सोमवार, 19 अगस्त 2013

जनसत्ता-अखबार का एकमात्र-पाठक

विजय  घणघस,
हरियाणा के पानीपत और करनाल जिले में एकमात्र जनसत्ता अखबार के पाठक है(जहां तक मेरी जानकारी है)क्योंकि पानीपत या समालखा में कोई विक्रेता इस अखबार को नहीं मंगवाता,इसलिए यहां पर पाठक होने का सवाल ही नहीं उठता.समालखा के ब्रॉकर ने तो साफ मना ही कर दिया कि एक प्रति कैसे मंगवाऊ और  जब पानीपत  के ब्रॉकरों से बातचीत हुई तो-उनका कहना था कि जब पढ़ने वाले ही नहीं है,तो किस के लिए मंगवाएं. करनाल के एक दोस्त के द्वारा पता चला कि जनसत्ता-अखबार करनाल में भी नहीं आता.मुझे बहुत हैरानी हुई यह जानकर कि करनाल में भी अगर यह अखबार नहीं आता होगा,तो "पाश" की लाइब्रेरी भी फिर सुनी ही पड़ी रहती होगी.और पाश की वो लाइनें याद आने लगी-"सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना" सपनों के बिना समाज धीरे-धीरे मरने लगता है,जिसका खामियाजा साहित्य भुगतता है, क्योंकि  साहित्य के बिना जीवन अधूरा है.और इसी की आहट इन सब में मुझे सुनाई दे रही है. वैसे करनाल में शायद यह अखबार आता ही होगा,मन मानने को तैयार नहीं है.फिर भी उस दोस्त की बातों पर यकीन करूं तो बहुत अजीबों-गरीब लगता है . खैर करनाल को छोड़ भी दें और बात केवल पानीपत करें तो-- पानीपत में चार कॉलेज है,जिनमें प्रत्येक कॉलेज में हिन्दी के कम से कम पांच-पांच हिन्दी प्रवक्ता तो जरूर है.क्या उनमें से कोई भी हिन्दी के इस सबसे ज्यादा   साहित्यिक-स्पेस देने वाले अखबार को नहीं   पढ़ता होगा. पढ़ता नहीं होगा, तभी तो कोई मंगवाता   नहीं है. अन्यथा घरोंड़ा जैसे कस्बे का ब्रॉकर जब विजय के कहने पर एक प्रति   मंगवा   सकता है,तो पानीपत में तो बहुत सारे खरीदार होने चाहिए थे.पानीपत के प्रवक्ताओं में से कईं तो साहित्यकार भी है,तथा कई आलोचक होने का दंभ भी भरते है.तथा हर दो-चार महीने में अखबार(जागरण-भास्कर) के जरिए ही पता चलता है कि कवि-सम्मेलन संपन्न हुआ.धमाके-दार कविता पाठ हुआ तथा सत्ता, राजनीति   पर करारे व्यंग्य किए गए आदि-आदि.इन्हीं प्रवक्ताओं में से ज्यादातर का मानना है कि इस अखबार की रद्दी से तो एक महीने का अखबारी खर्च भी नहीं निकल पाता..
    यह सवाल किसी एक अखबार की उपेक्षा भर का नहीं है,बल्कि इसके निहितार्थ-स्वार्थ दूर तलक जाते है. पहला यह कि क्या हिन्दी-साहित्य केवल धन कमाने के लिए ही पढ़ा गया था,अर्थात नौकरी मिलते ही पढ़ने-लिखने से कोई वास्ता ही नहीं रहा.दूसरा साहित्यिक-संवेदना शून्य का बोलबाला,जो इन सब में साफ झलकता है. यदि शिक्षक ही संवेदना-शून्य होगा,तो समाज को एक बेहतर दिशा कैसे दे पाएंगा.
         सबसे ज्यादा नुकसान इससे हिन्दी-समाज को होता है,क्योंकि इनकी निष्क्रियता-कामचोरिता हिन्दी-समाज के प्रति हेय नजरिए को बढ़ावे देने में अहम भूमिका का निर्वाह करती है.क्या शिक्षक का काम केवल पाठ्यक्रम को निपटा देना भर  होता है(अक्सर निपटा देना ही होता है).या इससे आगे बदलते परिवेश की समझ के लिए निरंतर अपना  परिष्कार पढ़-लिख कर ही किया जा सकता है.जागरूक और सचेत नागरिक की भूमिका का निर्वाह ईमानदारी के बगैर संभव नहीं होता,परंतु प्रवक्ता साहेब नौकरी मिलने को अंतिम  सत्य मानकर आरामदायक जीवन-यापन करने में लग जाते है. उन्हें किसी अखबार या साहित्यिक-पत्रिका से कोई लेना-देना नहीं रहता.इसी कारण वो किसी विद्यार्थी को भी इन अखबारों एंव पत्रिकाओं के प्रति कोई जागरूकता फैलाने का काम नहीं करते.जबकि विद्यार्थियों के प्रति शिकायतों का लंबा-चौड़ा चिट्ठा इन की बातों में साफ झलकता हैं.
(विजय घणघस घरोंड़ा के निकट खोरा-खेड़ी गांव,जिला करनाल के निवासी है,मूलत: किसान परिवार से होने के कारण इनकी प्राथमिकता भी किसानी ही है,पर इसके साथ-साथ पढ़ने-लिखने का भी शौक रखते है,इसी कारण बहुत कुछ तो इंटरनैट के जरिए ही पढ़ते-लिखते है,इसी क्रम में जनसत्ता-अखबार में रूचि जागी और उसे अपने ब्रॉकर से कह-सुन कर मंगवाना शुरू किया. कई बार अखबार अगले दिन भी पहुंचता है, फिर भी इस बात से संतुष्ट है कि पहुंच तो जाता है.कहते है कि-साहित्य कभी बूढ़ा नहीं होता.इस अखबार के समाचार भी इन्हें साहित्यिक लगते है.विजय की इस साहित्यिक-लगन को सलाम और इसी उम्मीद में की  कहीं से तो शुरुआत होनी ही है,विजय से ही सही.)

सबसे ज्यादा खतरा मुझी-से है

सबसे ज्यादा खतरा मुझी-से है,
तुमको,
जब भी मैं यह बात तुमको कहता हूं,
तुम्हे हंस कर नहीं टालनी चाहिए,
क्योंकि,
मुझ में भी कहीं न कहीं,
बसती-रहती है तमाम मर्द-वादी मानसिकता,
वो संस्कार,संस्कृति,
वो परंपराएं,
जो तुम्हे कमतर बताती-मानती आईं हैं,
भले ही तुझे मुझ में रब दिखता हो,
उसी की आड़ में राक्षस भी छिपा हो ,
चाहे मैं बातें कितनी-ही अच्छी करता हो,
उनके पीछे भी कोई मजबूरी या राजनीति हो ,
मत समझो मुझे तुम अपना रक्षक,
सदियों से रहा है पुरुष तुम्हारा भक्षक,
रक्षक होना तो बस छलावा-भर है,
ताकि तुम अपना दुश्मन केवल उन्हें ही समझो,
बचा रहूं मैं तुम्हारी नजरों से निरंतर,
इसलिए,
सबसे ज्यादा खतरा मुझी-से है.
मत रहो समर्पण के भाव-से,
रहो केवल अधिकार भाव-से,
जियो अपना जीवन चाह-से,
मुहावरे गढ़ो अपनी राह-से.

एंकर रवीश कुमार जी

एंकर रवीश कुमार जी,
बहुत बार मन करता है कि आप से किसी तरह बात हो,
पर ऐसा संभव ही नहीं हो पाया,
तो सोचा क्यों न ब्लॉग के जरिए ही इस आंकाक्षा-महत्वकांक्षा को,
परवान चढ़ाया जाए,
तुम्हे दोस्त कहूं या अपना प्रिय एंकर कहूं,
या कस्बे का ब्लॉगर कहूं,
टविटर पर आप को पढ़ते हुए,
बहुत बार चलते-रहिए सुना तो,
यह वाक्य अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण एंव अवधारणात्मक लगा,
तो सोचा क्यों न ,
इसी नाम से ब्लॉग ही बनाया जाएं,
ब्लॉग बनाया तो सोचा कि पहली पोस्ट आप को ही लिखी जाएं,
पर किन्हीं कारणों से नहीं लिख पाया,
कई बार हम बहुत कुछ सोचते ही रह जाते है,
कर नहीं पाते,
शायद यह भी चलते रहने का ही परिणाम हो,
खैर,मेरी बातें उपरी तौर पर फोलोवर जैसा आभास भले ही देती हो,
पर वह मैं किसी का नहीं हूं,न हो सकता हूं,
वैसे भी चलता हुआ इंसान किसी के हाथ का मोहताज नहीं हुआ करता,
बहरहाल,
दोस्त तुम को पढ़ते हुए,सुनते हुए,
काफी कुछ समझने और अभिव्यक्त करने में मदद मिलती है,
जिसका मैं कायल-सा हो गया हूं,
पता नहीं कब से मैं एक सम्मोहन की स्थिति में पहुंच गया,
इसका आभास मेरी प्रेमिका ने कराया,
जब उसे लगा कि--
उसके जितना या उससे ज्यादा स्पेस,
मैं आपको देने लग गया हूं.
इसी कारण वह आपसे ईर्ष्या भी करने लगी है,
वरना वह भी तो प्राइम-टाइम तथा हम-लोग बड़े ही चाव से देखा करती थी,
अक्सर हम बात भी किया करते थे,
बातों ही बातों में उसे आपका असर मुझ पर दिखने लगा होगा,
इस मुग्धता से बाहर निकलने के लिए ही,
मै यह पोस्ट लिख रहा हूं,
इसे अपने पाठक-दर्शक की फीडबैक समझ कर स्वीकार करे.
आपका पाठक-दर्शक
नवीन




शनिवार, 17 अगस्त 2013

प्रिय

तमाम झगड़ों के बावजूद,
घर नहीं करता ,
डर
उसके अंदर.
हम अपने रिश्तों के घर को,
बनने नहीं देते मक्कड़-जाल.
रिश्ता--
अब हो गया है,
पिपल के पत्ते की तरह,
जो अपना रंग छोड़ देता है,
पानी में रहते-रहते.
 जो खो चुका है अपना रंग,
प्रेम में,
हो गया है परादर्शी,
फिर बी,
न जाने क्यों झगड़ते है हम,
मामूली-सी बातों पर,
शायद इसी का नाम जिदंगी है,
अगर यही जिदंगी है तो,
यह ऐसी भी क्यूं है.
जिदंगी की फिसलन-उठलन,
के बावजूद,
प्रेम है--
हवा की तरह स्वच्छ,
स्वच्छंद,
निरंतर गतिमान,
और
ऊर्जावान.

आंखों में तैरते सपने

उठती हुई भावनाओं,
को दबा देती हो,अक्सर.
दोहराती रहती हो,
बार-बार उन शब्दों को,
कि
गलत है,गलत है,
गलत है,गलत है,
बदल देती हो,झूठ को,
सच में,सच को झूठ में.
मसलती रहती हो संवेदनाओं को,
इस कदर,
न करती है असर,
न करवा पाती है.
ओढ़ रखा है आंचल,
तुमने,
कठोरता का,
जबरदस्ती.
कहती हो जो अक्सर,
कि
उम्मीदें नहीं करती ज्यादा,
सपने भी नहीं पालती,
आदि-अनादि.
कहती हो,
मात्र
होता नहीं है वैसा.
पर हो गई हो पारंगत,
इतनी
व्यावहारिक बनने में,
कि खो दी क्षमता,
अहसास के दरिया में ,
डूबने-डूबोने की.
पहरा बैठा रखा है,
कोमल-चंचल बावनाओं,
पर
रखती हो उन्हे,
अनछुए,
अपने अंत:स्तल की,
गहराइयों में.
पहुंच गया मैं,
अनजाने ही,
उस स्थल पर,
जहां लगा रखा है तुमने,
'बैन'
तुम भी
रह न सकी सचेत,
अब,
डरती हो भविष्य से,
नहीं बनना चाहती तुम,
कारण
दु:खों के मेरे,
चाहती हो निपटना,
मगर
व्यावहारिकता से,
सहजता से नहीं.
कहा तुमने
मार दो इन,
सपनों को,
जो तैरते है हमारी आंखों में,
मत पालो इन्हें,
बच्चों की तरह,
कर दो इनकी
भ्रूण-हत्या.
बस यूं ही,
लिखते रहेंगे,
मिटाते रहेंगे,
नया लिखने के लिए,
जरूरी हो जाता है,
पुराने का मिटाना.

डर

तुम्हारे अंदर के विराने में,
घुमड़ती तितली,
छटपटा कर निकलना चाहती है,
बाहर.
टकराती है,
फिर टकराती है,
हारकर काटती है चक्कर,
फिर वहीं लौट आती है,
असफल.
तोड़ने में अपने रचे सांचे.
जब-तब,
पुलकित होता रोम-रोम,
बाहर की राह समझ बैठती है,
उसे,
वह.
कोहरा हट सकता है,
परदा भी उठ सकता है,
पर दीवार नहीं टूट सकती,
उसे तोड़ना ही पड़ेगा,
आखिर गिरानी पड़ेगी,
नहीं तो वह नहीं मिटती.
स्नेह निरंतर चुलबुलाहट में,
बातचीत में,
हंसी-मजाक में,
अपने को छिपाए रखे,
यही उसे ठीक लगता है,
जो हर समय गुदगुदाता है,
चुटकियां काटता चलता है.(15 जून 2007) 

तुम ही बताओ !

"आदमी गलतियों का पुतला है "
बचपन में ही न जाने कब,
किसने,मुझे यह फिकरा सौंप दिया,
जब से लेकर अब तक,
आदमी बनने के चक्कर में ,
गलतियां ही करता रहता हूं.
क्या यह सफाई हजम होने वाली है,
नहीं,ना,
फिर भी,
मैं तुम्हे दे रहा हूं,
पता नहीं क्यों ?
पर यह भी तो देखो,
कि गलती तो करता जरूर हूं,
पर उन्हें रिपिट नहीं करता,
 पर हां,बार-बार,
गलती करता ही रहता हूं.
तुम ही बताओ !
गणित तो तुमने भी पढ़ा होगा,
+ ठीक काम = -गलत काम,
+     काम            = -काम,
बचा कौन ?
केवल मैं.
फिर भी तुम ऐसा करती हो,
अरे ! मैं तो भूल ही गया कि,
तुम गणितज्ञय थोड़े ही हो,
साहित्य की विद्यार्थी हो,
चलो तुम्हारे क्षेत्र में ही समझने का,
प्रयास करते है.
अब तुम कहोगी कि-
ये चालाकियां नहीं चलेगी,
मुझे कुछ नहीं सुनना है,
यहीं से सारा समीकरण ही,
बिगड़ जाता है.
अंतिम फार्मूले को पहले ही इस्तेमाल,
करने से सवाल का हल नहीं निकलता,
बल्कि उलझ जाता है,
फिर गतिज्ञय की तरह समझाने लगा,
बिना जोड़-घटा के,
जीवन चलता ही नहीं,
पता चले,
घाटा ही घाटा हो रहा है.
तुम ही बताओ !
क्या यह बनियागिरी नहीं है,
क्या यह छलावा नहीं है,
तुम सब जानती हो.
ऐसा थोड़े ही है,
कुछ,ऐसा भी तो होगा,
जो तुम नहीं जानती हो,
वही तो असली या मार्के की चीज है,
अब तुम कहोगी कि मैं अब सब कुछ जान गई हूं,
जो पहले पता नहीं था,
बस  यही एक गलती तुम भी तो करती हो,
कि सब कुछ जान गई हो.
सब कुछ जानने का मतलब है,
अब कुछ जानने को कुछ बचा ही नहीं,
जबकि यह ,
असंभव है,
तुम असंभव को,
संभव बना रही हो,
है न अजीब बात(क्या बात है),
लाजवाब,
गजब ढा दिया.
तुम ही बताओ !
क्योंकि तुम ही बता सकती हो,
बस,
क्योंकि तुम ही समझा ,
सकती हो.
केवल.

14 जून 2007 - प्रेमिका के लिए

अब जब भी तुम से मिलता हूं,
तुम्हे एक अजीब से ,
सम्मोहन से घिरा पाता ह.
जीने के लपलपाती,
तुम्हारी आंखें,
मुझसे लिपटती हुई-सी जान पड़ती है.
तुम्हारे होठ,कान, सभी,
निरंतर कर्मरत रहना चाहते है,
अक्सर तुम खोमाशी से,
सिहर उठती हो,
कोलाहल तुम्हें अजीब-सी,
संतुष्टि देता है.

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

पैंतरा-पिटारा-प्रगतिशीलता

जमूरा-उस्ताद आपने पिटारे पर प्रगतिशीलता क्यों लिख लिया.
उस्ताद-इसमें प्रगतिशीलता के सारे पैंतरे एक साथ रख लिए है.
जमूरा-क्यों ?
उस्ताद-आजकल भीड़ इन्हीं के नाम पर इकट्ठी होती है,इसलिए.न जाने कब कौन-सा पैंतरा फैंकना पड़ जाएं.एक जगह रहने पर सुविधा होती है तथा सामूहिकता वाला पैंतरा भी फिट बैठ जाता है.पॉलिटिकली भी करैक्ट हो जाते है.सर्वगुण सम्पन्न जैसा भाव भी बना रहता है.
जमूरा-पर उस्ताद पिटारे में तो ओर भी बहुत कुछ रखा है आपने.
उस्ताद-चुप रह.इस तरह की बातें खुले आम नहीं कहा करते.समय विचार लेना भी जरूरी होता है.नहीं तो मूरख बनने में देर नहीं लगती.और एक बार जो तुम पिछड़ गए तो फिर पिछड़ों की अगुवाई कैसे करोगे.
जमूरा-उस्ताद पैंतरा क्या होता है ? डॉ.हरदेव बाहरी के शब्दकोश में तो पैंतरा-(पु.)-तलवार आदि चलाने,कुश्ती आदि में पहले वाली मुद्रा से दूसरी ओर अधिक उपयुक्त मुद्रा में आना,चालाकी से भरी हुई कोई चाल या पैर का निशान-बताया गया है.तथा पैंतरेबाज-जो हथियार आदि चलाने की सही ढञंग जानता हो,या जो समयानुसार रंग-ढंग बदलना जानता हो.
उस्ताद-(सोचते हुए-हरदेव बाहरी किस तरफ का है-कुछ याद न आने पर) अरे उसको छोड़ो,   यह वह शब्द-खेल है,जो अनेक-अर्थी होने के कारण कभी पकड़ में नहीं आएगा.जैसे ही पकड़ो गे ,यह तुरंत छि-टक कर अपना खोल बदल लेगा.इसमें सबको फिट भी किया जा सकता है और अनफिट भी किया जा सकता है.
जमूरा-फिट-अनफिट से मतलब.
उस्ताद-अपनी तरफ करना या दूसरी तरफ--दुश्मन खेमे में शामिल करना.
जमूरा- पर उस्ताद दुश्मनी करना तो ठीक नहीं होता.
उस्ताद-पागल इसे पक्षधरता कहते है.अपने-पराएं के भेद पर आधारित होती है.जो गरीब,निसहाय,शोषित,कमजोर आदि आदि है उनके पक्ष में.जो इनका पक्ष नहीं धरता-उठाता वहीं अपना दुश्मन है.यानी वो अपना विपक्ष है.उससे ही समाज को मुक्त करना है.ऐसा कहते रहना ही हमारा धरम है.धरम को नहीं छोड़ना चाहिए.
जमूरा-पर उस्ताद धरम से ज्यादा तो महत्वपूर्ण करम है.
उस्ताद-विरोध की संस्कृति को हम जिंदा रख कर उसी धरम के करम में लगे हुए है.और हां तू इस तरह के सवाल अकेले में ही किया कर.सामूहिक मंच पर एकजुटता नजर आनी चाहिए.नहीं तो दुश्मन अपने को कमजोर मानेगा.कमजोर होना हमें बिल्कुल पसंद नहीं है.हमें मजबूत दिखना चाहिए.अपनी कमजोरियों को छुपा कर ऱखना ही समय की मांग है.
जमूरा-उस्ताद फिर इस पिटारे की क्या जरूरत है ?
उस्ताद-पैंतरों को हमेशा पिटारे में ही रखना चाहिए.खुले आम कर देने पर इनमें जर लग सकता है.वैसे भी खुले रखूंगा तो क्या तू मुझे अपना उस्ताद मानेगा.नहीं ना.बस इन्हें पिटारे में रखने से ही हमारी बूझ होती है.नहीं तो हर कोई प्रगतिशील हो जाएगा तो फिर अलग और विशेष क्या रहेगा.हमारी तो अहमियत ही खतम हो जाएगी.हम विशिष्ट कैसे रहेंगे.कौन अगुवाई करेगा.विरोध की संस्कृति को आगे कौन ले कर जाएगा.
जमूरा-तो क्या उस्ताद, मैं हमेशा जमूरा ही बना रहूंगा और आप उस्ताद ही.या कभी आप भी जमूरे बन सकते है और मैं उस्ताद.
उस्ताद-चल भाग यहां से,तुझ पर भी दुश्मनों का रंग चढ़ कर बोलने लग गया.साला अपनी औकात ही भूल गया.मत भूल क्या-क्या नहीं किया मैं ने तेरे लिए.गद्दार कहीं के.कौन तुझे साथ में बैठाना  पसंद करता था.पर मैं ने तुझे साथ बैठाया-खिलाया.पर साले तू उस लायक ही था.जहां से उठ कर आया है चला जा वहीं पर.गंदी नाली के कीड़े.
ऐसा मन ही मन सोचता उस्ताद उसे छोड़ कर आगे बढ़ गया.अपने प्रगतिशीलता के पिटारे में पैंतरों को समेट-लपेट कर.किसी दूसरे जमूरे की तलाश में.

सोमवार, 12 अगस्त 2013

***( कंडीसन अप्लाई)

  
                                                         ***   (कंडीसन अप्लाई )
  
 हाँ ,पहले जरूरी सूचना या है (कृपया डरे जरुर )कि कहानी के साथ किसी भी प्रकार कि (शारीरिक या मानसिक )छेड़ -छाड़ न करे .नहीं तो धारा 375 के तहत सजा हो सकती है .यदि गवाहों ने साथ दिया तो .वरना ...आप कि इजाजत हो तो कहानी शुरू करे ,नहीं भी है तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता .
 
(कहानी वास्तविक है या नहीं .यह तो भई विक्की (विवेकानन्द ) ही जानते है कि छात्रों कि विश्वविद्यालय की समीक्षा के साक्षात गवाह है .उनके अगल -बगल में बैठ कर धुंआ उड़ाते छात्र ,जो अपनी सेहत तो दूर रही ,उनकी सेहत का भी मजाक उड़ाते हैं .वैसे कहानी कोरी दिमागी खुरापात ही है .ऐसा प्रोफेसर साहब चुपचाप 'सर्किट 'भाइयों से कहेंगे . इसका अंदाजा आपको अंदाजे -बयाँ से ही लगाना पड़ेगा यदि आप 'सर्किट 'की कटेगरी के  नहीं है तो .)
विभाग कि जाँच -पड़ताल से ही विश्वविधालय कि दशा -दिशा का हलफनामा बयान हो जाएगा .
आप कहेंगे कि वो तो' अधुरा' सच होगा .

जब एक व्यक्ति के गुण -अवगुण का सरली करण करके पूरी जाति का सूचक बना दिया जाता है तब .खैर


छोड़िए, जिरह फिर कभी ...

एक्सक्यूज मी सर 

हाँ बोलिए 

सर मैं यहाँ एम.फिल . में दाखिला लेने के लिए आया हूँ ,क्या प्रक्रिया हैं ,कैसे होगा 

ऐसा है भई कि हर संस्था कि तरह यहाँ पर भी कुछ दृश्य -अदृश्य नियम कानून है जो उनको फुलफिल करता

हो ,वहीं दाखिला ले सकता है तथा जिन्दगी में भी सफलता प्राप्त कर सकता हैं .

जैसे 

रामदेव थोड़े ही हूं जो कुछ नुस्खे बताये और सब समस्याओं का समाधान हो जायेगा .पूरी प्रक्रिया को समझना पड़ेगा .उस प्रक्रिया में अपने को परख कर देखना ,खरे उतरते हो कि नहीं (सोने कि तरह यहाँ पर विद्यार्थियों को जांचा -परखा जाता हैं | फिजिकल ,मेडिकल कि जगह मानसिक ,व्यवहारिक आदि कसोटियों पर खरा उतरना पड़ता हैं .तब जाकर कहीं इस एकेडमिक लाइन में 'स्पेस ' बना पाओगे .
                         

अच्छा ,आपकी जाति क्या है ?

उससे क्या फर्क पड़ता है . जाट हूं 

अरे यार ,तुम तो अनफिट हो .

नहीं ,मैं बिलकुल ' फिट '  हूं

फिट हो ये भी एक दिक्कत है 

क्यों ? 

तुम ज्यादा फिट हो 

कैसे ? 

पहलवान लगते हो ,भले ही तुम पहलवान होते ,पर लगना नही चहिए .

तुमसे पूछा जा सकता है कि पहलवान हो क्या ?

अब तुमसे इन लोगों को कोई पिटवाना थोड़े ही है ,खुद पीटने का डर हमेशा बना रहेगा .

पर सुना है , यहाँ पर मार्क्सवादी विचारधारा को 'फोलो ' करने वाले सर है ,जो कि समाज में समानता ,भाई-

चारा  और स्वतंत्रता का सपना देखते -दिखाते हैं .

तो कुछ हो सकता है क्या ?

यदि तुम पंडित होते तो तुमसे समानता और भाई -चारे का बर्ताव होता .

जहाँ तक स्वतंत्रता का प्रश्न है उसकी कुछ सीमाएं हैं -

दूसरे टीचरों कि गतिविधियों को फ -टीचरों को बताने के लिए स्वतंत्र हो .

छात्र -छात्राओं पर टिका टिप्पणी के लिए स्वतंत्र हो .

गुरु के हर कर्म माफ़ करने का भाव रखने के लिए स्वतंत्र हो .

आओ ,विभाग के दर्शन कर लो .

बाहर इतनी भीड़ क्यों हैं ?

ज्ञान बंट रहा है काफी हद तक . ज्ञान का उत्पाद हो रहा है ,दुकानदारी इससे बढती है 

ये सभी भी अपनी अपनी प्रतिभा को' शो 'कर रहे है 

ये शो आफ जारी है ......जारी रहेगा   .........इससे गुरुओं कि प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी ?

गुरु घंटाल बिन ज्ञान न होए ?

यही है राईट च्वाइस .

वो तेरी गली

तेरे प्यार में न जाने कितने चक्कर लगाए थे तेरी गली के,
कितनी गजलें सुनी थी एक खत लिखने के लिए,
तेरे मना करने पर भी लिखी थी-जगजीत की गजल,
'प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है,
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है,'
कितनी मुश्किलों से पहुंचा पाया था वो खत तुझ तक,
कितना डर-डर के जाया करता था तेरी गली में,
हर मौके को भुनाया  करता था तेरी  झलक पाने को,
यूं बस मुस्कुरा कर,कर देती थी अलविदा,
अगले दिन नई उम्मीदों के साथ जूट जाया करता था तेरी गली में,
हर कोई देखता था तुझे और मुझे घूर कर,
पर हम फिर भी देखते थे एक-दूसरे को प्यार से,
उस गली का एकाध लौंड़ा भी मुझे तुझे चाहता था,
जो मुझे पीटवाने की फिराक में हरदम रहता था,
पर मैं फिर भी तेरी गली के चक्कर यूं ही काटा करता था,
उन दिनों  न फोन थे,न मिलने की जगह,न  ही बात करने का मौका,
हमने प्यार किया बस आंखों ही आंखों में,
कई बार इशारे भी किए,
कितनी तेजी से धड़कता था दिल,जब तुम हंसती थी,
मुंह फेरती हुई-सी,
तुम्हारी दोस्त भी देख रही अक्सर हमारे प्यार को,
कैसे वो धकेलती थी तुम्हे मेरे से मिलने को,
पर हम कभी मिल नहीं पाएं...
न बात कर पाएं...
पर तुम बदनाम कर दी गई,
देखने भर-से,
मुझे लोग देखते थे मर्द वाली नजर से,
और मैं सिर झुका कर निकल जाता था,
तुम में खोया -खोया सा,
थोड़ा रोया-रोया सा.

सिनेमा ही रहने दीजिए

सिनेमा को सिनेमा ही कहना ठीक है.ये विशेषण वैचारिक मतंव्य-भर है कि-सार्थक सिनेमा,समानांतर-सिनेमा.कलात्मक-सिनेमा.कला-सिनेमा.व्यावसायिक-सिनेमा.लोकप्रिय-सिनेमा इत्यादि इत्यादि.इन्हें विशेषण ही रहने देते तो भी ठीक था,पर विशेषण से संज्ञा में बदल जाना घातक है.सिनेमा के व्यवसायिक पक्ष की उपेक्षा तो मार्क्सवादी-एप्रोच भी नहीं देती.आलोचना करिए.नकारिए मत.उपेक्षा सरकारी-कर्म है,उसके फेर में मत पड़िए.साहित्य के साथ घसीटा-घसीटी करना भी इसके साथ अन्याय ही होगा.

दिल-ए-दास्तान

दिल---दास्तान

दोस्तों,जिंदगी के इस मुहाने पर खडे होकर बहुत बार सोचता हूं कि,

तुमने भी कम दर्द नहीं दिए है मुझे,

बचपन तो बीता ही था,आंतक और डर के साएं में,

उसी से महसूस कर पाता हूं,तमाम आंतक और डर,

जिसने एक रात-भर बिताई हो आंतक के सांए में,

नहीं खोल पाता जुबान कई सदियों तक,

जैसे-तैसे करके पहुंचा था दिल्ली-यूनीवर्सिटी,

पर तुमने भी मुझे ट्रीट किया केवल हरियाणवीं समझ कर ही,

तुम्हारी नजर में था हरियाणवी का मतलब-मुंहफट,मौजमस्ती करने वाला बस,

बस इसी नजरिये तुमने कर दिया सरलीकरण सबका,मेरा भी,

साथ रहते हुए ऐसी उपेक्षाओं से जाना मैंने दलित और स्त्री की पीडा को,

महसूस किया तुम्हारे अपने-अपने पाठों को,चुपचाप समझता-देखता रहा,

क्या तुमने भी कभी महसूस किए मेरे दर्द,मेरी पृष्ठभूमि,मेरा अकेलापन,

शायद नहीं किया होगा,क्योंकि मैं नहीं बना पाया अपने को चलता-फिरता पोस्टर,

अकेले में ही खुरचता रहा अपने जखम,झेलता रहा विस्थापन का दर्प,

निकाल फेंका गया मुझको वहां से जहां पर मैंने जाना जीवन को इतने करीब से,

तब भी अकेला ही चुपचाप चला आया अपनी पीडा की पोटली को घसीटते हुए,

भले ही देख लेना अब भी निशां बाकी होंगे, उस घसीटी गई पोटली के,

कितना मुश्किल था उस समय अपने आत्म-सामान को इधर-उधर से समेटना,

बिखरे कागजों के बीच अपने होने का तलाशना,

वो पन्ने आज भी गवाह है,जिन पर झलके थे आंसू,

उन आंसुओं से मीटते हर्फ, आज भी जेहन में यूं ही सैलाब बने पडे है,

हस्ती मिटती नहीं यूं ही,मिटा दी जाती है-इसी मर्म को समेटता-टटोलता,

अपने ख्यालों में खोया-सा बस लौट आया.

पर लौट नहीं पाया आज तक.

अब्दुल-चायवाला

अब्दुल-चायवाला
कैंपस में चाय की तलब लगते ही पहुंच जाते अब्दुल के पास.सैंट्रल लाईबरेरी के पीछवाडे .कर देते आर्डर . जैसे कवि हर दुख पहचान लेता है उसी तरह अब्दुल  टेस्ट . बिना कहे पहुंच जाता चाय लेकर. चाय के साथ बीडी भी  मांग लेते उसी से. सोचता होगा की वैसे तो इतनी बडी जगह पढते है पर बीडी मांग के पीते है ,उसे क्या पता कैसे कैसे जुगाड लगाकर पढने आए है.
  उसे वैसे कम आफत थी जो उसे बार बार बिल्ली की तरह जगह बदलनी पडती. बदलने को तो इतना सामान नहीं था पर उन  ढोबरों को उठा कर कभी इधर रखो, कभी उधर रखो. इसी रख्खा रख्खी में पहुंच गया लॉ फैक्लटी के पास. कुछ दिन की जद्दोजहद के बाद सफाया ही कर दिया. बस रह गये पांडे जी, दुबे जी, शर्मा जी..पता नहीं ये सच में सपाईडर-मैन जाति के है या मौके की नजाकत को देखकर हो गये है. जिधर देखो यहीं है.

   चलता कीया अब्दुल को . छोड गया कुछ उधार...छोड चला वतन तुम्हारे हवाले साथियों की तर्ज पर . और कुछ सवाल...
वो सवाल आज भी दिल्ली -विश्वविद्यालय नॉर्थ-कैंपस में गूंज रहे है.पर हन्नी सिंह की यो यो में कहीं दब से गए है या  साथी लाल-सलाम,लाल-सलाम की पुकार में पैर तले जा बैठे है.

सरकार मां कैसे बन सकती है ?

देर रात को शादी में खाना परोसने के साथ-साथ  बर्तन साफ करने के बाद अपनी मजूरी लेकर  लौटते हुए बच्चों को पुलिस चोर और आवारा बना कर सुधारगृह में डालती नहीं फेंक देती है.सुधारगृह भी फुटपाथ और रेलवे स्टेशनों से ज्यादा फरक में नहीं दीखता.एक लड़का और एक लड़की दोनों को उसमें डाल दिया जाता है.लड़की की मां जब अपनी बेटी को छुड़वाने के लिए आती है तो-उसे यह कह कर कि तुम वेश्यावृति में शामिल हो इसलिए सरकार तुम्हारी बेटी का पालन-पोषण करेगी.तब नायिका कहती है कि -'सरकार  मां कैसे  बन सकती है ?'
1988 मे मीरा नायर की फिल्म 'सलाम बॉम्बे' की नायिका का यह सवाल आज 2013 मे ं भी उसी तरह अपने जीवंत रूप में खड़ा है.भारतमाता की जय,वंदेमातरम के नारों के बीच यह सवाल-कि जो सरकार ऐसी परिस्थितियों को नहीं बदल सकी,जिसमें स्त्री और उस की देह का शोषण न हो,बच्चें आवारा बनने पर मजबूर न हो,तंत्र किसी भी तरह से उनका शोषण न कर सके.बनिस्पत इसके सरकार ऐसी परिस्थितियों को बढ़ावा देने में ही अहम भूमिका निभाती है.तब कैसे कोई सरकार मां की भूमिका का निर्वाह कर सकती है.बिना जिम्मेदारी की भूमिका का अभिनय सरकार आजादी के बाद से निरंतर कर रही है.अभिनय में इजाफा भले ही हो गया हो, पर जिम्मेदारी का निरंतर ह्रास ही हुआ है.सरकार की संजीदगी पर उठे सवाल आज भी यूं दी दर-दर भटक रहे है.

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

महेंदी में घुला प्रेम-रंग

 महेंदी में घुला प्रेम-रंग

यूं तो तुम मैं में,मैं तुम में,,
दोनों घुल रहे है2003 से ही,
पर थोड़ा-थोड़ा करके ही सही,
पर घुल रहे है निरंतर.
भले ही दुनिया तुम्हारे हाथों जितनी
नरम और गरमाहट भरी न हो,
पर मैंने जैसे ही कहा कि हां मैं
तुम्हे महेंदी लगाउंगा,
तुम्हारे चेहरे पर एक अजीब-सी खुशी ,
सिमटती हुई तुम्हारी बांहों में फैल गई.
तुम्हारा बार-बार यूं मुझे देखना,
तुम्हारी आंखों से टपकना-झलकना,
अनसोची,अनचाही सी यह खुशी,
कि मैं महेंदी लगा रहा हूं तुम्हे,
बार-बार रोमांचित किए जा रहा था तुम्हे,
मानो तुम्हे यकीन ही नहीं हो रहा था,
क्या सचमुच यह छोटी-सी बात इतनी बड़ी बात बन गई हो.
शायद महेंदी का रंग प्रेम के रंग में घुलमिल कर ही निखरा हो,
कितनी शिद्दत से हमने तय किया कि कौन-सा डिजाइन बनाना है,
जितनी शिद्दत से मैं बनाता चला गया,उससे कहीं ज्यादा तुम घुलती चली गई.
बार-बार तुम्हारा यूं लिपट कर कहना कि ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था,
सोचा तो मैंने भी नहीं था,
बस यूं ही मन किया कि मैं खुद तुम्हे महेंदी लगाऊ,
और लग गई महेंदी,
बस महेंदी के रंग में घुल गया प्रेम-रंग.