मंगलवार, 13 मई 2014

ताते यह चाकी भली, पीस खाए संसार



समाजसेवा क्या वाकई समाज सेवा होती है ? 
यह सवाल जब से होश संभाला तब से जेहन में कुलबुलाता रहा हैं.समाज सेवा और जनजागरण के फरक को शुरूवाती दौर में समझ भी नहीं पाता था.जैसे मैं ने बीजीवीएस (भारत ज्ञान विज्ञान समिति) को काम करते हुए देखा.तो लगा ये लोग वाकई समाजसेवा कर रहे हैं.अपना इतना बहुमूल्य समय समाज के लिए दे रहे है.उसी प्रभाव में हमने भी अपनी दादी को नाम लिखना सीखा दिया था.अब लगता है कि वो समाज सेवा नहीं थी,वह तो एक तरह जन-जागरण था.समय और परिस्थितियों की मार में जिसकी धार कम होती चली गई.


हां इतना जरूर हुआ कि वह जब अपने चरम पर था,उस समय मैं बिल्कुल बच्चा(समझ व उमर दोनों में) था.उसके नारों ने मुझे काफी प्रभावित किया था.जैसे--पानीपत की तीसरी लड़ाई या
खेती संभलै नुलाई तै
जिंदगी सुधरै पढ़ाई तै.(जैसा याद रहा है,वैसा ही लिखा है)

उनके वो नुक्कड़ नाटक करना याद है.क्या संदेश और थीम थी.यह अतीत की स्मृतियों में कहीं खो गई हैं.
खैर जब ठीक-ठाक समझ बननी शुरू हुई,उस समय तक जनजागरण करने वाले तमाम आंदोलन कुंद पड़ चुके थे.(जहां तक मेरी सीमित जानकारी है)
फिर इन समाजसेवियों को उगते-फलते-फुलते देखा.जिनमें सबसे प्रमुख दो नाम है-भरत सिंह छौक्कर (पूर्व विधायक),इंद्र सिंह छौक्कर.जो कि समाज-सेवा नामक जो फसल बो रहे थे,उसे काटने से पहले उनकी आकस्मिक  मृत्यु हो गई.जिसे उनके भाई ने सिद्दत से काटा व काट ही रहे है.धर्म सिंह छौक्कर वर्तमान समय में विधायक है.

इतना तो समझ आने ही लग गया कि समाजसेवा एक तरह का इन्वैस्टमैंट ही है.इसकी प्रकृति और मूल दोनों में कोई तालमेल नहीं हैं.इस समाज सेवा के पीछे एक खास रणनीति व लाभ छुपा रहता हैं.यह समाजसेवा तो महज उसका आवरण भर है.इनमें से ज्यादातर या तो चुनाव से पहले की तैयारी के रूप में इस आवरण को अपनाते है या प्रसिद्धि इसके मूल में बैठी होती है.



पाहन पूजै हरि मिलेतो मैं पूजूं पहार।
ताते यह चाकी भलीपीस खाए संसार ॥---कबीर
इस सिलसिले में वर्तमान संदर्भों एवं समय में दो नाम ज्यादा उछल रहे हैं-रविंद्र मछरौली और शशिकांत कौशिक

पर यहां केवल रवींद्र मछरौली पर ही बात होगी,क्योंकि शशिकांत कौशिक के बारे में तथा उनके कामों के बारे में जानकारी कम है.जबकि रवींद्र मछरौली के दिखते हुए या सबसे बहु-प्रचारित काम दो है-एक समालखा हलके से खानपुर अस्पताल तक फ्री बस चलाना और दूसरा मोबाइल चक्की.जो गली-गली घूमते हुए गेहूं पीसने का काम करती है.आज ही उसकी फोटो ली है.तो सोचा क्यूं न लिख भी दिया जाएं.इसके साथ गाय-प्रेम के चलते भी गऊशाला को गाड़ी और शायद कुछ ओर भी सहयोग दिया है.

वैसे रवींद्र मछरौली के बारे में इस समाजसेवा के साथ-साथ अफवाहों का बाजार भी गर्म रहता है.खैर अफवाहों में कितनी सच्चाई और कितनी झूठ है.इसका न तो यह समय सही है और न ही जगह.


मन में एक जिज्ञासा है कि क्या लोग इस फोकट-सेवा को गंभीरता से लेते हैं ?

या महज लूट की तरह इसको लेते है,जैसे चुनाव के समय हर तरफ से खा-पी लेते हैं ?

या इस समाज-सेवा का लुत्फ उठाते-उठाते लोग  धीरे -धीरे वोट में तबदील हो सकते हैं  या हो जाते हैं ?

इतना तो तय है कि यह समाज सेवा राजनीतिक इच्छा शक्ति और स्वार्थ को संगठित करने के लिए की जा रही हैं.क्या यह एडवांस में दी गई रिश्वत की श्रेणी में आएगी और इसके साथ-साथ इन्वैस्टमैंट के रूप में इसे देखा-समझा जाना चाहिए.या वाकई में रवींद्र समाजहित में काम कर रहे है.इसके सटीक जवाब तो भविष्य के गर्भ में छिपे हैं,पर तमाम संभावनाओं और कयासों को खंगाला तो जा ही सकता है.

एक सवाल यह भी है कि  क्या वाकई इस तरह के काम करने से समाज में कोई बड़ा एवं सार्थक परिवर्तन हो सकता हैं ?
जहां तक मुझे लगता है कि इस सब कामों से नागरिक केवल फोकट के उपभोक्ता तो बन सकते हैं.उनके जीवन और समाज में इसके दुरगामी कोई सार्थक परिणाम निकलने असंभव ही हैं.किसी भी काम का जायजा उसके दुरगामी परिणाम ही निश्चित करते है.फौरी तौर पर पहुंचा लाभ अक्सर सीमित परिणाम ही देता हैं.इसमें नुकसान दोनों तरफ का होता हैं.समाज एवं इनवैस्टर दोनों अंततः ठगे जाने की संभावनाओं से लैस रहते हैं.इसलिए इन तथाकथित समाजसेवियों के नए सिरे से सोचना-समझना होगा.ताकि इनका भी हित हो जाएं और समाज भी बेहतर दिशा में अग्रसर हो सकें.अन्यथा रहने वहीं ढाक के तीन पात ही है,ना चौथा जामै,ना पांचवें की आस.