शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

टी-प्रेक(टीचर प्रेरक कथा)मां कह दे



कुछ दिनों पहले की बात है ।टीचर ने अपने लडके का ब्याह किया ।और शादी के अगले दिन बाद की बात है ।लाइट भागी हुई थी । टीचर की पत्नी को गुजरे कई साल हो गये थे ।बेचारा अकेला जीवन जैसे-कैसे बस काट ही रहा था ।उसके दुःख दर्द सुनने वाला कोई नहीं था ।टीचर होने की मरोड़ में अड़ोसी-पड़ोसी से भी बात नहीं करता था ।हर रात उस पर भारी पडती थी ।जिस कारण से वह चिडचिडा भी हो गया और उसकी सहन शक्ति भी काफी कमजोर हो गयी थी ।बस बच-बचाकर उसने अपनी सेहत ठीक रखी हुई थी । टीचर बगड़(आंगन) में खाट पर मच्छर दानी लगाकर सोने की तैयारी कर रहा था ।कि उसे चौबारे से लडके की आवाज सुनाई दी ।लाइट न होने के कारण आवाज साफ-साफ़ सुनाई दे रही थी ।लड़का अपनी लुगाई को कह रहा था कि तू इतनी सुथरी है अक पता नी के कह दूँ तन्नै ।ये बात जब उसने पांच -छे बार कह दी तो टीचर से रुका नहीं गया और बोल दिया कि बेटा तूं इसनै मां कह दे अर निच्चै आ ज्या ।या खाट अर या माच्छर दानी तेरी बाट देखण लाग री सै ।
हरयाणवी चुटकले पर आधारित

टी-प्रेक (टीचर प्रेरक कथा)-कामचोर बिहारी

टी-प्रेक (टीचर प्रेरक कथा)-कामचोर बिहारी 
टीचर की गाढ़ी कमाई प्रोपर्टी से शुरू हुई,वरना तनखां तो हमेशा पतली ही रही ।जितनी तेजी से आती उससे अधिक तेजी से फीसल जाती ।

टी-प्रेक (टीचर प्रेरक कथा)-दहेज एक अभिशाप है



एक बार अक्षर अपने दोस्त के साथ उसके स्कूल में चला गया ।वहाँ जाने पर देखा मजमा जमा हुवा था ।स्टेज सजाई जा रही थी ।मान्य-गणमान्य स्टेज पर सज धज कर विराजमान थे ।प्रतियोगिता की सारी तैयारियां हो चुकी थी ।विषय बड़े -बड़े अक्षरों में टांग दिया गया था ।कई स्कूलों के बच्चें अपने निबन्धों को रट रहे थे ।सबके चहरों पर डर और जितने की आश तो थी ही पसीने की बुँदे भी रिस रही थी ।एक तरफ टीचर अपना-अपना राग-विराग अलाप रहे थे ।दर्शक के रूप में बच्चों का बड़ा जमावड़ा जबरदस्ती बैठा रखा था ।दहेज एक अभिशाप है-विषय पर एक से एक झनाटे दार ललित निबन्ध पढ़ा गया ।बीच-बीच में तालियों की गूंज पूरे स्कूल में मलेरिये के छिडकाव की तरह फ़ैल गयी ।विजेता घोषित कर दिया गया ।बारी -बारी से लोग-बाग़ भी ज्ञान देने लगे ।वह ऐसा मोका क्यों जाने देता ।स्टेज पर जाते ही उसने कहा कि क्या कोई इस सभा में ऐसा टीचर है जिसने शादी में कुछ न लिया हो ।उस से पहले सारा माहोल चुप हो गया ।वह भी चुपके से कह कर निकल लिया ।जाते वक्त उससे एक ने परिचय माँगा ।खेती बाड़ी करता हूँ कह कर निकल लिया ।चाल-ढाल और चेहरे -मोहरे से कभी पढने-लिखने वाला लगा नहीं ।इसलिए यहीं बताता है अक्सर ।
बाद में पता चला स्कूल प्रशासन उसे तलाश रहा था जो उस जैसे बदतमीज आदमी को वहाँ सभ्य समाज में लेकर आया था ।उसकी बात सुनकर उसे यही लगा कि उसने दिल्ली विश्व-विद्यालय की नाक बचा ली ।वरना लोग कहते बेकार यूनिवर्सिटी है ।तमीज तक नहीं सिखाती कि कहाँ पर क्या कहना चाहिए और क्या नहीं कहना चाहिए ।हो सकता था बत्रा जी इस बात का संज्ञान लेते हुए विभाग पर जांच बिठवा देते ।विभाग को खाम-खां लेने-देने पड़ जाते ।

सुनील दत्त के जन्मदिवस पर (8 अगस्त 2014)

Photo: सुनील दत्त के जन्मदिवस पर
अजीज मित्र सुनील दत्त को जन्मदिवस की ढेरों बधाइयां एवं शुभकामनाएं
दोस्त,तुम कितने अलग-थलग हो सबसे,
खासकर साहित्य पढ़ने-पढ़ाने वालों में,
बहुत कम लोग तुम्हें समझते है,
नहीं तो अक्सर लोग तुम से चिड़ते ही हैं,
पता नहीं किस मिट्टी के बने हो तुम,
दुनिया जहान के दुःख तुम कितनी खामोशी से
सहन कर जाते हो,
तुम जैसा व्यक्तित्व कम-से-कम हरियाणा में मुझे 
नहीं मिला कोई,
जो साहित्य केवल पढ़ता नहीं,जीता भी हो,
और जिसे पढ़ने की भूख पेट की भूख से ज्यादा हो,
जो अक्सर कम पैसे होने के कारण दिल्ली के संडे बाजार में
अक्सर किताबें खोजता मिलेगा,
या राजघाट के किनारे किसी पेड़ की छाव में
दुनियादारी की कमीनगियों से दूर
गांधी से बातें करता हुआ मिलेगा ।
अक्सर लोग पी कर रो देते है,
तुम भी रो देते हो,
पर तुम औरों से अलग हो,
क्योंकि तुम अपने दु-खों के कारण नहीं
बल्कि किसी और के दुःख देखकर रोते हो,
देखी है मैंने तुम्हारी वो पीड़ा,
जब तुमने किसी शव को चूहे से
कुतरते देखा था
और दहाड़े मार-मारकर रोएं थे तुम
सबने तुम्हे पागल समझा था ।
मधुशाला की कितनी ही पंक्तियां तुम अक्कसर
गुनगुनाने लगते हो ।
बहुत ही भावुक किस्म के इंसान हो,
पर अक्सर लोग तुम्हारी सहजता को तुम्हारी
कमजोरी मानकर तुम्हें ठग लेते है
और अपने चतुर  होने का वो लोग ढिंढोरा पीटते है ।
मुझे बहुत अच्छा लगता है तुम्हारे साथ रहना
समय बिताना
कितने कम समय में हम इतने अच्छे दोस्त बन गए थे कि
लोगों को लगता था कि हम सगे भाई है,
पर उनको भी सही ही लगता था,
हम दोनों की मां भले ही अलग-अलग हो,
पर साहित्य और संवेदना ने हम दोनों को सींचा है,
दोस्त,बस एक शिकायत रहती है तुमसे
इतना पढ़ते हो
पर लिखते नहीं हो,
लिखा करो दोस्त
बहुत बड़ा खजाना है तुम्हारे पास दुनियादारी का
उसे सौंप जाओ आने वाली पीढ़ियों को
ताकि सनद रहे
कि जिंदादिली केवल किताबी बातें-भर नहीं है,
उन्हें शिद्दत से जीया भी जा सकता है ।
बाकी की बातें फिर कभी...
दोस्त,तुम कितने अलग-थलग हो सबसे,


खासकर साहित्य पढ़ने-पढ़ाने वालों में,


बहुत कम लोग तुम्हें समझते है,


नहीं तो अक्सर लोग तुम से चिड़ते ही हैं,

पता नहीं किस मिट्टी के बने हो तुम,

दुनिया जहान के दुःख तुम कितनी खामोशी से

सहन कर जाते हो,

तुम जैसा व्यक्तित्व कम-से-कम हरियाणा में मुझे

नहीं मिला कोई,

जो साहित्य केवल पढ़ता नहीं,जीता भी हो,

और जिसे पढ़ने की भूख पेट की भूख से ज्यादा हो,

जो अक्सर कम पैसे होने के कारण दिल्ली के संडे बाजार में

अक्सर किताबें खोजता मिलेगा,

या राजघाट के किनारे किसी पेड़ की छाव में

दुनियादारी की कमीनगियों से दूर

गांधी से बातें करता हुआ मिलेगा ।

अक्सर लोग पी कर रो देते है,

तुम भी रो देते हो,

पर तुम औरों से अलग हो,

क्योंकि तुम अपने दु-खों के कारण नहीं

बल्कि किसी और के दुःख देखकर रोते हो,

देखी है मैंने तुम्हारी वो पीड़ा,

जब तुमने किसी शव को चूहे से

कुतरते देखा था

और दहाड़े मार-मारकर रोएं थे तुम

सबने तुम्हे पागल समझा था ।

मधुशाला की कितनी ही पंक्तियां तुम अक्कसर

गुनगुनाने लगते हो ।

बहुत ही भावुक किस्म के इंसान हो,

पर अक्सर लोग तुम्हारी सहजता को तुम्हारी

कमजोरी मानकर तुम्हें ठग लेते है

और अपने चतुर होने का वो लोग ढिंढोरा पीटते है ।

मुझे बहुत अच्छा लगता है तुम्हारे साथ रहना

समय बिताना

कितने कम समय में हम इतने अच्छे दोस्त बन गए थे कि

लोगों को लगता था कि हम सगे भाई है,

पर उनको भी सही ही लगता था,

हम दोनों की मां भले ही अलग-अलग हो,

पर साहित्य और संवेदना ने हम दोनों को सींचा है,

दोस्त,बस एक शिकायत रहती है तुमसे

इतना पढ़ते हो

पर लिखते नहीं हो,

लिखा करो दोस्त

बहुत बड़ा खजाना है तुम्हारे पास दुनियादारी का

उसे सौंप जाओ आने वाली पीढ़ियों को

ताकि सनद रहे

कि जिंदादिली केवल किताबी बातें-भर नहीं है,

उन्हें शिद्दत से जीया भी जा सकता है ।

बाकी की बातें फिर कभी...