-मीनू ! मेरे पास आ ना.
-ले आ गई,यार.
-मीनू,कई बार तो लगता है,कि हमने कोई बहुत बड़ा पाप किया होगा.
-क्यो ? ऐसा क्यों लगता है तुझे ?
-अरे ! देख नहीं रही.बचपन से ही लड़कियों के गुरुकल में फंस गए.जेल कहो जेल.अब फिर आए भी तो कहां.इस कन्या-महाविद्यालय में .एक तो घर से दूर.दूसरा लड़को से दूर.यहां रहते-रहते कई बार तो ऐसा लगता है कि इस दुनिया में बस लड़कियां ही रह गई है.लड़के तो रहे ही नहीं.
उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि मीनू उस से लिपट गई.
-तुझे मेरे रहते भी क्या लड़को की जरुरत महसूस होती है.क्या मैं तुझे सही से प्यार नहीं कर पाती.फिर तू क्यों ऐसे बात कर रही है.
-मैं सोच रही थी कि अगर हमारे पास ऑप्सन होता तो मतलब हम भी लड़कों से मिल पाते,बातचीत होती.तो क्या हम फिर भी आपस में ही प्यार करती.नहीं बिल्कुल नहीं.तुम भी मानती हो मेरी इस बात को.
-हां,ये तो है,पर कर भी क्या सकते थे.मां-बाप को तो यही सही लगता था,कि यहां रहेंगी तो लड़कों से सुरक्षित रहेंगी और हमारी इज्जत भी बनी रहेगी.बता उनकी इज्जत के लिए पीसना हमें पड़ रहा है.
उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए.
-और क्या पता लड़कों के साथ पढ़ते तो शायद इतना मोह भी नहीं रहता लड़कों के प्रति.दूर रहने से आकर्षण ज्यादा हिलौरे मारता है.यहां तो ऐसा लगता है जेल में पढ़ने के लिए आए है.पढ़ लिख कर भी क्या ही कर लेंगे.कर दी जाएगी किसी अनजाने से ही हमारी शादी.शादी क्या सौप दिया जाएगा हमारा तन.किसी को.पहली
ही रात को हो जाएगा हमारा बलात्कार.जिसे हनीमून कहते है.न तो जानते-पहचानते है उस को.और वो भी पूरे अधिकार के साथ मनाए गा हनीमून.हम तो बस बेबस ही रह जाएगी.बेबसी ही लगता है जीवन है.जीवन ओर कुछ नहीं है.कितने साल लग जाते है एक-दूसरे को समझने में.पर घर वाले तो समझौतों को ही समझना
समझ बैठे है.बेबसी और समझौतों से भरी दुनिया से दूर तेरी बांहों में एक शुकुन का पल नसीब होता है.पर वो छीन लिया जाएगा.सारी उमर तो ऐसे रह नहीं सकते.खैर अपना तो नसीब ही खराब है.
दोनों आँखें बंद करके लिपट कर अपने में खो गई.
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