रविवार, 8 दिसंबर 2013

केजरीवाल--आम आदमी,राजनीति,मीडिया और सत्ता

मीडिया ने अगर 'आप' का साथ दिया होता,तो 'आप' दोनों पार्टियों का सूपड़ा साफ कर देती.कुछ लोगों ने संशय के कारण वोट नहीं दिया.इस तरह के स्वर भी सुनाई दे रहे है.इस उम्मीद के साथ-साथ तमाम तरह की आलोचनाएं भी की जा रही है.अनेक शंकाएं और कयास लगातार जारी है.जिनमें तिकडम और विरोध के साथ-साथ उम्मीद भी जिंदा है.आम आदमी पार्टी ने चुनाव को रोमांच से भर दिया.कइयों को लगता है कि यह मध्यवर्गीय रोमानियत की जीत है.इस पारटी में दूर-दृष्टि का अभाव है तथा यह अनेक मुद्दों पर भी साफ स्टैंड नहीं लेती.वैसे भी घोर यर्थाथवादी रूमानियत के हमेशा खिलाफ ही रहे है.

चुनाव हों और चुनावी लाइनें न हो.ऐसा होना असंभव है.'खाज से,न बाज से,राजनीति साफ होगी आप से.'----चुनावी चलताऊ लाइनों की भरमार  ही चुनाव को  पॉपुलर-कल्चर का हिस्सा बनाती है.अरविंद केजरीवाल ने कह कर या यूं कहे सीधे चुनौती देकर शीला दीक्षित को हराया है.इसी के परिमामस्वरूप इस तरह की लाइनें सोशल मीडिया पर तैरती नजर आने लगी.'अरविन्द केजरीवाल का नाम शीला-जीत रख देना चाहिए.'


आम आदमी पार्टी का चुनाव में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला नारा-
'कांग्रेस-बीजेपी हैं साढू, दे झाडू दे झाड़ू'

इस चुनाव के दौरान सुना सबसे मज़ेदार नारा. इसकी प्रतिक्रिया में भाजपा और कांग्रेस के नेताओं ने अनेक बयान दिए-

1. ये लोग नाली के कीडे है- सलमान खुर्शीद.

2. ये लोग बरसाती कीडे जैसे है- शीला दीक्षित....

3. यह पार्टी चिल्लर पार्टी है, दो से ज्यादा सीट मिला तो राजनीति छोड दूंगा- नितिन गडकरी.

4. 'आप' को अगर 6 सीट से ज्यादा मिल गई तो बीजेपी छोड दूंगा- अरुण जेटली.

5. जो अन्ना का न हो सका, वह दिल्ली का क्या होगा- नरेन्द्र मोदी.




इसी का परिणाम है कि   'राजनीति का कुर्ता-पजामा काल खतरे में पड़ता दिखा....और राजनीति का टोपी काल जन्म लेने के बाद उछलता-कुदता दिखा.'


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नतीजे पूर्ण बहुमत किसी को नहीं दिला सके.पर नए विकल्प की संभावनाओं के द्वार जरूर खोल दिए.

दिल्ली की जनता ने तवे पर पलटती रोटी वाले दोनों विकल्पों को नकार कर साफ संकेत दिया है कि जनता रोटी को सेकना नहीं पकाना चाहती है.इसलिए जनता ने रोटी को तवे से उतार कर आग पर सेंकने का काम किया.इस उम्मीद के वो उनका पेट भर सके.ना कि तवे पर बस उलटती-पुलटती हुई दिखे.अन्ना की चिट्टी और 'आप' पर किया गया तथाकथित संटिग बहुमत से दूर ले गया वरना जनता घणें 'छौ'(गुस्से) में थी.


वामपंथ और अन्य सामाजिक आंदोलनों और मीडिया की भूमिका

वामपंथ से मेरी वैचारिक सहमति होते हुए भी उनकी उपेक्षा करने की राजनीतिक समझ पर दुख होता है.कम-से-कम उन्हें वैचारिक और आलोचनात्मक स्तर पर 'आप' का साथ देना चाहिए.तब जरूर जब वो खुद राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ना चाहते.चुनाव के स्तर पर.वामपंथ को अपने से टफ कोच्चन पूछने का समय आ गया है.दूसरों से ही पूछते रहोगे या कभी अपने आप से भी सवाल करोगे.




रही बात आंदोलन,पार्टी और मीडिया की भूमिका की.आंदोलन को तो मीडिया ने समर्थन दिया था,परंतु आप को समर्थन कम मिला था.आम आदमी ने भाजपा को वोट इस चक्कर में ज्यादा दे दिया कि कहीं कांग्रेस को हराने में आप सफल न हो.भारत की विविधता को देखते हुए कोई दल विचारात्मक और व्यवहारिक स्तर पर कभी भी मुक्कमल नहीं हो सकता.हर दल अपूर्ण रहेगा.यही भारतीय लोकतंत्र की विशेषता और खामी दोनों है.कहीं दलित और स्त्री अन्य वंचित वर्गों के प्रश्न प्रमुख होंगे,कहीं गौण.
 

आप के साथ यदि वामपंथ,दलित आंदोलन,स्त्री आंदोलन और अन्य सामाजिक आंदोलन मिल कर एक हो जाए तो एक बेहतर दल के गठन की संभावनाएं बनती है,जो संभव भी है.सभी तरह के अतिवाद से भी बचने की गुंजाइश बढ़ जाती है.

पेड़ वर्कर,प्रतिबद्ध वर्कर और विश्वासी वर्कर.भाजपा-कांग्रेस व अन्य इसी तरह के दल चुनाव को पेड़ वर्करों के सहारे लड़ता है,वहीं वामपंथ इसे प्रतिबद्धता और सरोकारी वर्करों के सहारे.आप पार्टी ने वर्कर विश्वास और नई उम्मीद के कारण जुड़े हुए प्रतीत हुए. पेड़ वर्कर के निहितार्थ कोरे लाभ और स्वार्थ पर टिके होते है.प्रतिबद्धता में विचारधारा ज्यादा अहमियत रखती है,जबकि आप का आधार प्रतिबद्धता न हो कर विश्वास है.जो कि अन्य दलों से उठ चुका है.अब आप की परीक्षा की घड़ी है कि वो विश्वास को बढ़ाते है या तोड़ते है.उसी पर भविष्य निर्भर करता है आप का.यह बाहरी समर्थन बसपा और सपा की तरह का होता,जब फायदा दिखता साथ है ,नुकसान होता दिखेंगा तो अलग है.इस ठुल-मुल सरकार जो नुकसान होंगे,वो शायद दोबारा चुनाव से महंगे पडेंगे.

सारा जहर और लहर बस कांग्रेस के खिलाफ है.आप की जीत ने मोदी की लहर को खारिज किया है.जो कि नए विकल्प के तौर पर उभर कर सामने आना अभी बाकी है.

 'आप' ने  जो मुद्दे उठाए  हैं वह राजनीति को पुनः प्रयोगधर्मी  विमर्श शुरू करने में जरुर मददगार साबित होंगे.

 

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

गितवाड़े से लौटी माँ

माँ री !
जब से तुम गितवाड़े से आई हो,
पता नहीं तुम्हे क्या हो गया,
कुछ उखड़ी-उखड़ी सी लगती हो,
क्या वहां किसी ने कुछ कह दिया,...
या किसी लुगाई ने कुछ बता दिया,
तुम किस का दर्द सुनकर आई हो,
या अपने किस दर्द को दबा रही हो,
बताओ ना माँ,
तुम इतनी चुप क्यों हो.
तुमने आज वहां से आने में भी देर लगा दी,
ना तुम आज खुश-खुश लौटी वहां से,
वरना तुम तो रोज ऐसे आती थी,
मानो सारा जहर निकाल कर आई हो,
पर आज तुम कुछ जहर साथ लाई हो.
किसकी लड़की का दुःख सुन कर आई हो,
या किसी मार खाई औरत का दर्द सुन आई हो.
बताओ ना माँ !