शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

लक्ष्मी टॉकीज़ की याद में---विमल चंद्र पांडे

विमल चंद्र पांडे फिल्म लेखन और निर्माण से जुड़े हुए है.इनकी फिल्में-(GROUND,WATER,AIR 24X7 )         .संस्मरण शैली में लिखी उनकी कविता,जो हमें हमारे अतीत और वर्तमान के बीच पैर फलाएं खड़े विकास का एक अलग ही चेहरा उजागर कर रही है.जिसमें अपनी सांस्कृतिक जड़ों की पहचान का संकट और किस तरह छवियां बनाई-बिगाड़ी जाती है,इसकी दस्तक भी साफ सुनी जा सकती है.यह कविता एक सामाजिक दस्तावेज है,जो अपने अंदर अनेक सवालों को संजोए हुए है.





लक्ष्मी टॉकीज़ की याद में

 February 5, 2012 at 11:41pm
उसकी याद किसी पुरानी प्रेमिका से भी ज़्यादा आती है

 उसने देखा है मेरा इतना अच्छा वक़्त
जितना मैंने खुद नहीं देखा

 किशोरावस्था के उन मदहोश दिनों में
जब हम एक नशे की गिरफ्त में होते थे

 हमें उम्मीद होती थी कि आगे बहुत अच्छे दिन आएंगे
जिनके सामने इन सस्ते दिनों की कोई बिसात नहीं होगी

 लेकिन लक्षमी टॉकीज़ जानता था कि ये हमारे सबसे अच्छे दिन हैं
वह हमारे चेहरे अच्छी तरह पहचानता था

 तब से जब वहां रेट था 6, 7 और 8 और वहां लगती थीं बड़े हॉलों से उतरी हुयी फि़ल्में
सच बताऊं तो हम बालकनी में फिल्में बहुत कम देख़ते थे

 कभी 6 और कभी 7 जुटा लेने के बाद 8 के विकल्प पर जाने का हमें कोई औचित्य नज़र नहीं आता था
मेरे बचपन के दोस्तों में से एक है वह

 हमेशा शामिल रहा वह हमारे खिलंदड़े समूह में
सबसे सस्ती टिकट दर पर हमें फिल्में दिखाने वाले मेरे इस दोस्त के पास मेरी स्मृतियों का खज़ाना है

 जो मैं इससे कभी मांगूंगा अपनी कमज़ोर होती जा रही याद्दाश्त का वास्ता देकर
मेरे पास जो मोटी-मोटी यादें हैं उतनी इसे प्यार करने के लिए बहुत हैं

 घर से झूठ बोलकर पहली बार देखी गई फिल्म `तू चोर मैं सिपाही´ के बाद
जब हम गाते हुए निकले थे लक्ष्मी से `हम दो प्रेमी छत के ऊपर गली-गली में शोर´

 तो हमें मालूम नहीं था कि जीने के समीकरण हमेशा इतने सरल नहीं होंगे
हमारे चेहरों पर नमक था और आंखों में ढेर सारा पानी

 कितनों ने तो उसी पानी को बेचकर रोज़ी रोटी का जुगाड़ किया है
और यह सवाल वाकई इतना तल्ख़ है

 कि मैं यह नहीं कह पाता कि उस पानी में कभी मेरी तस्वीर बनती थी तो उसमें कुछ हिस्सा मेरा भी था
स्मृतियों की भी उम्र होती है और इंसानों की तुलना में बहुत ही कम

 ये बात अव्वल तो कभी किसी ने बतायी नहीं
कहीं सुना भी तो अविश्वास की हंसी से टाल दिया

 अब जब कि क्षीण हो रहा है जीवन
वाश्पीकृत हो रही हैं स्मृतियां

 दिनों की मासूमियमत सपनों की तरह याद आती है
उन्हें याद करने के लिए आंखें बंद कर मुटि्ठयां भींच दिमाग पर ज़ोर लगाना पड़ता है

 ऐसे में जब माइग्रेन का दर्द बढ़ जाता है
बेतरह याद आती है लक्ष्मी टॉकीज़ की

 जहां से निकलते एक बार हमने घर में बचने के लिए ईंटों के बीच छुपा दी थीं
अपनी-अपनी लाल टिकटें

 अब जबकि पूरी तरह से भूल गया हूं लक्ष्मी टॉकीज़ में बरसों पहले खाए चिप्स का स्वाद
जिसे खाने का मतलब हमारे पास कुछ अतिरिक्त पैसे होना था

 उसके लिए कुछ न कर पाने का अफ़सोस होता है
हमारी इतनी ख़ूबसूरत स्मृतियों के वाहक को

 जब कालांतर में बदल दिया गया `शीला मेरी जान´ और `प्राइवेट ट्यूशन टीचर´ लगाने वाली फिल्मों में
तो हम क्यों नहीं गए एक बार भी उसके आंसू पोंछने

 हम क्यों नहीं समझ पाए कि किसी की पहचान बदलना
दरअसल उसे धीरे-धीरे खामोशी से ख़त्म किए जाने की साज़िश का हिस्सा होता है

  मेरी आंखों के सामने धीरे-धीरे एक बड़ी साज़िश के तहत
बदलते हुए रास्तों से ले जाकर बंद कर दिया गया है उसे

 अब भी उसके चेहरे पर चिपका है एक अधनंगी फिल्म का पोस्टर कई सालों से
जो सरेआम उसके बारे में अफ़वाहों को जन्म देता रहता है

 और उसकी छवि बिगाड़ने की भरपूर कोशिश करता है
 हम जानते हैं उसका हश्र

 किसी दिन वह इमारत अपने पोस्टर  समेत गिरा दी जाएगी
और उसकी जगह कोई ऊंची सी इमारत बनायी जाएगी

 जिसमें ऊपर से नीचे तक शीशे लगे होंगे
हमारे जैसे पैसे जुटा कर फि़ल्में देखने वाले लोगों का वहां फटकना भी मुश्किल होगा

 बताया जाएगा कि शहर की खूबसूरती बढ़ेगी उस इमारत से
लेकिन अभी मुझे सिर्फ लक्ष्मी टॉकीज़ की छवि की चिंता है

 कल को कोई यह न कहे कि अच्छा हुआ जो यहां एक मॉल बन गया
यहां एक हॉल था जहां हमेशा गंदी फिल्में लगती थीं

 मॉल बनाइए, हाइवे बनाइए, फ्लाइओवर बनाइए
लेकिन यह मत कहिए कि हम इनके बिना मरने वाले थे अगले ही दिन

 सिर्फ़ ज़िंदा रहने की बात करें जो हममें से ज़्यादातर लोगों के लिए सबसे बड़ा सवाल है
तो हमारे लिए रोटियों के साथ अगर कोई और चीज़ चाहिए थी

 वह था थोड़ा सा प्यार, थोड़ा सा नमक और लक्ष्मी टॉकीज़

शनिवार, 16 नवंबर 2013

राम-लीला,सोमालिया का पाइरेटिड संस्करण





हिंसा और प्रेम के कॉकटेल में परोसी गई फिल्म राम-लीला न तो हिंसा के समाजशास्त्र को सही से व्याख्यायित कर पाई है और न ही प्रेम को अपनी विराटता और सहजता में परोस पाई है.दोनों ही स्तरों पर फिल्म निराश अधिक करती है.संजय लीला भंसाली से एक सफल निर्देशक होने के नाते ज्यादा उम्मीद रखना गलत नहीं था.पर उन्होंने अपने कमजोर निर्देशन से ब्लैक और देवदास के असर को कम ही किया है,उसे बढ़ाया नहीं है.

भंसाली ने अपने सारे सामर्थ्य को राम-लीला के गानों में खपा दिया. रंगों के प्रति लालसा और नजरिए को सीमित दायरे में रखने का ही नतीजा यह रहा कि फिल्म सतह पर ही तैरती रह गई.गहराइयों में उतरने का प्रयास तक नहीं करती.उसी के फलस्वरूप फिल्म बहुत ही सतही बन कर रह गई है.

हिंसा के समाजशास्त्रीय और भारतीय परिवेश की ना-समझी भी हमें फिल्म की विश्वसनीयता पर संदेह अधिक कराती है.ऐसा लगता है कि निर्देशक ने सोमालियाई परिेवेश पर बनी फिल्मों को चलताऊ ढंग से देखा-समझा और उन्हीं का असर रह गया हो.इसी कारण हथियारों के प्रति मोह और गोलियों की खनक के बीच प्रेम हल्का और कमजोर नजर आता है.

प्रेम क्या मर-मिट जाने में ही अभिव्यक्त हो पाता है ? जीवन की सार्थकता लील देने पर ही क्यों अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचती है ? पारिवारिक दुश्मनी के बीच उपजे प्रेम हमेशा मृत्यु की आगोश में
ही क्यों परिणत होते है ? क्या प्रेम में मर जाना ही प्रेम को सार्थक बनाता है ? मृत्यु को उत्सव तरह भुनाना क्या फिल्मी ट्रैंड भर है या जीवन के प्रति सतही समझ का परिणाम है.

कुल मिलाकर फिल्म न तो प्रेम को ही सजीव रूप में अभिव्यक्त कर पाई है और न ही हिंसा को विभिन्न एंगलों से जस्टीफाई कर पाई है.हां,फिल्म सोमालिया का पाइरेटिड संस्करण बन कर रह गई है.

रविवार, 3 नवंबर 2013

MAKE IT LARGE

 21 मिनट 35 सैकेण्ड की यह फिल्म कई घंटों की फिल्मों पर भारी है.अखाबारों में रोजाना छपने वाली छेड़खानी,बलात्कार,आदि की खबरे,जो हमें समझदार नहीं बनाती.बल्कि हमारी पुरुष मानसिकता को ओर दृढ करती है तथा पूरी प्रक्रिया को अनदेखी करते हउए स्त्री को दोषी घोषित करती-कराती है,उन पर करारा व्यंग्य इस फिल्म से उभरता है.स्त्री-पुरुष संबंधों में जैंडर के आधार पर होने वाले भेदभाव के साथ-साथ स्त्री को महज वस्तु और बदन समझ कर ट्रीट करने वाली मानसिकता का प्रतिकार भी इसे कई आयाम देता है.यह फिल्म हर स्कूल और कॉलेज में जरूर दिखाई जानी चाहिए...that day after everyday अनुराग कश्यप की लांग शोर्ट फिल्म बेहतरीन फिल्म है.

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

पियूष मिश्रा--हंगामा है क्यूं बरपा,थोड़ी-सी जो पी ली है

पिसूस मित्रा(पीयूष मिश्रा)बदले-बदले से नाम,बदले-बदले से काम
मैं शराब पी कर भी बीजेपी की प्रशंसा नहीं कर सकता.भले ही मैं ने पीनी छोड़ दी हो.ऐसा किसी हालत में नहीं हो सकता.प्लीज शराब छोड़ी है,पर मोह नहीं गया है.बदनाम मत करो शराब को.थोड़ी पीआ करो.मूंह बंद और दीमाग खुला रखा करो.
नशे की हालत में पियूष मिश्रा जी का विचारधारा रूपी बटुआ कहीं गिर गया.रात नशे की हालत में आप ने अपने विचारों के कोट को भी गंदा कर दिया.लोट-पोट होते हुए.माना यह गर्मियों का कोट था.क्या गर्मियां दुबारा नहीं आनी.सर्दी शुरू होने वाली है,इसका मतलब यह नहीं कि तुम उस गर्मियों के कोट की कद्र ही भूल जाओ.
पूरा हंगामा थोड़ी-सी पीने का नहीं है.आप ने मोदी के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जाहिर जो कर दी है.ऐसी इच्छाएं बहुतो ने जगजाहिर की है,पर आप एक विशेष विचारधारा को फोलो करते हुए ऐसा कह रहे है.