विजय घणघस,
हरियाणा के पानीपत और करनाल जिले में एकमात्र जनसत्ता अखबार के पाठक है(जहां तक मेरी जानकारी है)क्योंकि पानीपत या समालखा में कोई विक्रेता इस अखबार को नहीं मंगवाता,इसलिए यहां पर पाठक होने का सवाल ही नहीं उठता.समालखा के ब्रॉकर ने तो साफ मना ही कर दिया कि एक प्रति कैसे मंगवाऊ और जब पानीपत के ब्रॉकरों से बातचीत हुई तो-उनका कहना था कि जब पढ़ने वाले ही नहीं है,तो किस के लिए मंगवाएं. करनाल के एक दोस्त के द्वारा पता चला कि जनसत्ता-अखबार करनाल में भी नहीं आता.मुझे बहुत हैरानी हुई यह जानकर कि करनाल में भी अगर यह अखबार नहीं आता होगा,तो "पाश" की लाइब्रेरी भी फिर सुनी ही पड़ी रहती होगी.और पाश की वो लाइनें याद आने लगी-"सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना" सपनों के बिना समाज धीरे-धीरे मरने लगता है,जिसका खामियाजा साहित्य भुगतता है, क्योंकि साहित्य के बिना जीवन अधूरा है.और इसी की आहट इन सब में मुझे सुनाई दे रही है. वैसे करनाल में शायद यह अखबार आता ही होगा,मन मानने को तैयार नहीं है.फिर भी उस दोस्त की बातों पर यकीन करूं तो बहुत अजीबों-गरीब लगता है . खैर करनाल को छोड़ भी दें और बात केवल पानीपत करें तो-- पानीपत में चार कॉलेज है,जिनमें प्रत्येक कॉलेज में हिन्दी के कम से कम पांच-पांच हिन्दी प्रवक्ता तो जरूर है.क्या उनमें से कोई भी हिन्दी के इस सबसे ज्यादा साहित्यिक-स्पेस देने वाले अखबार को नहीं पढ़ता होगा. पढ़ता नहीं होगा, तभी तो कोई मंगवाता नहीं है. अन्यथा घरोंड़ा जैसे कस्बे का ब्रॉकर जब विजय के कहने पर एक प्रति मंगवा सकता है,तो पानीपत में तो बहुत सारे खरीदार होने चाहिए थे.पानीपत के प्रवक्ताओं में से कईं तो साहित्यकार भी है,तथा कई आलोचक होने का दंभ भी भरते है.तथा हर दो-चार महीने में अखबार(जागरण-भास्कर) के जरिए ही पता चलता है कि कवि-सम्मेलन संपन्न हुआ.धमाके-दार कविता पाठ हुआ तथा सत्ता, राजनीति पर करारे व्यंग्य किए गए आदि-आदि.इन्हीं प्रवक्ताओं में से ज्यादातर का मानना है कि इस अखबार की रद्दी से तो एक महीने का अखबारी खर्च भी नहीं निकल पाता..
यह सवाल किसी एक अखबार की उपेक्षा भर का नहीं है,बल्कि इसके निहितार्थ-स्वार्थ दूर तलक जाते है. पहला यह कि क्या हिन्दी-साहित्य केवल धन कमाने के लिए ही पढ़ा गया था,अर्थात नौकरी मिलते ही पढ़ने-लिखने से कोई वास्ता ही नहीं रहा.दूसरा साहित्यिक-संवेदना शून्य का बोलबाला,जो इन सब में साफ झलकता है. यदि शिक्षक ही संवेदना-शून्य होगा,तो समाज को एक बेहतर दिशा कैसे दे पाएंगा.
सबसे ज्यादा नुकसान इससे हिन्दी-समाज को होता है,क्योंकि इनकी निष्क्रियता-कामचोरिता हिन्दी-समाज के प्रति हेय नजरिए को बढ़ावे देने में अहम भूमिका का निर्वाह करती है.क्या शिक्षक का काम केवल पाठ्यक्रम को निपटा देना भर होता है(अक्सर निपटा देना ही होता है).या इससे आगे बदलते परिवेश की समझ के लिए निरंतर अपना परिष्कार पढ़-लिख कर ही किया जा सकता है.जागरूक और सचेत नागरिक की भूमिका का निर्वाह ईमानदारी के बगैर संभव नहीं होता,परंतु प्रवक्ता साहेब नौकरी मिलने को अंतिम सत्य मानकर आरामदायक जीवन-यापन करने में लग जाते है. उन्हें किसी अखबार या साहित्यिक-पत्रिका से कोई लेना-देना नहीं रहता.इसी कारण वो किसी विद्यार्थी को भी इन अखबारों एंव पत्रिकाओं के प्रति कोई जागरूकता फैलाने का काम नहीं करते.जबकि विद्यार्थियों के प्रति शिकायतों का लंबा-चौड़ा चिट्ठा इन की बातों में साफ झलकता हैं.
(विजय घणघस घरोंड़ा के निकट खोरा-खेड़ी गांव,जिला करनाल के निवासी है,मूलत: किसान परिवार से होने के कारण इनकी प्राथमिकता भी किसानी ही है,पर इसके साथ-साथ पढ़ने-लिखने का भी शौक रखते है,इसी कारण बहुत कुछ तो इंटरनैट के जरिए ही पढ़ते-लिखते है,इसी क्रम में जनसत्ता-अखबार में रूचि जागी और उसे अपने ब्रॉकर से कह-सुन कर मंगवाना शुरू किया. कई बार अखबार अगले दिन भी पहुंचता है, फिर भी इस बात से संतुष्ट है कि पहुंच तो जाता है.कहते है कि-साहित्य कभी बूढ़ा नहीं होता.इस अखबार के समाचार भी इन्हें साहित्यिक लगते है.विजय की इस साहित्यिक-लगन को सलाम और इसी उम्मीद में की कहीं से तो शुरुआत होनी ही है,विजय से ही सही.)
हरियाणा के पानीपत और करनाल जिले में एकमात्र जनसत्ता अखबार के पाठक है(जहां तक मेरी जानकारी है)क्योंकि पानीपत या समालखा में कोई विक्रेता इस अखबार को नहीं मंगवाता,इसलिए यहां पर पाठक होने का सवाल ही नहीं उठता.समालखा के ब्रॉकर ने तो साफ मना ही कर दिया कि एक प्रति कैसे मंगवाऊ और जब पानीपत के ब्रॉकरों से बातचीत हुई तो-उनका कहना था कि जब पढ़ने वाले ही नहीं है,तो किस के लिए मंगवाएं. करनाल के एक दोस्त के द्वारा पता चला कि जनसत्ता-अखबार करनाल में भी नहीं आता.मुझे बहुत हैरानी हुई यह जानकर कि करनाल में भी अगर यह अखबार नहीं आता होगा,तो "पाश" की लाइब्रेरी भी फिर सुनी ही पड़ी रहती होगी.और पाश की वो लाइनें याद आने लगी-"सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना" सपनों के बिना समाज धीरे-धीरे मरने लगता है,जिसका खामियाजा साहित्य भुगतता है, क्योंकि साहित्य के बिना जीवन अधूरा है.और इसी की आहट इन सब में मुझे सुनाई दे रही है. वैसे करनाल में शायद यह अखबार आता ही होगा,मन मानने को तैयार नहीं है.फिर भी उस दोस्त की बातों पर यकीन करूं तो बहुत अजीबों-गरीब लगता है . खैर करनाल को छोड़ भी दें और बात केवल पानीपत करें तो-- पानीपत में चार कॉलेज है,जिनमें प्रत्येक कॉलेज में हिन्दी के कम से कम पांच-पांच हिन्दी प्रवक्ता तो जरूर है.क्या उनमें से कोई भी हिन्दी के इस सबसे ज्यादा साहित्यिक-स्पेस देने वाले अखबार को नहीं पढ़ता होगा. पढ़ता नहीं होगा, तभी तो कोई मंगवाता नहीं है. अन्यथा घरोंड़ा जैसे कस्बे का ब्रॉकर जब विजय के कहने पर एक प्रति मंगवा सकता है,तो पानीपत में तो बहुत सारे खरीदार होने चाहिए थे.पानीपत के प्रवक्ताओं में से कईं तो साहित्यकार भी है,तथा कई आलोचक होने का दंभ भी भरते है.तथा हर दो-चार महीने में अखबार(जागरण-भास्कर) के जरिए ही पता चलता है कि कवि-सम्मेलन संपन्न हुआ.धमाके-दार कविता पाठ हुआ तथा सत्ता, राजनीति पर करारे व्यंग्य किए गए आदि-आदि.इन्हीं प्रवक्ताओं में से ज्यादातर का मानना है कि इस अखबार की रद्दी से तो एक महीने का अखबारी खर्च भी नहीं निकल पाता..
यह सवाल किसी एक अखबार की उपेक्षा भर का नहीं है,बल्कि इसके निहितार्थ-स्वार्थ दूर तलक जाते है. पहला यह कि क्या हिन्दी-साहित्य केवल धन कमाने के लिए ही पढ़ा गया था,अर्थात नौकरी मिलते ही पढ़ने-लिखने से कोई वास्ता ही नहीं रहा.दूसरा साहित्यिक-संवेदना शून्य का बोलबाला,जो इन सब में साफ झलकता है. यदि शिक्षक ही संवेदना-शून्य होगा,तो समाज को एक बेहतर दिशा कैसे दे पाएंगा.
सबसे ज्यादा नुकसान इससे हिन्दी-समाज को होता है,क्योंकि इनकी निष्क्रियता-कामचोरिता हिन्दी-समाज के प्रति हेय नजरिए को बढ़ावे देने में अहम भूमिका का निर्वाह करती है.क्या शिक्षक का काम केवल पाठ्यक्रम को निपटा देना भर होता है(अक्सर निपटा देना ही होता है).या इससे आगे बदलते परिवेश की समझ के लिए निरंतर अपना परिष्कार पढ़-लिख कर ही किया जा सकता है.जागरूक और सचेत नागरिक की भूमिका का निर्वाह ईमानदारी के बगैर संभव नहीं होता,परंतु प्रवक्ता साहेब नौकरी मिलने को अंतिम सत्य मानकर आरामदायक जीवन-यापन करने में लग जाते है. उन्हें किसी अखबार या साहित्यिक-पत्रिका से कोई लेना-देना नहीं रहता.इसी कारण वो किसी विद्यार्थी को भी इन अखबारों एंव पत्रिकाओं के प्रति कोई जागरूकता फैलाने का काम नहीं करते.जबकि विद्यार्थियों के प्रति शिकायतों का लंबा-चौड़ा चिट्ठा इन की बातों में साफ झलकता हैं.
(विजय घणघस घरोंड़ा के निकट खोरा-खेड़ी गांव,जिला करनाल के निवासी है,मूलत: किसान परिवार से होने के कारण इनकी प्राथमिकता भी किसानी ही है,पर इसके साथ-साथ पढ़ने-लिखने का भी शौक रखते है,इसी कारण बहुत कुछ तो इंटरनैट के जरिए ही पढ़ते-लिखते है,इसी क्रम में जनसत्ता-अखबार में रूचि जागी और उसे अपने ब्रॉकर से कह-सुन कर मंगवाना शुरू किया. कई बार अखबार अगले दिन भी पहुंचता है, फिर भी इस बात से संतुष्ट है कि पहुंच तो जाता है.कहते है कि-साहित्य कभी बूढ़ा नहीं होता.इस अखबार के समाचार भी इन्हें साहित्यिक लगते है.विजय की इस साहित्यिक-लगन को सलाम और इसी उम्मीद में की कहीं से तो शुरुआत होनी ही है,विजय से ही सही.)