शासन चलाने का सबसे बेहतर तरीका है ?

लोकतंत्र केवल चुनावों तक सीमित नहीं है ,यहां विचारों का भी लोकतंत्र होना चाहिए. सोशल मीडिया ने इसे संभव कर दिखाया है। इससे पूरी मानवता एक सूत्र में जुड़ती हुयी दिखने लगी है.सोशल मीडिया के कारण पार्टनरशिप बन रही है, संवाद बन रहा है और फिर संबंध बन रहे हैं. परंपरागत मीडिया में जहां संवाद नियंत्रित था और कुछ ही लोग यह तय कर रहे थे कि क्या पढ़ना है और किन सवालों पर बात होनी है, वहीं सोशल मीडिया ने आम आदमी को ताकत दी है. इसने जाति, भाषा, भूगोल और सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर एक वैश्विक संवाद की परंपरा की शुरूआत की है. सोशल मीडिया को सामाजिक सरोकारों से जुडकर अपनी निर्णायक भूमिका अदा करनी होगी,पर यह काम हमें व्यक्तिक और संगठन दोनों स्तरों पर करना होगा.इसी के चलते सोशल मीडिया में हर नागरिक पत्रकार की भूमिका में आ गया है.अतः हम कह सकते है कि लोकतंत्र शासन चलाने का सबसे बेहतर तरीका है.

 

बाजार और सत्ता का आपसी गठजोड़

बाजार को पनपने और फैलने के लिए मनमुताबिक परिस्थितियां चाहिए.ऐसी परिस्थितियां सत्ता में काबिज लोग इन कॉर्पोरेट कंपनियों को मुहैया करा रहे है.इसी का नतीजा यह निकलता है कि जो पार्टी जितनी मदद कॉर्पोरेट की करती है,कंपनी भी उसी की मदद करती हुई नजर आती है.मोदी के प्रति बढ़ते प्रेम को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता.वॉल स्ट्रीट जनरल ने मोदी की प्रशंसा में लिखा है कि-धीमे होते भारत का उभरता सितारा.दूसरी ओर टाइम मैगजीन ने लिखा-मोदी मतलब व्यापार.यह जानना दिलचस्प है कि किस कीमत पर ? यह कीमत है नागरिकों के अधिकारों में कटौती करके, सब्सिडियां खत्म करके, विरोध की संस्कृति को कुचल कर, लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म करके.कहने का तात्पर्य यह है कि सत्ता का लोककल्याणकारी स्वरूप खिसककर मुनाफेखोरी में तब्दील हो रहा है.जिसके कारण राज्य की संरचना और बुनावट से नागरिकों की परेशानियाँ गायब है.कोई चिंता या सरोकार बचे नहीं है.बाजार सत्ता पर हावी है और सत्ता समाज पर हावी है.जो कि लोकतंत्र को कमजोर करने में लगा हुआ है.हर उठती हुई आवाज को दबा देना चाहता है.पर सोशल मीडिया न दबने की ताकत रखता है.यही इसकी ताकत भी और कमजोरी भी है.

इस बढ़ती मुनाफेखोरी की प्रवृत्ति ने हमें बाजार की नजर में उपभोक्ता और सत्ता एंव राजनीति की नजर में वोट में तब्दील कर दिया हैं.ये तमाम प्रक्रियाएं लोकतंत्र को कमजोर करती हैं तथा इसके मूल स्वरूप और चिंताओं को धूमिल करती हैं.सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभावों को चाहे-अनचाहे रूप में सभी पार्टियों ने स्वीकार करना शुरू कर दिया है.इसी कराण चुनाव प्रचार में डिजिटल उपकरणों और सभी माध्यमों का इस्तेमाल हर पार्टी कर रही है.हर पार्टी इनकी शक्तियों को धीरे-धीरे पहचानने लगी है और इसमें शामिल भी हो रही है. लोकसभा की करीब 30 प्रतिशत सीटों के सोशल मीडिया से प्रभावित होने की रिपोर्ट पर विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस माध्यम की ताकत को स्वीकार किया. लेकिन साथ ही कहा कि लोगों से सीधे सम्पर्क जैसे परंपरागत चलन चुनाव प्रचार का कारगर तरीका है.

  भाजपा उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा, ‘‘पार्टी चुनाव प्रचार के परंपरागत तरीके पर ही ज्यादा जोर देगी. इसमें कोई बदलाव नहीं आयेगा. सोशल मीडिया से युवा काफी संख्या में जुड़े हैं और इस वर्ग तक हम सूचना एवं सम्पर्क के रूप में इंटरनेट, फेसबुक, ट्विटर आदि को आगे बढ़ा रहे हैं. लेकिन यह सूचना एवं संचार सुविधा का तरीका होगा. हम परंपरागत तरीके से ही चुनाव प्रचार के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं.’’7 सोशल मीडिया पर अभियान को गति देने और लोगों तक पहुंचने के प्रयास के तहत भाजपा ने मिशन 272 प्लसके तहत 60 स्वयंसेवकों की एक टीम बनायी है.जो लगातार प्रचार-प्रसार में लगी हुई है.पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा, ‘‘सोशल मीडिया शहरी या देहाती क्षेत्र का विषय नहीं है. इसकी अधिक चर्चा अन्ना हजारे के आंदोलन के साथ शुरू हुई जो जन लोकपाल और भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान था और सरकार की ओर से इस आंदोलन से गलत तरीके से निपटा गया. इसी आंदोलन से जुड़े लोगों ने एक पार्टी बनायी और दिल्ली में उसका अच्छा प्रदर्शन रहा.’’ उन्होंने कहा, ‘‘हालांकि, सोशल मीडिया के प्रभाव की बात करने वाले भ्रम में हैं, अगर ऐसा ही होता तो मुम्बई में भी आंदोलन सफल होता. सोशल मीडिया का प्रभाव सीमित है.’’8

 

 

 

 

एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि अगले आम चुनाव में सोशल मीडिया लोकसभा की 160 सीटों को प्रभावित कर सकता है जो निचले सदन की कुल सीटों का करीब 30 प्रतिशत है. गौरतलब है कि अध्ययन में कहा गया है कि अगले आम चुनाव में लोकसभा की 543 सीटों में से 160 अहम सीटों पर सोशल मीडिया का प्रभाव रहने की संभावना है. इनमें से महाराष्ट्र से सबसे अधिक प्रभाव वाली 21 सीट और गुजरात से 17 सीट शामिल है.’’ उत्तरप्रदेश में ऐसी सीटों की संख्या 14, कर्नाटक में 12, तमिलनाडु में 12, आंध्र प्रदेश में 11 और केरल में 10 है.अध्ययन के अनुसार, मध्यप्रदेश में ऐसी सीटों की संख्या 9 जबकि दिल्ली में सात है. हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में ऐसी सीटों की संख्या पांच-पांच है जबकि छत्तीसगढ, बिहार, जम्मू कश्मीर, झारखंड और पश्चिम बंगाल में ऐसी चार-चार सीटें हैं. अध्ययन के अनुसार 67 सीटें सोशल मीडिया के अत्यधिक प्रभाव वाली हैं जबकि शेष की कम प्रभाव वाली सीटों के रूप में पहचान की गई है. (एजेंसी) 9

 

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आज का दौर सोशल मीडिया का है।'सोशल मीडिया- इज इट द वॉयस ऑफ द पीपल?आज सोशल नेटवर्किंग दुनिया भर में इंटरनेट पर होने वाली नंबर वन गतिविधि है, इससे पहले यह स्थान पोर्नोग्राफी को हासिल था. सोशल नेटवर्किंग साइट्स संचार व सूचना का सशक्त का जरिया हैं, जिनके माध्यम से लोग अपनी बात बिना किसी रोक-टोक के रख पाते हैं. यह बात देश और दुनिया के हर कोने तक पहुँच जाती है. हमें सैक्स-शिक्षा और माध्यम-शिक्षा पर भी जोर देना चाहिए. क्योंकि इन दोनों के अभाव में ही युवा उलटे-सीधे रास्तों के जरिए अपनी जिज्ञासाएं शांत करते है.

आज हर किसी की जुबान पर जो युवा-युवा चढ़ा हुआ नजर आता है,उसका एक बड़ा कारण यह सोशल मीडिया ही है.उन्हीं को ध्यान में रखते हुए ही माई टाईम, माई स्पेस—जैसे जुमले इस्तेमाल किए जा रहे है.लोकतंत्र को कमजोर से बचाने के लिए न तो युवाओं की अनदेखी की जा सकती है और न ही उनकी आवाज की.उनकी आवाज को सकारात्मक दिशा देने के लिए उनकी भाषा में संवाद की स्थिति कायम करनी होगी.वरना तमाम खतरे उठाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा.चयन हमारे हाथ में है.संवाद बनाएं या संवादहीनता के स्थिति में उन्हें खेलने दे अलोकतांत्रिक और कम्यूनल-शक्तियों के हाथ में.बेहतर स्थिति यही होगी कि हम इस माध्यम की शक्ति और सीमाओं को समझते हुए इसमें सक्रिय सृजनात्मक हस्तक्षेप का रास्ता अपनाएं और आंदोलनों को भी जारी रखें. ताकि लोकतंत्र में उत्पन्न किए जा रहे खतरों से निपटा जा सके और एक आलोचनात्मक राष्ट्र के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकें.

अतः लोकतंत्र में आलोचना और प्रतिवाद की महता होती है उसके प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखना चाहिए.लोकतंत्र तभी सार्थक है जब लोकतांत्रिक मनुष्य भी हो.लोकतांत्रिक मनुष्य के बिना लोकतंत्र बेजान है.ऐसे में सोशल मीडिया की भूमिका को समझते हुए इस बनते हुए नए स्पेस को प्रतिवाद और आलोचना के लिए इस्तेमाल करना जरूरी है.अन्यथा इस स्पेस पर अलोकतांत्रिक शक्तियां काबिज हो कर लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल सकती है और समाज में हिंसा और भेदभाव को बढ़ा सकती हैं.

 

 
संदर्भ ग्रंथ सूचि---

 

1.  http://chalte-rahiye.blogspot.in/

2. वहीं

3. विनीत कुमार, मंडी में मीडिया,वाणी प्रकाशन,दिल्ली,संस्करण-2012, पृ.-17

4.  http://naisadak.blogspot.in/

5. वहीं

6. वहीं


8. वही

9. वहीं