शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

खेल सिर्फ खेल नहीं होता

पढ़ना-लिखना जैसे आज जिंदगी का सबसे बड़ा हिस्सा है। कभी खेल हुआ करता था। जिंदगी में बहुत कुछ खेल से भी सीखा है। आज एक ऐसी ही घटना का बताता हूँ। वैसे तो रेस करना और कबड्डी खेलना मेरे सबसे प्रिय और हुनर के खेल थे पर क्रिकेट भी कम नहीं था।
एक बार आपस में खेल रहे थे मैच। टेनिस बॉल से। मैच आखिरी ऑवर में पहुंच गया था। आखिरी ऑवर की बी 2 गेंद बची थी और छः रन चाहिए थे। सेकंड लास्ट बॉल खाली निकल गयी और अंतिम गेंद पर छः रन चाहिए थे। मैं बैटिंग कर रहा था और मुझे ऐसा लगा कि मैं दबाव महसूस कर रहा हूँ।

दबाव में खेलना मुश्किल काम होता है और यह कमजोरी मेरी आज भी है। दबाव मुझे कमजोर बनाता है और मैं अपना बेस्ट नहीं दे पाता। पर बौद्धिक रूप से उस क्षण में मैं कमजोर नहीं होता और निर्णय लेते वक्त ज्यादा व्यावहारिक हो जाता हूँ। निर्णय और विश्वास का क्षण था तो

मैंने निर्णय लिया कि अंतिम गेंद दूसरा खिलाडी खेलेगा। उसको बैट पकड़ाते हुए मैंने उसे सिर्फ इतना कहा खुलकर खेलना। हार-जीत की मत सोचना। तुम छक्का मार दोगे। मुझे पता है। क्योंकि
बॉलर को अति आत्म-विश्वास हो जायेगा और वो इस विचार से बाहर ही नहीं निकल पायेगा कि बिल्लू मुझसे डर कर बैट छोड़ गया। बॉलर वैसे भी मुझसे मन ही मन खार खाये रहता था। क्योंकि मैं सम्बंधों से ज्यादा हुनर का कायल रहा हूँ। हुनर हो तो मुझे दुश्मन भी पसन्द होता है बल्कि फ़ैन की सीमा तक होता है। बॉलर के चेहरे पर विजेता के भाव थे जो मुझे हमारी जीत का संकेत दे रहे थे। ठीक वैसा ही हुआ जैसा मैंने सोचा था। उसने फूल लेंथ गेंद फेंकी और उस पर सन्दीप उर्फ़ कालिया ने छक्का जड़ दिया। हालाँकि

मैं मारता तो बॉलर को ज्यादा टीस होती पर उसमें खतरा भी था हारने का। मेरा मकसद उसे टीस पहुंचाना नहीं था बल्कि अपनी नेतृत्व क्षमता को बढ़ाना था। इस तरह की घटनाओं ने मुझमें नेतृत्व की क्षमता बढ़ाई भी। जब मैं नेतृत्व कर रहा होता हूँ तो मेरी व्यक्तिगत कुंठाएं कहीं गहरे दब जाती है उस समय मैं केवल प्रतिनिधित्व कर रहा होता हूँ। जिसकी वजह से आज भी मेरे पान्ने के खिलाडी मेरा सम्मान करते हैं। जो मुझे और अधिक जिम्मेदार बनने के लिए प्रेरित करता है।


जिंदगी सीखने का नाम है और हर पल और हर जगह से सीखते चलिए।