शनिवार, 28 सितंबर 2013

गाइडों के गाइड


  • हरियाणा के कॅालिजों में बच्चे के हाथों में किताबों की जगह गाइडें थमा दी जाती है और अध्यापक गाइडों के जरिये देवआनंद नुमा गाइड तैयार करने का महत कार्य मात्र 35000 से लेकर 100000 रुपये तक की अदनी -सी राशि लेकर करते हैं और भविष्य की नींव रखने में अपनी भूमिका और योगदान के कारण छाती और पेट को कई इंच फुला कर चलते है.गाइडी -बच्चे भले ही समाज के भेदभाव को दूर न कर सके, पर किताब और गाइड के फर्क को सफा करके देश को नई दिशा जरुर दे रहे हैं.यह दिशा क्या "दसा" करेगी ? इसकी चिंता प्रेफसर(प्रोफेसर का अपभ्रंश) भला क्यों करें ? दरअसल मुख्य चिंता यह है कि गाइड और किताब का फर्क इन प्रोफेसरों को भी नहीं हैं.प्रोफेसर का काम इनकी नजर में बस 'लैक्चर' दे कर निकल जाना है,कौन क्या समझ पाया या समझने की कोशिश करता है या नहीं.इससे इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.न ही इस बात से फर्क पड़ता है कि कल कौन से बच्चे थे और आज कौन से बच्चे 'क्लास'में आए हैं.बस अपना कर्म करते चले जाओ,फल की चिंता किए बगैर. गीता के इस पाठ को बेहतर तरीके से जीवन में उतार लिया है.दरअसल नौकरी मिलते ही पढ़ने-लिखने से ये खुद को अलग कर लेते है,यह समस्या भी इन की जड़ों में पैठ कर गई होती है.जिसका परिणाम बच्चे भुगतते है.उन बच्चों की 'कंडीसनिंग' तो स्कूल के स्तर पर ही हो जाती है.रही सही कसर यहां पर आकर पूरी हो जाती है.रट्टे मारने की जो परंपरा वहां से शुरु होती है,वह यहां आकर अपने चरम पर पहुंच जाती है.अगर बच्चों की कॉपी एक जगह रख कर तुलना करे तो पाएंगे की लगभग सभी की कॉपी फोटो स्टेट लगेगी.अंतर केवल 'राइटिंग' का मिलेगा.बच्चों में विवेक विकसित करने के बजाय हम उन्हें भेड़चाल में चलने का अभ्यस्त करने के अलावा कुछ ओर नहीं कर रहे होते है.भेड़चाल बिना विवेक के हिंसात्मक कार्र्यवाही में बदलते देर नहीं लगती.उस पर इनकी चिंता यह कि बच्चे बिगड़ गए है.घर वालों का 'कंट्रोल' बच्चों पर नहीं रहा है.शिक्षक की भूमिका क्या होती है ? और क्या होनी चाहिए ? िइस पर इन्होंने कभी गंभीरता से विचार भी नहीं किया होगा.
  • सवाल यह बिल्कुल नहीं है,क्योंकि यह सवाल किसी परीक्षा में नहीं आने वाला और न ही इसका जवाब किसी गाइड में मिलेगा. क्योंकि यह आउट ऑफ .सलेबस है . बच्चों को अगर हटकर पढाओ तो कहते है कि सर !  ये किसी किताब(गाइड) में नहीं मिला.पता नहीं आप कहां से पढाते है .हमें तो 'निसान' लगवा दीजिए बस.बाकी हम खुद ही कर लेंगे.गाइडों के प्रकाशक भी हर साल अपने बिचौलिए को भेज देते है और वे ढेर सारी गाइडे हर विभाग को गिफ्ट नुमा रिश्वत दे जाते है.फिर उनकी बंदर बांट कर ली जाती है और कुछ गाइडे छोटे 'करमचारियों' को और कुछ गरीब बच्चों को दरियादिली स्वरुप दे कर दानवीर कर्ण की परंपरा में शामिल होने के साथ-साथ द्रोणाचार्य पुरस्कार की दौड में अपना जुगाड लगाने लग जाते हैं.इस गाइडी-संस्कृति के परोधा धन्य है.मैं उन सभी को नमन करता हूं और मुझे परमात्मा सत्-बुद्धि दे इसकी कामना (का-मना) करते हुए अपने को इस सत्त-कर्म में बडा ही असहाय महसूस करता हूं.




तुम्हारी और तुम्हारे आने की अधूरी याद-पूनम शर्मा

तुम्हारी और तुम्हारे आने की अधूरी याद,
कविता होगी.
तुम तुम्हारे सिवा कुछ और,
हो ही नहीं सकते,
पर तुम और मैं दोनों,
जानते हैं,
कि तुम मेरे लिए और,
मैं तुम्हारे लिए,
दोनों एक-दूसरे के लिए,
क्या अहमियत रखते है.
जीवन तुम्हारे बिना,
आसमान है,
बिना तारों के,
जो कि सूना होगा,
अपने विस्तार के साथ,
हमेशा-हमेशा के लिए.

तुमसे मिलकर जाना-पूनम शर्मा


तुमसे मिलकर जाना


हर पल तुम्हारी होने का अहसास


क्या चीज है.


तुमसे मिलकर जाना


याद में मिठास 


क्या चीज है.


तुमसे मिलकर जाना


मोहब्बत में दीवानगी 


क्या चीज है.


तुमसे मिलकर जाना


अपने -पन का अहसास


क्या चीज है.


तुमसे मिलकर जाना


हर पल के अहसास में खुशी

क्या चीज है.


तुमसे मिलकर जाना


जिंदगी में अधूरापन 


क्या चीज है.


तुमसे मिलकर जाना


अपनों का साथ


क्या चीज है.


तुमसे मिलकर जाना


इंतजार में मजा


क्या चीज है.


तुमसे मिलकर जाना


सांसों में तुम्हारी खुशबू


क्या चीज है.


तुमसे मिलकर जाना


सपनों में दुनिया बनाना


क्या चीज है.


तुमसे मिलकर जान ही लिया


कविता लिखने का नशा


क्या चीज है...........


शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

यश चौपड़ा की याद में

मेरे पापा का कैसा (वक्त-1965) रहा होगा,
क्या उनके जीवन में कोई दाग(1973) रहा होगा.
उनके पिता और समय ने उनके चारों और दीवार(1975) खडी की होंगी.
कभी-कभी(1976) उन्होंने उन दीवारों को शायद तोडा हो,
जो त्रिशुल(1978) की भांति सीने में गढ गई हो.
या काला पत्थर(1979) बन कर रह गये हो.
ये सिलसिला (1981) कब तक चला होगा.
कभी तो जीवन में चांदनी(1989) आई होगी.
या डर डर(1993) के जीवन जीया होगा.
दिलवाले दुलहनियां ले जायेंगे-(1995)
 गीत को महसूस करते हुए हमनें जवानी की दहलीज पर कदम रखे.
 और दिल तो पागल है (1997) ये चर्चे चारों ओर होने लगे.
मोहब्बतें(2000) में परवान चढने लगी.
 और जीवन साथिया(2002) बनकर धूम(2004) मचानी शुरु कर दी.
यश को करते रहेंगे याद,
जब तक है जान(2012).

"पीपली लाईव" फिल्म का गाना


सखी सैयां तो खूब ही कमात हैं
महंगाई डायन खाए जात है
हर महीना उछले पेट्रोल
डीजल का - उछ्ला है रोल/ (भी बढ़ गया मोल)
शक्कर बाई के का हैं बोल
हर महीना उछले पेट्रोल
डीजल का - उछला है रोल/ (भी बढ़ गया मोल)
शक्कर बाई के का हैं बोल
रुसा बासमती धान मरी जात है
महंगाई डायन खाए जात है
सखी सैयां.......
सोया बान को है बेहाल,
गर्मी से पिचके हैं गाल
घिर गए पत्ते,
पक गए बाल
सोया बान का का बेहाल ,
गर्मी में पिचके हैं गाल
घिर गए पत्ते,
पक गए बाल
और मक्का जीजी भी खाए गयी मात है
महंगाई डायन खाए जात है
सखी सैयां ....
अरे कददू की हो गयी भरमार
ककड़ी कर गयी हाहाकार
मटर जी को लगो बुखार
अरे कददू की हो गयी भरमार
ककड़ी कर गयी हाहाकार
मटर जी को लगो बुखार
और आगे का कहूँ
कही नहीं जात है
महंगाई डायन खाए जात है
सखी सैयां ....
साल घसीटत आ गव जून
महँगाई पी गयी खून
हाफ पैंट हो गयी पतलून
पड़े खटिया पे
यही बड़बड़ात है
महंगाई डायन खाए जात है
सखी सैयां .....
ए सैयां , ए सैयां रे ... मोरे सैयां रे खूब कमावें, सैयांजी ..
अरे कमा कमा के मर गए सैयां
पहले तकड़े तकड़े थे
अब दुबले पतले हो गए सैयां
अरे कमा कमा के मर गए सैयां
मोटे सैयां पतले सैयां
अरे सैयां मर गए हमारे खिसियाये के
महंगाई डायन मारे जात है
सखी सैयां तो खूब ही कमात है
महंगाई डायन खाए जात है
महंगाई डायन खाए जात है : अभाव में जीते भारतीयों का गीत

शादी का विचार

शादी के विचार से ही
उग आई है
नई-नई
कोपले
तुम्हारे सुर्ख चेहरे पर.
इस गूंगे समय में बोलती है
तुम्हारी देह
कई तरह की भाषाएं.
घुल-मिल गए है
भाव-विचार-कल्पनाएं
और
फैल गई
ओस बूंदों की तरह.
नर्म-मुलायम
तुम्हारे स्पर्श में भी
आ गई है गर्माहट.
पटाखों के धुएं से बे-खबर
भविष्य के बीच तलाशती
अपना यथार्थ.
बिना कागज-कलम के
गढती अपना जीवन.
केवल कोमल अहसासों से
सहेजती अपनी ...........

माता करे माला-माल-


माता का जागरण कराने से लोग पैसा जरुर कमा लेते है. माता का आर्थिक पहलू नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है.धर्म के नाम पर लोग दान भी खूब देते हैं. गरीब की मदद के समय ये लोग नंगड हो जाते है.ऐसे नंगड भक्तों से सख्त चीड है. ऐसा ही एक माता का जागरण आज मेरे पडोस में ढेरा डाले हुए है.50,000 से 100000 के करीब पैसा बचेगा,ऐसा अनुमान क्षणिक भक्तगण लगा रहे है.किस-किस में बंटेगा ये भी चर्चा का विषय बना हुआ है.जय हो भक्त गणों की............
प्रेम करने वालों को खूब भाता है जागरण.नैन लडाने का रात भर समय मिलता है.लगे रहो.प्रेम करते रहो.जागरण का पॉजिटिव एंगिल है .नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलुओं पर नदर गढाए रखेंगे.ताजा हालात से आपको रु-ब-रु कराते रहेंगे.

ऐसा भी हो सकता है

गया था प्रेमिका से मिलने.
पूछने लगी तुम कौन सी खाप से हो.
तुम भी तो जाट हो ना.
क्या फैसला ले कर आए हो.
तुम क्या हो-जाट,खाप, या मर्द.
या थोडा -थोडा सब हो.
हो तो रस्ता नाप लो.

हरयाणवी-गीत

हरियाणवी गीत-70% लडकियों का टांका भिडा.30% क्या कर रही है? और खाप -पंचायते घास चर रही है, लक्ष्मण की तरह समय रहते सन्यास ले ले तो बढिया है.फोन-कंपनिया आॅफर दे रही है.इडली -सांबर मिल कर खाये जा रहे है.जिनका नहीं भिडा है वो आदर्शो को हनुमान-चालीसा की तरह बांच रहे है.

बुरी -नजर


इतना सुनता हूँ समाज में
कि उसको नजर लग गई 
या उसकी नजर लग गई 
बहुत दुआ मांगता हूँ 
ये सोच कर 
कि मेरे मोटापे को भी लग जाय 
बुरी नजर ?
कोई कह दे अपनी काली जुबान से 
कि बहुत मोटे हो गये हो 
और में हो जाऊ
तुरंत पतला
अक्सर पूछता हू लोगो से
कि कोई है बुरी नजर वाला
या काली जुबान वाला
एक बार मिल गया तो ....
पहले तो पतला होऊंगा
फिर उससे अनुरोध करूंगा
कि समाज कि सारी बुरी आदतों ,भेदभाव आदि
पर लगा दो अपनी नजर |
पर ध्यान रखना होगा
नजर उतरने वालो से
कहीं इस राम -बाण को नजर न लगा दे |
अगर बच गये इनसे तो
बस आ गया राम -राज्य |

नशा मुक्ति केन्द्र

बेरोजगारी लंबे समय से पीछा ही नहीं छोड़ रही थी.तब एक रसूकदार अफसर रिश्तेदार ने जुगाड़ लगाकर किसी एनजीओ की मदद से नशा मुक्ति केन्द्र खुलवाया.अब इसी से गुजर-बसर कर रहा था.पैसे तो खूब है इस काम में,पर झंझट भी बहुत है.कुछ की नजर में यह भले का काम है,तो कुछ की में आफत का काम.पर जो भी हो जसबीर के लिए तो अब यहीं काम उसका जीवन बन गया था.
फोन की घंटी बजती है.
जसबीर-हैलो,कौन ?
औरत-जी,नशा मुक्ति केन्द्र से बोल रहे है.
-हां.
-जी,मैं कालीरामणा मौहल्ले से बोल रही हूं.मेरा पति रोज पी कर आ जाता है और मार-पीट करता है.अब  भी  पी कर आए हुए है.आप उस की शराब छुड़वा दो.
-हां, ठीक है.पता लिखवाओ.
-पान्ना कालीरामणा,राधा मन्दिर के पास.मुकेश मांगे का.
-अभी आते है.
उसने अपने तीन साथियों को साथ लिया और चल निकले हीरो होड़ा पर.दो हीरो होंडा हमेशा तैयार रहती थी.इसी काम के लिए.
-हां भाई मुकेश कौन-सा है.
-हां मैं हूं,के था.
-पकड़ लो.यही है.
-छोड़ साले.तुम कौन हो.मुझे कहां ले जा रहे हो.
-पहले चल तो सही.तब बताएंगे.
उन्होंने सारे पान्ने के बीचोबीच उसे घसीटना शुरु कर दिया और पकड़ कर होंडा पर बीच में बैठा लिया.यूं तो मुकेश बस में नहीं आता,पर उसने कुछ ज्यादा ही पी रखी थी.इसलिए वह आसानी से पकड़ में आ गया.और वो उसको नशा मुक्ति केन्द्र ले गए.इस बीच जब मुकेश हाथा-पायी पर उतर आया था,तब उन्होंने उसे सही समार दिया था.चोट खाया मुकेश इस अपमान के घूंट को पी गया.वहां ले जाकर भी उन्होंने मुकेश की एकबार फिर धुनाई कर दी.जिस कारण मुकेश का नशा भी ढिला हो गया.नशा कम होने और पिटाई के दंश में मुकेश को रात बर नींद भी नहीं आई.सवेरे उसके दोस्तों ने उसे आकर छुड़वा लिया.काफी जैक लगाने पर ही केन्द्र का मालिक माना,क्योंकि उसके छोड़ देने से उसकी कमाई पर असर पड़ता था.इस तरह नशेड़ियों के परिवार वालों से वह महीने के हिसाब से 1000-2000 रु भी ले लेता था.वही उसकी असली कमाई थी.पर समाज में रहना था तो कुछ रसूक बना कर भी चलने पड़ते थे. बहरहाल मुकेश को छुड़ कर जब ले जा रहे थे.तब.
मुकेश- सालो से पीटाई का बदला लेना पड़ेगा.पहले लुगाई को जा कर देख लू.घणी सयाणी बनती है.
दोस्त-हां.सालों को एक दिन बुला लेते है,फोन करके .
घर जाकर मुकेश ने बच्चों को धकेलते हुए अपनी पत्नी की जमकर पीटाई की तथा पीने के लिए घर से निकल लिया.एक पव्वा खरीदा और गटक गया.कुछ दिन बाद दोस्तों ने सलाह मिलाकर  नशा मुक्ति केन्द्र में फोन मिलाकर कहा कि उसका भाई मां-बाप को रोज तंग करता है.उसे ले जाइए.और पता पान्ने से थोड़ी-दूर की बस्ती किशनपुरा का दे दिया और घात लगाकर इंतजार करने लगे.तभी उधर से दो बाईक की लाइट दिखी.
एक ने कहा-लो आ गए,अपने-अपने डंडे तैयार कर लो.
उनके आते ही डंडों की बरसात हो गई और वो बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचा कर वहां से भाग निकले.अपनी बाइक वहीं पर छोड़ गए.उन्होंने उनकी बाइक को आग के हवाले कर दिया तथा वहां से निकल गए.इस घटना के बाद केन्द्र संचालकों ने निर्णय लिया कि रात के समय नहीं जाएंगे.एक दिन जसबीर घुमता-फिरता अहाते(शराब पीलाने की सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त दुकान या जगह) के पास से गुजर रहा था.सोचा क्यों न यहीं पर किसी शराबी को समझाया जाएं कि शराब पीना सेहत और परिवार दोनों के लिए बुरा है.इस विचार में वह अहाते के अंदर प्रवेश कर गया.सामने की मेज पर एक गिलास,थोड़ी बची-खुची दही,नमकीन का पैकेट लुढ़का हुआ पड़ा था और रॉयल स्टैग का अध्धा आधे से ज्यादा बचा हुआ था.गौर करने पर देखा कि वह तो उसका थोड़ बहुत परिचित बल्लू लैब(खून टैस्टकरने वाली) वाला था.वह भी उसके पास जाकर बैठकर गया.हाल-चाल पूछा.बल्लू ने तभी एक ओर गिलास देने के लिए आवाज लगाई.पर उसी समय जसबीर ने उसे रोका,कि वह तो नहीं पीता.
बल्लू-पीता नहीं तो फिर जीता कैसे है ?
जसबीर-नहीं यार,पीने से शरीर और पैसे दोनों का नुकसान होता है.मेरी मानो तो तुम भी छोड़ दो.
बल्लू-ले दे कर एक यही तो अैब करता हूं,इसे भी छुड़ा दो.आदमी में एकाध अैब तो होना ही चाहिए.
जसबीर-नहीं होना चाहिए.परिवार से बड़कर कुछ नहीं होता.
बल्लू-अरै,हॉफ मुरगा भी लाइए.तू भी खावैगा के.
जसबीर-नही .मैं नहीं खाता-पीता.
वह यह बात कह कर निकल गया.पर वह इधर कई  दिनों से लगाे पास आकर बैठने लगा.दोनों में अच्छी खासी दोस्ती भी बढ़ गई.बल्लू को भी खरचा न कराने वाले दोस्त से कोई परेशानी नहीं थी.
रोज इधर-उधर की बातें होती और दोनों चले जाते.एकदिन बल्लू ने दो गिलास मंगवा लिए.शुरु में तो जसबीर ने मना किया.पर थोड़ी देर में बोला.
जसबीर-यार बल्लू,मैं पी नहीं रहा हूं.बस चैक कर रहा हूं.ऐसा इसमें क्या है,जो तुम छोड़ नहीं सकते.
बल्लू-ठीक है.चैक करने के लिए पी ले.
दोनों ने चार-चार पैग लगाए.उसके बाद बल्लू ने मुरगा खाने के लिए पूछा.
बल्लू-मुरगा भी खा के देख ले.
जसबीर-हां यार,पी तो ली है.वो भी खा लेता हूं.(नशा चढ़ने लग गया था)
दोनों पी-खाकर घर निकल गए.पर यह सब अब रोज होने लगा.एकदिन तो दोनों ने नशा मुक्ति केन्द्र में ही शराब की बोतल मंगा ली.
जसबीर-अरे मनोज,देख अपनादोस्त आया है बल्लू.उसके लिए एक रॉयल स्टैग की बोतल और थोड़ी दही,आलू भुजिया,अर वे हरे चने भी ले आइयो.दो सोढे की बोतल और एक डिब्बी गोल्ड-फ्लैक छोटी.जा जल्दी आइयो.
बल्लू और जसबीर ने खूब जम कर पी.यह दौर रोज ही चलने लगा.

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

कन्या-महाविद्यालय का हॉस्टल

-मीनू ! मेरे पास आ ना.
-ले आ गई,यार.
-मीनू,कई बार तो लगता है,कि हमने कोई बहुत बड़ा पाप किया होगा.
-क्यो ? ऐसा क्यों लगता है तुझे ?
-अरे ! देख नहीं रही.बचपन से ही लड़कियों के गुरुकल में फंस गए.जेल कहो जेल.अब फिर आए भी तो कहां.इस कन्या-महाविद्यालय में .एक तो घर से दूर.दूसरा लड़को से दूर.यहां रहते-रहते कई बार तो ऐसा लगता है कि इस दुनिया में बस लड़कियां ही रह गई है.लड़के तो रहे ही नहीं.
उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मीनू उस से लिपट गई.
-तुझे मेरे रहते भी क्या लड़को की जरुरत महसूस होती है.क्या मैं तुझे सही से प्यार नहीं कर पाती.फिर तू क्यों ऐसे बात कर रही है.
-मैं सोच रही थी कि अगर हमारे पास ऑप्सन होता तो मतलब हम भी लड़कों से मिल पाते,बातचीत होती.तो क्या हम फिर भी आपस में ही प्यार करती.नहीं बिल्कुल नहीं.तुम भी मानती हो मेरी इस बात को.
-हां,ये तो है,पर कर भी क्या सकते थे.मां-बाप को तो यही सही लगता था,कि यहां रहेंगी तो लड़कों से सुरक्षित रहेंगी और हमारी इज्जत भी बनी रहेगी.बता उनकी इज्जत के लिए पीसना हमें पड़ रहा है.
उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए.
-और क्या पता लड़कों के साथ पढ़ते तो शायद इतना मोह भी नहीं रहता लड़कों के प्रति.दूर रहने से आकर्षण ज्यादा हिलौरे मारता है.यहां तो ऐसा लगता है जेल में पढ़ने के लिए आए है.पढ़ लिख कर भी क्या ही कर लेंगे.कर दी जाएगी किसी अनजाने से ही हमारी शादी.शादी क्या सौप दिया जाएगा हमारा तन.किसी को.पहली 
ही रात को हो जाएगा हमारा बलात्कार.जिसे हनीमून कहते है.न तो जानते-पहचानते है उस को.और वो भी पूरे अधिकार के साथ मनाए गा हनीमून.हम तो बस बेबस ही रह जाएगी.बेबसी ही लगता है जीवन है.जीवन ओर कुछ नहीं है.कितने साल लग जाते है एक-दूसरे को समझने में.पर घर वाले तो समझौतों को ही समझना 
समझ बैठे है.बेबसी और समझौतों से भरी दुनिया से दूर तेरी बांहों में एक शुकुन का पल नसीब होता है.पर वो छीन लिया जाएगा.सारी उमर तो ऐसे रह नहीं सकते.खैर अपना तो नसीब ही खराब है.
दोनों आँखें बंद करके लिपट कर अपने में खो गई.

बुधवार, 25 सितंबर 2013

मनुष्य-जोनि में जन्म


रामफल मलिक, जो कि अपनी जमीन को लेकर चल रहे केस के सिलसिेले में कोर्ट लगातार आया-जाया करता था.मिलने पर उसने बताया कि-- कोर्ट जाने पर लगता है कि चील,कव्वें और गिद्धों के बीच आ फंसा हूं.हर कोई पैसा के लिए मुंह फाड़ने लगता है.ऐसा लगता है , मानो लड़की की शादी का समय चल रहा हो,और रिश्तेदारों की मान करने में लगा हूं.मान भी कह-कह करवाई जा रही हो.किसी को 200,तो किसी 500,कोई 100 पर ही अटक जाता है,
-अच्छा !
-पर वकील महाशय तो मानो बटेऊ(जमाई) की तरह 1100 या 2100 से कम के लिए तैयार ही नहीं होता.उसका मुंशी भी जमाई के साथ आए दोस्तों की तरह बरताव करता है,जैसे उसका भी हक बनता है.लगता है जितने की जमीन है,उससे ज्यादा पैसा तो इन भेड़ियों को खिला दूंगा.
-फिर तुम देते ही क्यों हो ?
-पर बेटे है कि इसे अपनी इज्जत से जोड़कर देख रहे है.अब भला इज्जत को कैसे पैसे से तोलू .रोज सुनता हूं कि कलजुग आ गया है,इसमें चील और गिद्ध धीरे-धीरे मर रहे है और एक दिन देखने को भी नहीं मिलेंगे,पर लगता है उनका जन्म सदकर्मों की वजह से मनुष्य-जोनि में हो रहा है.पिछले जन्म के सत-कर्मों की वजह से ही वे सब वकील,मुंशी,क्लर्क बन गए है.
-फिर अब क्यो करोगे ?
-   हे भगवान ! अगले जन्म में मुझे  या मेरी औलाद को कोई एक पद दे देना.तुम्हारा बड़ा अहसान होगा.इस जन्म में तो आपने कोई अहसान किया नहीं,सारी कसर अगले जन्म में निकाल देना.अर उस वेद लंबरदार से भी हिसाब-किताब सही से करना.घणी मौज ली है,उसनै इस जन्म मै. 

सोमवार, 23 सितंबर 2013

जन्मदिन और कविता


हम दोनों के संबंधों के बीच,
जो सबसे अहम और खास है,
वो है—
कविता.
कविता से ही हमारे संबंधों की शुरुआत होती है,
अर्थात् तुम्हारा एम.ए. में कविता ऑप्सन लेना,
मेरा तुम्हे वैंलेनटाइंन पर कविता लिख कर देना,
पहली बार तुमने मेरे लिए कविता लिखी,
जब मैं किसी और से प्यार करता था तब,
जब मैं अकेला-तनहा था तब तुमने मुझे लिखी थी,
कविता,
वह कविता और प्रेम-पत्र का सांझा रुप था,
जो तुमने बड़े ही जतन से मुझे सौंपा था,
वो प्रेम-पत्र रूपी कविता आज भी मैंने रखी है,
सहेज-कर.
तुम से प्रेम करते जाना,कविता-दर-कविता लिखते जाना,
मैंने सुहागरात पर भी तुम्हे कविता ही भेंट की दी,
हर बार जन्मदिन पर भी कविता ही देता हूं.
कितना अजीब-सुखद रिश्ता है हमारे बीच कविता का.
बुरे समय की परछाइयों के बीच जिंदा रखा है हमें हमारी कविताओं ने,
उम्मीद और तमाम सपनों के बीज बोएं रखे हमेशा कविताओं ने,
कितनी बार अकेलापन महसूस करते हुए मैंने पढ़ी है तुम्हारी कविताएं,
जिनमें हर वो लम्हा जी उठता था,जो हमने साथ-साथ जिए थे.
कविता हमारे लिए महज हिन्दी की एक विधा मात्र नहीं है,
बल्कि उससे बढ़कर बहुत कुछ है हमारे लिए कविता,
कविता जीवन है,सार है,
हमारे बीच अदृश्य-शक्ति की तरह है,
जो हमें हमेशा ऊर्जा और प्रेरणा देती रहती है,
भले ही ये सारी बातें लोगों को हवाबाजी लगती हो,
पर हमें जीवन जीने का ढंग कविता ने ही दिया है,
इस लिए हम कृतज्ञ है,
कविता के प्रति.
तोहफे लेने-देने के दौर में,
हमे आज भी कविता से बड़ा तौहफा कुछ नजर नहीं आता.
अपनी बात कहने-सुनने का इससे उपयुक्त,
कोई माध्यम नहीं लगता.
 ---नवीन रमन---
( नोट--- पूनम, तुम्हे जन्मदिन की हार्दिक बधाई. आशा करता हूं तुम्हे अपने इस इक्तीसवें जन्मदिन पर लिखी मेरी ये तीन कविताएं पसंद आएंगी.यह जन्मदिन इस लिए भी अपनी खास अहमीयत रखता हैं,क्योंकि शादी के बाद यह तुम्हारा पहला जन्मदिन है.तुम रोज मुझ से पूछती रहती थी कि मैं क्या-क्या पलान किया है,तुम्हारे जन्मदिन के लिए.तुम्हे तो पता ही है कि मैं पलान-वलान करने में अपने को असमर्थ ही पाता हूं.यह मेरी सफाई नहीं है,बल्कि असमर्थता ही है.फिर भी अपनी तरफ से मैं ने तुम्हारे जन्मदिन को खास बनाने का भरसक प्रयास किया है.बाकी तुम को कैसा लगता है,इस का मुझे इंतजार रहेगा.तुम्हारा ओ ! नवीन.)
17 सितंबर 2013

(ये तीनों कविताएं मैं ने पहली बार सीधी कंप्यूटर पर ही लिखी है,इससे पहले मैं ने सारी कविताएं तुम्हे कागज पर लिख कर दी थी.इस मायने में भी ये कविताएं अलग और विशिष्ट है,मेरी नजर में.मेरे इस प्रेम-भरे नजराने को तह-दिल से स्वीकार करना.इसी के साथ एक बार फिर, जन्मदिन मुबारक हो.) 

चॉकलेट


चॉकलेट भी कितनी अहम हो जाती है,
अक्सर हमारे बीच,
कई बार सोचता हूं कि,
जिस तरह चॉकलेट घूलती है धीरे-धीरे,
उसी तरह संबंध भी घुलते है धीरे-धीरे,
और स्वाद बढ़ता ही जाता है दोनों का.
और अधिक जानने-समझने लगते है एक-दूसरे को,
यूं तो सारी उमर लग जाती है,
जानने-समझने में,
शायद हम अपने-पन के साथ स्वीकार करने लग जाते है एक-दूसरे के अस्तित्व को,
शायद यहीं प्यार है,रिश्ता है,जीवन है, न जाने क्या-क्या हैं.
मीठास-भरी इस जिन्दगी में तुम्हारे होने का अहसास,
ही मुझे गुदगुदाने लगता है.
तुम्हारे साथ बिताएं हर पल में,
एक अजीब-सी महक है,
जो हर पल,हर घड़ी,
मुझे रोमांचित करती रहती है.
बस यूं ही खुशी-खुशी हर पल बीतता जाएंगा,
इसी उम्मीद और सपनों में...
तुम्हारा, ओ !  नवीन, कहना भी कितना अलग अहसास देता है,
ये मैं तुम्हे बता नहीं सकता.
शायद हर चीज बयां नहीं की जा सकती .
पर इसका अहसास तुम्हे जरूर हो गया होगा,
कि तुम मेरे जीवन में क्या हो.
बहुत-बहुत प्यार के साथ,
तुम्हे जन्म-दिन मुबारक हो.
-------तुम्हारा अपना नवीन---

17 सितंबर 2013 (समालखा)